-डा. रवीन्द्र अरजरिया-
अपराधों पर पूर्ण विराम लगाने की वकालत लगभग सभी पार्टियां कर रहीं है परन्तु दागी नेताओं को टिकिट देकर जनप्रतिनिधि बनाने में भी उनका पूरा योगदान रहता है। ऐसे में आयातित लोग अपने धनबल, आतंकबल और कथित जनबल के आधार पर पहुंचबल प्राप्त कर लेते हैं। पार्टियों के चुनाव फण्ड में मोटी-मोटी राशियां जमा होने लगतीं हैं जिन्हें सूचना के अधिकार से बार रखा गया है। रोकना होगा काली कमाई की दम पर सफेदपोश बनने का सिलसिला अन्यथा सदनों में मर्यादित शब्दों की खुलेआम न केवल अर्थी जलेगी बल्कि हाथापाई, आक्रामकता और दबंगी के नये कीर्तिमान गढे जाने लगेंगे। देश के संविधान में अनेक लचीली व्यवस्थायें होने से असामाजिक तत्वों को न केवल संरक्षण मिल जाता है बल्कि सलाखों के पीछे से चुनाव जीतने की सुविधा भी उपलब्ध हो जाती है। अतीक-अशरफ हत्याकाण्ड ने लम्बे समय तक सुर्खियां बटोरीं। अब मुख्तार और आनन्द छाये हुये हैं।
एडीआर की रिपोर्ट में स्पष्ट किया गया है कि देश के 30 राज्यों की विधानसभाओं में 4,033 विधायक चयनित होकर माननीय की भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं। इन माननीयों से 1,783 पर आपराधिक प्रकरण दर्ज है जबकि 1,125 पर तो गम्भीर आपराधिक प्रकरण लम्बित हैं। तेलंगाना में सबसे ज्यादा 119 में से 110 विधायकों पर आपराधिक प्रकरण दर्ज हैं जबकि केरल इस श्रंखला की दूसरी पायदान पर खडा है। वहां 140 विधायकों में से 96 पर मामले चल रहे हैं। बिहार में 243 में से 163, दिल्ली में 70 में से 43, महाराष्ट्र में 288 में से 176 विधायक आरोपी हैं। अरुणाचल प्रदेश में 60 में से 10, असम में 126 में से 34, उत्तरप्रदेश में 403 में से 205, उत्तराखण्ड में 70 में से 19, उडीसा में 147 में से 67, कर्नाटक में 224 में से 76, गुजरात में 182 में से 40, गोवा में 40 में से 16, छत्तीसगढ में 90 में से 24, झारखण्ड में 81 में से 44, तमिलनाडु में 234 में से 134, त्रिपुरा में 60 में से 16, नागालैण्ड में 60 में से 2, पंजाब में 117 में से 58, पश्चिम बंगाल में 294 में से 142, पाण्डुचेरी में 30 में से 13, मणिपुर में 60 में से 14, मध्य प्रदेश में 230 में से 94, मिजोरम में 40 में से 2, मेघालय में 60 में से 3, राजस्थान में 200 में से 46, हरियाणा में 90 में से 12 तथा हिमाचल प्रदेश में 68 में से 28 विधायकों पर आपराधिक प्रकरण दर्ज हैं जबकि सिक्किम एक मात्र ऐसी विधानसभा है जहां किसी भी विधायक पर दाग नहीं है।
वहीं लोकसभा के 543 सासंदों में से 233 पर आपराधिक प्रकरण विचाराधीन हैं जिनमें से 159 पर तो गम्भीर मामले चल रहे हैं। राज्य सभा के 233 सांसदों में से 71 पर आपराधिक प्रकरण दर्ज है जिनमें से 37 पर तो गम्भीर आरोप हैं। तुलनात्मक अध्ययन करने पर सामने आया है कि सन् 2009 में लोकसभा पहुंचने वाले दागी सांसदों की संख्या 162 थी जो सन् 2014 में 185 तथा सन् 2019 में 233 हो गई। विधायिका में दगियों की बढती भागीदारी को सुखद कदापि नहीं कहा जा सकता। उच्चतम न्यायालय ने फरवरी 