राजनीति यानि कि सार्वजनिक जीवन में कोई किसी का सगा नहीं होता। सभी अपने-अपने मतलब के यार होते हैं। लेकिन इन मतलबी लोगों को जो अपने पक्ष में साध लेते, वही सियासी तौर पर सफल हो जाते। अन्यथा विफलता की टीस बड़ी दुःखदायी होती है जो उन्हें जीने नहीं देती। निःसन्देह, रात-दिन की चैन छीन लेती है। अमूमन राजनीति की इस महत्वाकांक्षा-पीड़ा से जो भी राजनेता गुजरते हैं, एक न एक दिन अवश्य सफल होते। क्योंकि भारत की उदारमना जनता किसी को निराश नहीं करती। उचित वक्त आने पर वह नेतृत्व का मौका जरूर देती है। और जब तक नहीं देती तो यही समझिए कि आपकी काबिलियत की परीक्षा ले रही है।
हाल के वर्षों में यूपी की सियासत पर जब आप बारीक नजर दौड़ाएंगे तो पाएंगे कि नवगठित ‘समाजवादी सेक्युलर मोर्चा’ के मुखिया शिवपाल सिंह यादव की मौजूदा हालात भी कुछ वैसी ही है, जो कभी उन्नीस सौ अस्सी-नब्बे के दशक में उनके बड़े भाई मुलायम सिंह यादव की हुआ करती थी। तब जनता दल और समाजवादी जनता पार्टी में वह सम्मानजनक स्थान पाने और उसे बचाने के लिए संघर्षरत थे। अंतर सिर्फ इतना कि मुलायम सिंह यादव के साथ उनके हनुमान शिवपाल सिंह यादव थे। लेकिन अब शिवपाल सिंह यादव का हनुमान कौन बनेगा, वक्त बताएगा। ऐसा इसलिए कि राज्यसभा सदस्य और शिवपाल के करीबी राजनेता अमर सिंह में अब वो दमखम नहीं बचा है जो कभी उनमें हुआ करता था। इसलिए शिवपाल के भावी हनुमान को लेकर अब तरह-तरह के कयास लगाए जा रहे हैं, जबकि शिवपाल सिंह यादव मन ही मन सिर्फ इतना गुनगुना रहे हैं कि बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले!
बता दें कि भोजपुरी समाज के ग्रामीण अंचलों में एक कहावत प्रसिद्ध है कि ‘चाचा दुब्बर भतीजा पाजी, चाचा के सिर पर डंडा बाजी।’ इसके अलावा, अंगिका समाज में चाचा-भतीजा सम्बन्धों पर प्रायः कहा जाता है कि ‘छियों भतीजा, करबों नतीजा।’ देखा जाए तो ये दोनों कहावतें शिवपाल-अखिलेश सम्बन्धों पर बड़ी सटीक बैठती हैं। स्व. बाल ठाकरे-राज ठाकरे विवाद भी इसी श्रेणी में आते हैं। इस बात में कोई दो राय नहीं कि यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने चाचा पूर्व पथ निर्माण मंत्री शिवपाल सिंह यादव के साथ जो किया, और चाचा ने भी जैसे-तैसे पलटवार किए, वह किसी भी नजरिए से उचित नहीं समझा जा सकता। क्योंकि सभी एक ही परिवार के लोग हैं जो मिलजुल कर रहते तो यूपी का कुछ भला हो जाता।
यह ठीक है कि चाचा-भतीजे के इस सियासी जंग यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री और सपा के मार्गदर्शक मुलायम सिंह यादव ने हमेशा अपने छोटे भाई शिवपाल सिंह यादव का पक्ष लिया ताकि पार्टी नहीं टूटे। लेकिन जब उसे तोड़ने की नौबत शिवपाल ने पैदा कर ही दी तो मुलायम ने भी शिवपाल से किनारा कर लिया। क्योंकि मुलायम सिंह यादव को इस बात का मलाल आज भी है कि यदि चाचा-भतीजा आपस में ही नहीं लड़ते-झगड़ते तो यूपी की सत्ता उनकी पार्टी के हाथ से 2017 में नहीं जाती। बता दें कि तब मुलायम भी भाई मोह में पुत्र अखिलेश की आलोचना गाहे-बगाहे कर बैठते थे जिससे अखिलेश की पहले छवि बिगड़ी, फिर सत्ता गई।
