लड़कियों के बाजी मारने की हकीकत

asiakhabar.com | July 17, 2020 | 5:39 pm IST
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राजीव गोयल

अभी देश में नतीजों का सीजन चल रहा है। केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने दसवीं, 12वीं दोनों के नतीजे जारी
कर दिए हैं और एक एक करके राज्यों के शिक्षा बोर्ड के भी नतीजे आ रहे हैं। कोरोना वायरस के संक्रमण की वजह
से इस साल नतीजे देरी से आ रहे हैं मई तक सबके नतीजे आ जाते हैं। हर साल की तरह इस साल भी हर नतीजे
के बाद खबरों की सुर्खियां बनी हैं कि ‘लड़कियों ने बाजी मारी’। ऐसा हर साल होता है। साल दर साल इस खबर की
सुर्खियां ऐसे ही बनती हैं और उछलती-कूदती लड़कियों की तस्वीरें छपती हैं। केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने इस
साल के दसवीं के नतीजे जारी करते हुए बताया है कि लगातार तीसरे साल लड़कियों का पास प्रतिशत लड़कों से
बेहतर है। लड़कों के मुकाबले इस साल तीन फीसदी ज्यादा लड़कियां पास हुई हैं। बारहवीं में तो लड़कियों के पास
होने का प्रतिशत कोई छह फीसदी ज्यादा है।
जाहिर है जब लड़कियों का पास प्रतिशत ज्यादा होगा तो यह खबर बनेगी कि ‘लड़कियों ने बाजी मारी’। पर यहां
एक समस्या है। खबरों में यह नहीं बताया जाता है कि परीक्षा में शामिल होने वाले छात्रों में लड़के और लड़कियों
की संख्या कितनी थी, उनका अनुपात कितना था और पास होने वाले में दोनों की वास्तविक संख्या क्या है।
नतीजों के बाद सिर्फ उनका अनुपात बताया जाता है कि इतने प्रतिशत लड़कियां ज्यादा पास हुईं। वह वास्तविक
संख्या नहीं होती है। पिछले साल यानी 2019 में 10वीं और 12वीं की सीबीएसई की परीक्षा में 31 लाख छात्र
शामिल हुए थे। इनमें 18 लाख 19 हजार लड़के थे और 12 लाख 95 हजार लड़कियां थीं। अकेले दिल्ली क्षेत्र से
दो लाख 70 हजार लड़कियां थीं। इसका मतलब है कि बाकी पूरे देश से दस लाख से थोड़ी ज्यादा लड़कियां परीक्षा
में शामिल हुईं। इस साल के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं पर ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है कि इस संख्या में या
इस अनुपात में इस साल कोई बड़ा बदलाव आया होगा।
इसका मतलब है कि हर साल 10वीं और 12वीं की सीबीएसई की परीक्षा में लड़कियों के मुकाबले लगभग 40
फीसदी ज्यादा लड़के शामिल होते हैं। ऐसा क्यों होता है? सीबीएसई की परीक्षाओं में लड़कियों की संख्या इतनी कम
क्यों होती है? ध्यान रहे राज्यों के बोर्ड में लड़के और लड़कियों की संख्या में बहुत ज्यादा अंतर नहीं होता है। इस
साल उत्तर प्रदेश शिक्षा बोर्ड की 12वीं की परीक्षा में 14 लाख 90 हजार लड़कों के मुकाबले 12 लाख 81 हजार
लड़कियां पास हुई हैं। यानी दो लाख का ही अंतर है। बिहार शिक्षा बोर्ड की दसवीं की परीक्षा में इस साल उलटा
हुआ है। वहां सात लाख 29 हजार लड़कों के मुकाबले सात लाख 64 हजार लड़कियां पास हुई हैं। यानी लड़कियों
की संख्या ज्यादा है। इसका मतलब है कि राज्यों के बोर्ड की परीक्षाओं में शामिल होने वाले लड़के-लड़कियों का
अनुपात उतना खराब नहीं है, जितना सीबीएसई का है। यह अलग बात है कि राज्यों के बोर्ड नतीजों के बाद उच्च
शिक्षा के लिए दाखिला लेने वालों की संख्या में बड़ी गिरावट आती है। उसके अपने सामाजिक, आर्थिक और
ऐतिहासिक कारण है।
बहरहाल, सीबीएसई की दसवीं और 12वीं बोर्ड की परीक्षा में लड़कों के मुकाबले लड़कियां 40 फीसदी कम होती हैं।
पिछले साल का यह भी आंकड़ा है कि दसवीं की परीक्षा में अगर 18 लाख छात्र शामिल होते हैं तो 12वीं में उनकी

