राजनीति में वंशवाद एक निकृष्टतम कोटि का आरक्षण है। लोकतंत्र में इसका कोई स्थान नहीं है।
लेकिन, भारतीय राजनीति में शुरू से यह प्रथा हावी रही है। इक्का-दुक्का को छोड़कर लगभग सभी दल
इसकी चपेट में रहे हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव से वंशवाद की राजनीति कुछ खतरे में पड़ी है। केंद्रीय
राजनीति में जब मोदी का उदय हुआ तो वंशवाद के लिए कुख्यात कई दल धूल चाट गए। इस समय
महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव के अलावा विभिन्न प्रदेशों में 64 उपचुनावों का पूरे देश में
शोर है। महाराष्ट्र और हरियाणा ये दोनों ऐसे राज्य हैं जो वंशवाद के पोषक रहे हैं। इन दोनों राज्यों के
मौजूदा चुनावों में चार वंश अपनी कड़ी परीक्षा देने के लिए सियासी मैदान में हैं। महाराष्ट्र की बात करें
तो ठाकरे और पवार परिवार ताल ठोके हुए है। उधर, जाटलैंड के नाम से प्रचलित हरियाणा में हुड्डा और
चौटाला परिवारों के लिए यह चुनाव करो या मरो जैसा होगा।
दिल्ली की गद्दी पर मजबूती से जमे रहने के लिए भाजपा दोनों राज्यों में अपना दबदबा पूर्व की तरह
कायम रखना चाहेगी। राजनीतिक पंडित इस दुविधा में हैं कि केंद्र सरकार की राजनीति के बीच क्या
होगा इन राजनीतिक वंशों का भविष्य? वह मानकर चल रहे हैं कि दोनों राज्यों में वंशों के अंशों के लिए
मौजूदा चुनाव कड़े इम्तेहान से कम नहीं होगा। हालांकि हरियाणा के हालात के मुकाबले महाराष्ट्र का
माहौल काफी जुदा है। वहां ठाकरे वंश के लिए चुनौती नहीं, बल्कि जनता के लिए उत्सव जैसी स्थिति
है। वहां पहली बार ठाकरे परिवार से कोई चुनावी मैदान में है। शिवसेना के संस्थापक बाला साहेब ठाकरे
ने घोषणा कर रखी थी कि उनके परिवार का कोई व्यक्ति सत्ता के लिए चुनावी अखाड़े में नहीं उतरेगा।
महाराष्ट्र की सियासत में शिवसेना की मजबूती का यह बड़ा कारण था। लेकिन अब सियासत के मायने
बदल चुके हैं। आदित्य ठाकरे का बड़े अंतर से विजयी होना उसी दिन तय हो गया था जब उन्होंने
चुनावी अखाड़े में कूदने का एलान किया था। मराठा धरती पर हमेशा से शिवसेना की तूती बोलती रही
है। जनमानस में यदा-कदा यह मांग उठती भी रही है कि चुनाव में ठाकरे परिवार से कोई उनके बीच हो।
ठाकरे परिवार के चुनावी अखाड़े में कूदने के बाद भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने अपनी चुनावी रणनीति में
बदलाव किया है। भाजपा भांप गई है कि आदित्य ठाकरे के मैदान में उतरने से सियासी हवा उनके
विपरीत बहने लगी है। फिलहाल, इस बार महाराष्ट्र की जनता का झुकाव शिवसेना की तरफ ज्यादा
दिखता है। प्रदेश में अभी से एक मांग जोर पकड़ने लगी है। मांग है आदित्य ठाकरे को अगला मुख्यमंत्री
बनाने की। इस पर बीजेपी खुलकर भले ही कुछ न बोले, पर असमंजस की स्थिति में तो आ गई है।
हालांकि बेदाग सरकार चलाने के कारण मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस की स्वीकार्यता भी राज्य में बढ़ी है।
सियासती वंशवेल को लेकर हरियाणा का चुनाव भी इस बार दिलचस्प हो गया है। दो सियासी घरानों की
