रेवड़ी कल्चर : कहां जा रहा देश

asiakhabar.com | May 25, 2023 | 4:57 pm IST
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हरीराम यादव
रेवड़ी शब्द सुनते ही दिमाग में तिल और गुड़ की मिठास का विचार कौंधता है और मुंह में पानी आने लगता है। रेवड़ी एक तरह की सूखी मिठाई है जो कि गुड़ और तिल को मिलाकर बनाई जाती है। तिल और गुड़ दोनों रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं तथा शरीर को गर्म रखते हैं इसलिए रेवड़ी सर्दियों में ज्यादा पसंद की जाती है। उत्तर भारत के सर्दियों में आने वाले त्यौहारों – मकर संक्रांति और लोहड़ी के अवसर पर यह खूब खायी और बांटी जाती है।
साहित्य में रेवड़ी शब्द का प्रयोग मुहावरे के रुप में होता आया है। “अंधा बांटे रेवड़ी फिर फिर अपने को दे” मुहावरा काफी प्रचलित है। इस मुहावरे का अर्थ – न्याय की अनदेखी कर अपनों को लाभ पहुँचाना या अपनों को अनुचित लाभ पहुँचाना है। मिठास और पौष्टिकता से भरपूर रेवड़ी किसी के द्वारा की गयी तरफदारी से बदनाम हुई है जबकि इसमें रेवड़ी का कोई दोष नहीं है। पूरा दोष बांटने वाले का है। एक जमाने में उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की पहचान रेवड़ी हुआ करती थी। इस रेवड़ी से हजारों लोगों का जीवन यापन होता था। आज भी चारबाग के आसपास के क्षेत्रों में रेवड़ी काफी मात्रा में बनती और बिकती है। लखनऊ की रेवड़ी देश और विदेश में काफी प्रसिद्ध है। लखनऊ से गुजरने वाली हर रेलगाड़ी में दो तीन स्टेशन पहले से रेवड़ी बेचने वाले रेवड़ी बेचने लग जाते थे। लेकिन समय के कुचक्र ने लखनऊ की इस पहचान को लखनऊ से लगभग छीन लिया है।
पिछले कुछ वर्षों से बदनाम और नाम के बीच में पिसती इस बेचारी रेवड़ी का भाग्य आजकल चमक उठा है। इस समय राजनीति में इसका प्रयोग खूब हो रहा है। देश के प्रधानमंत्री से लेकर शहर और गांव के चौराहों की चाय की दुकानों तक इसका बोलबाला है। गांवों में एक कहावत प्रचलित है कि “घूरे के भी दिन लौटते हैं”। उसी तरह गुमनाम होती रेवड़ी के दिन भी लौट आये हैं।
हमारा देश भारत एक प्रजातांत्रिक देश है। यहां गांव से लेकर देश तक लोकतांत्रिक तरीके से चुने गये लोग शासन की बागडोर संभालते हैं। एक बार चुनाव जीत कर जनप्रतिनिधि पांच वर्ष तक शासन की प्रतिनिधित्व करते हैं। हर पांच साल बाद चुनाव आ जाते हैं। कभी किसी चुने हुए प्रतिनिधि की मौत हो जाने या अयोग्य घोषित हो जाने या सरकार गिर जाने के बाद बीच में भी चुनाव आ जाते हैं जिससे उपचुनाव, मध्यावधि चुनाव भी कहते । किसी न किसी स्तर के चुनाव हमेशा चलते ही रहते हैं। अगर इसे चुनावों का देश कहा जाय तो अतिशयोक्ति न होगी। देश में इन चुनावों को सम्पन्न करवाने के लिए केंद्रीय चुनाव आयोग और राज्य चुनाव आयोग का गठन किया गया है।
चुनाव में बिभिन्न राजनीतिक दल अपना अपना प्रत्याशी खड़ा करते हैं। सभी राजनीतिक दल चुनाव में अपना घोषणापत्र प्रकाशित कर अपनी मंशा बताते हैं। कुछ दल के प्रत्याशी निजी तरह से गांव गांव में घूमकर जनता को अपने पक्ष में करने के लिए उनकी आवश्यकता को देखते हुए बड़े बड़े लोक लुभावन वादे करते हैं। ऐसे वादे जिनका अतिरिक्त भार टैक्स देने वाले वर्ग पर सीधे पड़ता है और उनसे कुछ लोगों को प्रत्यक्ष फायदा मिलता है।
