-चैतन्य भट्ट-
मुफ्त वाले वादों की बहती बयार बता रही है कि प्रदेश में विधानसभा चुनाव सिर पर है। राजनीतिक दलों का मुफ़्त महोत्सव शवाब पर है। आज कोई एक वादा करता है तो कल दूसरा और भी बड़ा लेकर आ धमकता है। आज की राजनीति हर कदम दूरगामी परिणाम को लेकर नहीं बल्कि यह सोच कर उठाती है कि चुनाव में क्या फायदा होगा? नेता गरम तवे पर तशरीफ रखकर भी कहे कि नहीं, ऐसा नहीं है तब भी शायद ही कोई मानने को तैयार हो।
बीजेपी सरकार लाडली लक्ष्मी, कन्यादान जैसी जनकल्याणकारी योजनाएं पहले से ही चला रही है। ऐन चुनाव के पहले मुख्यमंत्री ने लाड़ली बहना नाम से महिलाओं को 1000 रू. प्रतिमाह देने की एक और योजना शुरू की। कांग्रेस ने इस राशि को बढ़ाकर 1500 प्रतिमाह करने के साथ साथ 500 रुपए में गैस सिलेंडर, 100 यूनिट फ्री बिजली जैसी घोषणाएं कर डालीं। शह और मात के इस खेल में माहिर शिवराजसिंह भी तत्काल 1000 की राशि को क्रमशः 3000 रुपए तक बढ़ाने का काउंटर आफर लेकर सामने आ गए।
सरकार में बैठी बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही यह बताना जरूरी नहीं समझते कि इन योजनाओं पर होने वाला भारी भरकम पैसा आएगा कहां से? प्रदेश के कर्ज में हुई ताबड़तोड़ बढ़त तो यही बताती है कि अंततः और कर्ज लेकर ही इन योजनाओं पर खर्च किया जाएगा। पिछले वर्ष ही प्रदेश का कुल कर्ज बोझ सवा तीन लाख करोड़ से अधिक हो चुका है। मौजूदा वर्ष में भी 55 हजार करोड़ रुपए कर्ज प्रस्तावित है जिससे प्रति व्यक्ति पर कर्ज का भार बढ़कर लगभग 50 हजार रुपये हो जाएगा।भले ही तर्क दिया जावे कि यह कर्ज केंद्र सरकार और रिजर्व बैंक द्वारा निर्धारित सीमा के अंदर है मगर प्रश्न यह उठता है कि कर्ज की रकम बजाय ऐसे संसाधनों में लगाने के जिनके रिटर्न से अदायगी संभव हो सके, राजनीतिक रेवड़ी बांटने में किया जाना कहां तक उचित है? घूम-फिरकर बात चार्वाक सिद्धांत पर आ टिकती है। कर्ज लो, कम पड़े तो और कर्ज लो और मजे करो। व्यक्तिगत संदर्भ में इस सिद्धांत की उपादेयता पर बहस हो सकती है मगर सरकार के स्तर पर कतई नहीं जहां मूल और ब्याज का भुगतान अंततः प्रदेश की जनता द्वारा ही किया जाना है। यह तो वही हुआ कि करे कोई और भरे कोई।
सुप्रीम कोर्ट ऐन चुनाव के पहले के रेवड़ी कल्चर पर गहरी नाराजगी जता चुका है। चतुर नेतागिरी ने इसे राजनीतिक रेवड़ी बनाम कल्याणकारी बहस बना कर तुम करो तो रेवड़ी हम करें तो जन कल्याण का जामा पहना दिया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी कह चुके हैं कि वोट के लिए मुफ्त सुविधाएं बांटने वाला कल्चर आर्थिक विकास के लिए बहुत महंगा पड़ेगा और युवाओं के वर्तमान को खत्म करके भविष्य को अंधेरे में धकेल देगा। जो लोग मुफ्त की सुविधाएं बांटने का ऐलान करते हैं, वे बुनियादी ढांचा बनाने और देश के भविष्य को संवारने में कोई योगदान नहीं देते। मगर लगता है कि उनकी अपनी पार्टी समेत कोई भी उनकी बात सुनने को तैयार नहीं है।