प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। अव्वल, चौटाला तो दूसरा, हुड्डा परिवार। भूपेन्द्र सिंह हुड्डा ने अपनी सियासी
जमीन को बचाने के लिए कांग्रेस का बड़ा विकेट अशोक तंवर के रूप में गिरवाया है। परिणाम क्या
निकलेंगे, यह तो चुनाव परिणाम से साफ हो जाएगा। दरअसल, जाटलैंड की मौजूदा राजनीति में हुड्डा
का अपना अलग रसूख है। प्रदेश के कद्दावर नेता चौधरी रणबीर सिंह के बेटे भूपेन्द्र सिंह हुड्डा हरियाणा
में लगातार दस वर्ष तक मुख्यमंत्री रहे हैं। उनके सीएम रहते ही उनके पुत्र दीपेन्द्र सिंह हुड्डा कांग्रेस के
युवा चेहरे के तौर उभरे और सांसद चुने गए। लेकिन पिता-पुत्र की ये जोड़ी बीते लोकसभा चुनाव में
धराशाई हो गई। हरियाणा की जनता ने दोनों को नकार दिया। तभी से हुड्डा परिवार की सियासत हाशिए
पर है। उसे बचाने के लिए मौजूदा विधानसभा का चुनाव उनके लिए नाक का सवाल बना हुआ है।
लोकसभा चुनाव में अपनी पसंदीदा सीट रोहतक से बेटे दीपेन्द्र सिंह हुड्डा हारे तो सोनीपत से खुद भूपेन्द्र
सिंह हुड्डा को पराजय मिली। खैर, वह लोकसभा चुनाव थे। अब विधानसभा चुनाव में भूपेन्द्र सिंह हुड्डा
अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। अगर अबकी बार भी हारे तो उनके सियासी करियर पर सवाल खड़े
हो जाएंगे।
हुड्डा परिवार के अलावा चौटाला परिवार भी अपनी सियासी जमीन को बचाने में लगा है। जबसे 'चौटाला
का शिक्षा घोटाला' सामने आया है। ओमप्रकाश चौटाला बेटे अजय सिंह चौटाला के साथ दिल्ली के तिहाड़
जेल में सजा काट रहे हैं। तभी से पार्टी जमीन पर आ गई है। चौटाला परिवार में भी कुछ सालों से
राजनीतिक जंग छिड़ी हुई है। जंग चाचा-भतीजे के बीच हो रही है जिसमें चाचा, भतीजे पर भारी पड़ता
नजर आ रहा है। आपसी कलह का नतीजा यह है कि इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) में पांच साल
पहले जहां 19 विधायक हुआ करते थे, अब घटकर मात्र तीन रह गए हैं। इस चुनाव में क्या होगा, समय
बताएगा। लेकिन सियासी घरानों के बीच छिड़ी जंग का फायदा भाजपा जमकर उठा रही है।
विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय पार्टियां बहुमत या अच्छी सीटें जीतकर आती थीं, तो केंद्र सरकार पर अच्छा
दबाव बनाया करती थीं। ऐसा संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार के दौरान देश की जनता ने
देखा। पर, विगत कुछ वर्षों से ऐसा देखने को नहीं मिला। क्षेत्रीय दलों के भीतर पारिवारिक कलह ही इस
कदर फैली है, जिससे उनका बुरा हाल है। प्रदेशों के बड़े दल जैसे सपा, राजद, इनेलो, डीएमके, टीडीपी,
पीडीपी आदि दल टूट के कगार पर पहुंच गए हैं। टूटने का एक ही कारण है, सियासी महत्वाकांक्षाओं का
बढ़ना। सपा में चाचा-भतीजे की लड़ाई तो राजद में भाई-भाई और भाई-बहन की लड़ाई उसी का प्रतिफल
है। लेकिन इन सबके इतर, सियासी दलों के अलावा देश की जनता का ध्यान इन दो राज्यों के
विधानसभा चुनाव पर है। 21 अक्टूबर को चुनाव संपन्न होने के बाद परिणाम 24 अक्टूबर को आएंगे,
तभी पता चलेगा कि इस बार किसकी मनेगी दिवाली और किसका निकलेगा दीवाला?