विकास गुप्ता
श्रीलंका के मामले में भारत अजीब-सी दुविधा में फंस गया है। पिछले एक-डेढ़ दशक में जब भी श्रीलंका के तमिलों
पर वहां की सरकार ने जुल्म ढाए, भारत ने द्विपक्षीय स्तर पर ही खुली आपत्ति नहीं की बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंचों
पर भी तमिलों के सवाल को उठाया। उसने 2012 और 2013 में दो बार संयुक्त-राष्ट्र संघ के मानव अधिकार
आयोग में इस मुद्दे पर श्रीलंका के विरोध में मतदान किया लेकिन इसबार इसी आयोग में श्रीलंका सरकार के
विरोध में कार्यवाही का प्रस्ताव आया तो भारत तटस्थ हो गया। उसने मतदान ही नहीं किया। आयोग के 47
सदस्य राष्ट्रों में से 22 ने इसके पक्ष में वोट दिया 11 ने विरोध किया और 14 राष्ट्रों ने परिवर्जन (एब्सटेन)
किया।
भारत ने 2014 में भी इस मुद्दे पर तटस्थता दिखाई थी। इसका मूल कारण यह है कि पिछले छह-सात साल में
भारत और श्रीलंका की सरकारों के बीच संवाद और सौमनस्य बढ़ा है। इसके अलावा अब वहां का सिंहल-तमिल
संग्राम लगभग शांत हो गया है। अब उन गड़े मुर्दों को उखाड़ने से किसी को कोई खास फायदा नहीं है। इसके
अलावा चीन के प्रति श्रीलंका का जो झुकाव बहुत अधिक बढ़ गया था, वह भी इधर काफी संतुलित हो गया है।
लेकिन भारत सरकार के इस रवैए की तमिलनाडु में कड़ी भर्त्सना हो रही है। ऐसा ही होगा, इसका पता उसे पहले
से था। इसीलिए भारत सरकार ने आयोग में मतदान के पहले ही यह स्पष्ट कर दिया था कि वह श्रीलंका के
तमिलों को न्याय दिलाने के लिए कटिबद्ध है। वह तमिल क्षेत्रों के समुचित विकास और शक्ति-विकेंद्रीकरण की
बराबर वकालत करती रही है लेकिन इसके साथ-साथ वह श्रीलंका की एकता और क्षेत्रीय अखंडता के समर्थन से
कभी पीछे नहीं हटी है। उसने श्रीलंका के विभाजन का सदा विरोध किया है। उसने दुनिया के अन्य लोकतांत्रिक देशों
की आवाज में आवाज मिलाते हुए मांग की है कि श्रीलंका की प्रांतीय विधानसभाओं के चुनाव करवाए जाएं।
दूसरे शब्दों में भारत ने बीच का रास्ता चुना है। मध्यम मार्ग ! लेकिन पाकिस्तान, चीन, रूस और बांग्लादेश ने
आयोग के प्रस्ताव का स्पष्ट विरोध किया है, क्योंकि उन्हें श्रीलंका के तमिलों से कोई मतलब नहीं है। भारत को
मतलब है, क्योंकि भारत के तमिल वोटरों पर उस मतदान का सीधा असर होता है। इसीलिए भारत ने तटस्थ रहना
बेहतर समझा। श्रीलंका के तमिल लोग और वहां की सरकार भी भारत के इस रवैए से संतुष्ट हैं।