यह कल्चर भले ही राजनीतिक हित साधता हो और निम्नतम गरीब तबके को तात्कालिक फायदा पहुंचाता हो मगर वर्ग भेद भी उत्पन्न करता है। मध्यम वर्ग को इसके फायदे तो नहीं पहुंचते मगर उसे बढ़े करों, कीमतों और संसाधनों की कमी से उपजी स्तरहीन जनसुविधाओं का बोझ ज़रूर सहना पड़ता है। पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती अपनी ही सरकार को कह रही हैं कि सभाओं के आयोजन पर करोड़ों खर्च हो रहे हैं और सरकारी अस्पतालों में सुविधाओं के अभाव में मरीज गर्मी में तड़प रहे हैं। बिजली के झूलते खंभे, लटकते तार और ट्रांसफार्मर के बक्सों के गायब ढक्कन जहां तहां नजर आते हैं। भोपाल स्थित प्रदेश के सबसे महत्वपूर्ण सरकारी कार्यालय सतपुड़ा भवन में आग लगती है और 16 घंटे तक धधकती रहती है। करोड़ों खर्च कर आयोजित तमाम उद्योग मेलों, विदेश यात्राओं के बावजूद प्रदेश में औद्योगिक विकास की दर जहां की तहां है।
पैसे के सम्यक उपयोग और खर्च पर प्रभावी नियंत्रण से कर्ज की जरूरत घटाई जा सकती है मगर आलम यह है कि निर्माणाधीन बांध पहली बरसात में बह जाते हैं। ताज़ा ख़बर यह है कि 3000 करोड़ के ई टेंडर घोटाले में हार्ड डिस्क में टेंपरिंग की पुष्टि होने के बाद भी जांच एजेंसी यह पता नहीं कर पाई कि छेड़छाड़ किसने की थी। अब सुना है कि पुलिस क्लोजर रिपोर्ट लगाने की तैयारी में है। आबकारी राजस्व में वृद्धि का फायदा सरकारी मिली भगत से शराब माफिया उठाता है। गिनाने बैठें तो गिनती कम पड़ जाए वाली स्थितियां है। कोई अपने दामन में झांकने को तैयार नहीं है।
पिछले दिनों हुए कर्नाटक विधानसभा चुनावों में बीजेपी और कांग्रेस दोनों ने ही झोला भर भरकर मुफ़्त वाले वादे किए। बहरहाल नतीजों ने यही साबित किया कि जीत मुफ्त रेवड़ी के वादों की नहीं बल्कि पिछली सरकार की अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार से उपजी नाराज़गी की हुई।
मुफ्त रेवड़ी की संस्कृति को समाप्त करना जनता के हाथ में भी है और हित में भी क्योंकि सरकारी खजाने से किए गए ऐसे लाभों की भरपाई बढ़े हुए कर और कीमतों से ही होती है। गरीब वर्ग के लिए मुफ्त योजनाओं की आवश्यकता पड़े भी तो राजनीतिक दलों से उनके लिए आर्थिक फंड जुटाने के तरीकों को सार्वजनिक किया जाना चाहिये। यह मतदाताओं को मुफ्त और कल्याणकारी योजना में फर्क समझने में मदद करेगा और वह मुफ्त रेवड़ियां बांटने वाले दलों की सियासी जमीन खिसकाने में सक्षम होंगे। मगर इसके लिए जैसी सामाजिक और शैक्षिक जागरूकता जगाने की जरूरत है उसके लिए शायद ही कोई तैयार होगा। भला कौन ऐसा राजनीतिक रसूख गंवाना चाहेगा जो मुफ्त के वादों से ही हासिल हो जाता है। बहरहाल उम्मीद पे दुनिया कायम है।