संख्या 13 लाख रह जाती है। यानी पांच लाख की कमी आती है। सवाल है कि बाकी बच्चे कहां चले जाते हैं?
फेल होने वाले बच्चों का औसत 15 फीसदी होता है पर 12वीं की परीक्षा नहीं देने वाले बच्चों का प्रतिशत 25
फीसदी से ज्यादा होता है। ये बच्चे आखिर कहां चले जाते हैं और इनमें कितनी लड़कियां होती हैं? इसका कोई
आंकड़ा उपलब्ध नहीं है।
असल में सीबीएसई बोर्ड की परीक्षा में लड़कियों के बाजी मारने की सुर्खियां कई वास्तविकताओं को दबा देती है,
जिसमें एक वास्तविकता तो यह है कि लड़कों के मुकाबले 40 फीसदी कम लड़कियां परीक्षा में शामिल होती हैं और
दूसरी वास्तविकता यह है कि दसवीं में फेल होने वालों से लगभग दोगुने छात्र 12वीं की परीक्षा में शामिल नहीं
होते हैं। ये दोनों आंकड़े इसलिए चिंताजनक हैं क्योंकि सीबीएसई के सभी जोन के लगभग सौ फीसदी स्कूल शहरी
इलाकों में हैं। अगर ऐसे शहरी इलाकों में भी ड्रॉपआउट का अनुपात इतना भारी है और लड़के-लड़कियों की संख्या में
इतना बड़ा अंतर है तो इसका मतलब है कि कहीं कोई गंभीर गड़बड़ी है, जिसे सुर्खियों से परे जाकर तत्काल ठीक
करने की जरूरत है।
बोर्ड की परीक्षा में लड़कियों ने बाजी मारी यह खबर लिखने वाले जब इस खबर की बारीकी में जाते हैं तो सिर्फ इस
बात की पड़ताल करते हैं कि लड़कियों ने कैसे बाजी मारी। फिर वे बताते हैं कि लड़कियां पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान
देती हैं, लड़कियां अपने करियर को लेकर ज्यादा गंभीर होती हैं, लड़कियां घर में रहती हैं और उनका ध्यान
भटकने की संभावना कम होती है आदि आदि। इस तथ्य पर ध्यान नहीं दिया जाता है कि अपेक्षाकृत बहुत कम
संख्या में लड़कियां परीक्षा में शामिल होती हैं, जिससे अनिवार्य निष्कर्ष यह निकलता है कि जो लड़कियां परीक्षा में
शामिल होती हैं वे बेहतर पृष्ठभूमि से आती हैं, अच्छे स्कूलों में पढ़ती हैं और पढ़ाई की बेहतर सुविधाएं उन्हें
हासिल होती हैं। यानी बेहतर गुणवत्ता वाली लड़कियां ही परीक्षा में शामिल होती हैं इसलिए उनका पास प्रतिशत
अच्छा होता है।
तो क्या कम गुणवत्ता वाली लड़कियों को उनके माता-पिता परीक्षा में शामिल होने से रोकते हैं या उन्हें सीबीएसई के
पाठ्यक्रम में पढ़ने के लिए भेजते ही नहीं हैं? क्या उन्हें राज्यों के बोर्ड की पढ़ाई वाले स्कूलों में भेज कर
अभिभावक अपने कर्तव्य की इतिश्री करते हैं? कहीं सीबीएसई पाठ्यक्रम वाले स्कूलों की फीस तो उनके रास्ते में
बाधा नहीं है? ऐसे स्कूलों की संख्या कम है, उनमें दाखिला मुश्किल से मिलता है और फीस भी ज्यादा होती है।
सो, संभव है कि सामान्य पृष्ठभूमि के माता-पिता लड़कों को तो ऐसे स्कूलों में भेजते हों पर लड़कियों को राज्यों
के बोर्ड वाले स्कूल में भेजते हों या स्कूल ही नहीं भेजते हों? बहरहाल, लड़कियों के बाजी मारने वाली सुर्खियों की
अच्छी बात यह है कि अगर लड़कियों को पढ़ाई की बेहतर सुविधा मिले और बराबरी का मैदान मिले तो वे लड़कों
से बेहतर कर सकती हैं पर चिंता की बात यह है कि उन्हें बराबरी का मैदान कैसे उपलब्ध होगा? इसकी शुरुआत
सीबीएसई के पाठ्यक्रम वाले स्कूलों में उनकी बराबर संख्या सुनिश्चित करके की जा सकती है। यह शुरुआत जल्दी
होनी चाहिए क्योंकि इससे आगे की पढ़ाई में तो अनुपात और बिगड़ता जाता है।


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