2020 में अपने एक फैसले स्पष्ट किया था कि यदि कोई राजनैतिक पार्टी किसी आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति को प्रत्याशी बनाती है, तो उसके सभी आपराधिक प्रकरणों की जानकारी पार्टी को अपनी वेबसाइट पर अपलोड करना होगी तथा आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति को प्रत्याशी बनने का कारण भी बताना होगा। इस फैसले के परिपेक्ष में राजनैतिक पार्टियां आमतौर पर यह स्पष्ट करतीं है कि संदर्भित व्यक्ति से अच्छा कोई प्रत्याशी नहीं है और जो प्रकरण हैं वे राजनीति से प्रेरित हैं।
वास्तविकता तो यह है कि निरंतर मंहगे होते जा रहे चुनावों में धनबल और संपर्कबल के आधार पर अपराध जगत के कुख्यात चेहरे खादी पहनकर विधायिका का अंग बनते जा रहे हैं। ऐसे लोग निर्वाचन काल में आम आदमी के लालच, लाचारी और लालसा का लाभ उठाकर उनके मतों पर बलात कब्जा कर लेते हैं। घोषित दागियों के अलावा एक ऐसी खतरनाक जमात भी है जो बेदाग होने का दम इसलिए भर रही है कि उसकी मनमानियों के विरुध्द प्राथमिकी दर्ज कराने का अभी तक किसी का साहस ही नहीं किया। ऐसे लोग अपने आतंक के तले निरीह नागरिकों को कुचलते नहीं बल्कि रौदते हैं। तडफने वाले को आह भरने का भी अधिकार नहीं होता। ऐसी स्थितियां सामने होने के बाद भी संवैधानिक विवसता के कारण तीसरा पक्ष चाहकर भी कुछ नहीं कर पाता। वर्तमान में तो वर्चस्व की जंग खुलेआम देखी जा सकती है। अनेक कद्दावर नेताओं की सम्पत्तियां उनकी पार्टी के कार्यकाल के दौरान बेतहाशा ढंग से बढीं हैं। आय से अधिक सम्पत्ति की जांच करने वाले खादी के सामने बौने नजर आने लगते हैं। कहीं गांधी जी के चित्र वाला कागज अपना चमत्कार दिखाता है तो कहीं मोबाइल पर आकाओं के संदेश का जादू चल निकलता हैं। रही सही कमी दल-बदल कर स्वार्थ सिध्द करने वाले अपने दावपेंचों से पूरी कर देते हैं।
संचार क्रान्ति के अनेक प्रतिष्ठानों से लेकर व्यापार करने वाले चिन्हित मीडिया घराने भी अपराध जगत के दिग्गजों को समाजसेवी बताकर उनके वक्तव्यों को प्राथमिकता से स्थान देते हैं। उनकी कही हुई अनर्गल बातों को तूल देकर देश की शान्ति, सौहार्द और भाईचारे पर चोट की जाती है। चन्द लोगों की निजी जिन्दगी में ताकझांक करने को खोजी पत्रकारिता का नाम दिया जाने लगा है। सामान्य से विशिष्ट और विशिष्ट से अतिविशिष्ट बनाने का काम करने में अनेक संस्थान लगे हुए हैं जो निरंतर मनमाना कंटैन्ट परोसते हैं और टीआरपी की दम पर अन्य को भी परोसने के लिए बाध्य करते हैं। ऐसे में जहां राज्य सरकारों को अपने प्रदेश में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले जनप्रतिनिधियों को चिन्हित करके उसे अभियान की तरह प्रचारित करना चाहिए वहीं आम आवाम को स्वयं जागरूक होकर राष्ट्रहित को प्राथमिकता देकर सक्रियता प्रदर्शित करना होगी अन्यथा आतंक, अन्याय और अत्याचार की दम पर आपराधिक पृष्ठभूमि वालों का संवैधानिक मुखिया बनने का ख्वाब पूरा होते देर नहीं लगेगी। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।