सत्ता में बैठा दल उस राज्य में चुनाव के नजदीक आते ही उद्घाटनों, विमोचनों और शिलान्यासों की लाइन लगा देता है। पूरे सत्ता दल के हर स्तर के नेता का रुख चुनाव वाले प्रदेश की तरफ हो जाता है। अरबों खरबों की योजनाओं का शिलान्यास धड़ाधड़ होने लगता है। कभी कभी एक साथ दर्जन से ज्यादा योजनाओं का शिलान्यास एक साथ पर्दा खींचकर कर दिया जाता है। टेलीविजन दिन रात चिग्घाड़ते रहते हैं। उनकी हेडलाइन होती है……. ने दिया 20 अरब रुपए की सौगात। ….. ने किया 15 योजनाओं का शिलान्यास।
कोई दल कहता है कि मैं इतने लाख युवाओं को रोजगार दूंगा, पढ़ने वाली बालिकाओं को स्कालरशिप, लैपटाप और स्कूटी दूंगा, कोई कहता है कि किसानों को मुफ्त बिजली, पानी दूंगा और कर्ज माफ कर दूंगा। यह वादे लोकसभा और विधानसभा और शहरी निकाय के चुनावों तक ही सीमित नहीं हैंं। अब ऐसे ही वादे प्रधान के चुनाव तक आ पहुंचे हैं। अगर आप पिछले चुनावों में किए गए वादों को देखें तो पाएंगे कि आधे भी पूरे नहीं हुए हैं। कुछ लोग अपने ही नेताओं द्वारा किए गये वादे को चुनाव जीतने के बाद चुनावी बात या चुनावी जुमला कहने से भी नहीं चूकते। जनता को अपने पक्ष में वोट करने के लिए ठीक चुनाव से पहले सत्ता दल द्वारा अनेकों कल्याणकारी योजनाओं की घोषणाओं की झड़ी क्या रेवड़ी बांटने जैसा नहीं है। आखिर पिछले पांच वर्षों में सत्ता दल को उन योजनाओं की याद क्यों नहीं आयी ?
कोरोना काल में लोगों के जीवन यापन के लिए केंद्र सरकार द्वारा गरीब परिवारों को राशन देने की व्यवस्था की गयी थी, लेकिन कोरोना काल के समाप्त हो जाने के बाद भी यह योजना चलाई जाती रही और इसे दिसंबर 2023 तक बढ़ा दिया गया है। इसकी समय सीमा 2024 के लोकसभा चुनाव तक बढ़ा दी जाय तो कोई आश्चर्य नहीं है। अभी कुछ दिनों पहले कर्नाटक में विधानसभा सभा के चुनाव संपन्न हुए हैं। यहां पर कांग्रेस पार्टी ने गृह लक्ष्मी योजना, युवा निधि योजना, बेरोज़गारी भत्ता, अन्न भाग्य योजना, गृह ज्योति योजना को चुनाव जीत जाने के बाद लाने का वादा किया था। चुनाव जीतते ही इन योजनाओं को लागू भी कर दिया गया। यह केवल केंद्र सरकार और कर्नाटक सरकार की बात नहीं है, ऐसी योजनाओं की घोषणा करने और लागू करने में कोई भी दल या किसी भी प्रदेश की सरकार पीछे नहीं है। अंतर बस इतना है कि सत्ता में बैठे लोग इसे कल्याणकारी योजना कह कर लागू करते हैं और दूसरे दल इसे चुनावी वादा कह कर लागू करते हैं। है तो यह मुफ्त की रेवड़ी ही, बस सत्ता दल और अन्य दल द्वारा प्रयोग किए जाने वाले शब्दों का हेरफेर है।
इस तरह की मुफ्त योजनाओं से वोट को अपने पक्ष में करके चुनाव तो जीते जा सकते हैं, सत्ता का सुख भोगा था सकता है लेकिन राज्य या राष्ट्र का विकास नहीं किया जा सकता। ऐसी मुफ्त की योजनाएं समाज और देश के लोगों को अकर्मण्यता की ओर ले जाती हैं। एक अकर्मण्य नागरिक कभी भी अपने देश के विकास में योगदान नहीं दे सकता और जिस देश के नागरिक अकर्मण्य और आलसी हो जाते हैं वह देश रसातल में ही जाता है। सभी राजनीतिक दलों की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि इस तरह की मुफ्त बांटने वाली योजनाओं पर रोक लगायें ताकि देश के सभी नागरिकों का समान विकास हो सके और टैक्स देने वाले लोग न पिसें।


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