-डा. रवीन्द्र अरजरिया-
सत्य को समझाने के लिए समाज ने जीवन पध्दतियों पर आधारित विव्दानों को स्वीकार किया है। देश, काल और परिस्थितियों के आधार पर पृथक-पृथक जीवन शैलियां निर्धारित होती चली गईं। सामूहिकता, सहयोग और सहकार के लिए प्रेरणादायक व्यवस्थायें दी गर्ई ताकि लोगों के मध्य प्रेम, शान्ति और सौहार्य कायम रह सके। समय के साथ परिस्थितियां बदलीं और भौतिक विकास का क्रम चल निकला। नवीन चुनौतियों ने अविष्कारों को जन्म दिया। जिज्ञासा ने संसाधनों की बढोत्तरी करने हेतु नित नये प्रयोग किये। पुरातन मान्यतायें हाशिये पर सरकने लगीं। सोच ने समझ को जन्म दिया और समझ ने समझाइश दी। संगठित समूहों ने स्वयं की जीवन शौलियों को स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप ढाल लिया। विव्दानों का समाज में सम्मान होने लगा। उन्हें सलाह-मशवरे के लिए निर्णायक के तौर पर बुलाया जाने लगा। व्यक्तिगत ज्ञान ने उनके अन्दर के स्वाभिमान को अभिमान में परिवर्तित करना शुरू कर दिया और फिर शुरू हो गया मुखिया बनकर फरमान जारी करने का सिलसिला। अभिमान ने चार कदम आगे बढकर घमण्ड की पगदण्डी से होते हुए वर्चस्व कायम करने का अन्तहीन मार्ग पकड लिया। स्वयं की व्यक्तिगत सोच के अनुरूप समाज को ढालने की लालसा से ग्रसित कथित विव्दानों ने ज्ञान को तिलांजलि देकर तानाशाह बनकर शासन करने की मृगमारीचिका के पीछे दौड लगा दी। परिस्थितियों के अनुरूप किये जाने वाले आचरणों की श्रंखला को दूसरों पर थोपकर साम्राज्य का विस्तार किया जाने लगा। ज्ञान ने धर्म का रास्ता छोडकर आतंक की इबारत लिखना शुरू कर दी। स्वयं के आचरण को विस्तार देने के लिए षडयंत्रों का उदय हुआ। दान देने और गधा न चुराने जैसे तात्कालिक संदेशों ने परम्पराओं के स्वरूप को रूढियों में परिवर्तित कर दिया। तीसरे नेत्र पर हमेशा ध्यान कायम रखने वाले तिलक को एक वर्ग का प्रतीक माना जाने लगा। वहीं चिलचिलाती धूप और रेगिस्तान की मरुभूमि की गर्मी से बचाव हेतु लगाई जाने वाली टोपी को दूसरे वर्ग की पहचान बना दी गई। परमात्मा के पथ पर प्राणों का उत्सर्ग करने की स्मृति को आत्मसात करने हेतु गले में लगटाये गये क्रास को तीसरे वर्ग का अध्यात्मिक चिन्ह माना गया। गुरू के चिन्हों को शिक्षा के लिये धारण करने वालों को अलग वर्ग के रूप में परिभाषित किया जाने लगा। परमात्मा के संदेश को दर किनार करके जीवन जीने की पध्दति, संदेशदाता के स्थानों तथा वर्तमान ठेकेदारों की व्याख्याओं को ही मूल धर्म के रूप में स्वीकारा जाने लगा। बस यहीं से अर्थ का अनर्थ होने लगा। सत्तासुख की चाहत रखने वाले लोलुप लोगों ने विव्दानों का मुखौटा लगाकर दलाली के संसाधनों के उपयोग से स्वयं को धर्म का मुुखिया घोषित कर दिया। लालच के संगीत पर स्वार्थपूर्ति के रागों का गायन होने लगा। गायकों की संख्या में इजाफा हुआ तो सुनने वालों को भी मौत के बाद मिलने वाले काल्पनिक सुखों ने गुलाम बना दिया। हूरों से लेकर अप्सराओं तक के सपने दिखाये जाने लगे। शरीर को बंधन मुक्त करने के लिए खुदा की राह अख्तयार करने की सलाह देने वाले कथित ठेकेदारों के बहकावे में आकर अब आत्मघाती दस्तों की भरमार होने लगी है। कट्टरता के पांव पसारते ही उसका जबाब देने वाले भी संगठित होकर सामने आने लगे हैं। अहिंसा परमो धर्म: का सिध्दान्त कहीं लुप्त हो गया है। वर्ग संघर्ष का विस्तार करके सत्ता सुख हासिल करने की चाहत अब लहू से सने चावल बनते जा रहे हैं। आराधना स्थलों से जहर बमन हो रहा है। खतरनाक षडयंत्रों को अमली जामा पहनाया जा रहा है। अवैध हथियारों, विस्फोटक सामग्री और संगठित हमलों का विशेषज्ञों व्दारा प्रशिक्षण दिया जा रहा है। बचपन को कट्टरता का विषपान कराया जा रहा है। दूसरे वर्गो के प्रति घृणा, व्देष और शत्रुता के बीजों को बोया जा रहा है। पुराने बीजों की लहलहाती कटीली फसलों से न केवल घात-प्रतिघात हो रहे हैं बल्कि उनके से नई पौध तैयार करने की कोशिशें भी अब घर-घर में होने लगीं हैं। पडोसी की जीवन शैली ने शंका उत्पन्न कर दी है। फुसफुसाहट भरी बातचीतों में पडोसी को नुकसान पहुंचाने तथा अपने ऊपर आश्रित करने के लिए चालें चलनी जाने लगीं हैं। सहज व्यवहार ने कुटिल मुस्कुराहटों का रूप ले लिया है। सहयोग के पीछे दूरगामी शोषण की तैयारियां दिखने लगीं हैं। झंडों के रंग और शरीर की पोषाकों से डराने, आतंकित करने जैसे वातावरण पैदा किये जा रहे हैं। सजातीय को उठाने, विजातीय को गिराने तथा जीवन जीने की शैली पर अतिक्रमण करने वालों की संख्या में निरंतर इजाफा होता जा रहा है। बडे-बडे पंडालों में होने वाले धार्मिक आयोजनों का लक्ष्य अब सामाजिक एकता से इतर संगठनात्मक एकजुटता हो गया है। प्राचीन ग्रन्थों की रोशनी में वर्तमान को संवारने का दावा करने वाले केवल और केवल स्वयं के लिए भौतिक लाभ काम रहे हैं। कंकरीट के जंगल तैयार कर रहे हैं। विलासता के संसाधनों का ढेर लगा रहे हैं। वैभव का प्रदर्शन करके लोगों को आकर्षित कर रहे हैं। आगन्तुक को परमात्म-पथ की प्रेरणा देने वाले स्वयं तथा स्वयं की परिवारों के लिये सांसारिकता के मार्ग को सुलभ करने में जुटे हैं। यह सब आम आवाम की समझ से पूरी तरह दूर रखा जा रहा है ताकि जागरूकता से अंकुश का निर्माण न हो सके। रोकना होगा धर्म के नाम पर सिखाया जाने वाला अधर्म अन्यथा उसके अध्यात्म के वास्तविक मायने हमेशा के लिए लुप्त हो जायेंगे। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।