अब जबकि अखिलेश यादव अपनी पार्टी सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के नाते नए सिरे से पार्टी में जान फूंकने की कवायद कर रहे हैं, यूपी में महागठबंधन को अंतिम रूप दे रहे हैं और सपा की धुर विरोधी रही बसपा को अपने पाले में लगभग कर लिया है तो फिर शिवपाल की छटपटाहट बढ़ी और वे केंद्रीय राजनीति में अपनी अहम भूमिका मांगने लगे, जहां उनके विरोधी प्रो. रामगोपाल यादव पहले से ही सक्रिय हैं। लेकिन जब अखिलेश ने फिर से अपने उसी चाचा शिवपाल सिंह यादव की अनदेखी शुरू कर दी जो कभी उनके पिता मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए तब बनाई गई सपा की मजबूती के लिए यूपी की सड़कों पर लाठी-डंडे खाया करते थे।
लेकिन वक्त का तकाजा देखिए कि कभी अपने बड़े भाई मुलायम सिंह यादव के सियासी भविष्य के लिए ‘समाजवादी पार्टी’ को अपने खून-पसीने से खड़ा करने वाले शिवपाल सिंह यादव ही अब अपने भतीजे अखिलेश यादव की सियासी दांव-पेंचों की वजह से उससे बाहर हो चुके हैं और समाजवादी सेक्युलर मोर्चा नामक दल गठित कर लिया है। उन्होंने घोषणा भी की है कि उनकी नई पार्टी यूपी की 80 लोकसभा सीटों पर अपने उमीदवार खड़े करेगी। स्वाभाविक है कि इससे अखिलेश कमजोर होंगे तथा बीएसपी सुप्रीमो मायावती और कांग्रेस आलाकमान राहुल गांधी को मजबूती मिलेगी।
दरअसल, पिछले कई सालों से चाचा-भतीजे यानी कि शिवपाल सिंह यादव और अखिलेश यादव के बीच एक दूसरे पर सियासी वर्चस्व स्थापित करने की होड़ में मची रार के बाद अब सपा से किनारा कर चुके शिवपाल सिंह यादव ने अपनी नई पार्टी समाजवादी सेक्युलर मोर्चा की यूपी में जड़ें जमाने के लिए उन्हें सींचना शुरू कर चुके हैं। लेकिन जिस शख्स ने कभी सपा को खड़ा किया, उसे तब इस बात का शायद एहसास नहीं रहा होगा कि जिस भाई और भतीजे को मुख्यमंत्री बनवा रहे हैं, वही लोग एक दिन उन्हें राजनीतिक बियावान में अकेला भटकने के लिए अभिशप्त कर देंगे और बिल्कुल अकेला छोड़ देंगे।
बहरहाल, सियासी गलियारों में यह सवाल उठ रहा है कि आखिरकार शिवपाल सिंह यादव में इतनी हिम्मत कैसे हुई और वह कहां से आई? क्योंकि जो फैसला शिवपाल को 2016-17 में ही कर लेना चाहिए था, उसे 2018 के आठवें महीने में लिया। यह ठीक है कि बीजेपी से उनकी सांठ-गांठ की चर्चा तो शुरू से ही रही, लेकिन यूपी की सियासी तासीर को सरजमीन से समझने वाले शिवपाल ने बीजेपी के बूते सपा तोड़ने या छोड़ने की हिमाकत कभी नहीं की। हां, जब राजद के मार्गदर्शक लालू प्रसाद का गुप्त साथ और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का भरोसा मिला तो पलक झपकते ही उन्होंने सपा छोड़ समाजवादी सेक्युलर मोर्चा बना लिया। वो भी तब जबकि सपा में उनसे जुड़े प्रायः हर विवाद में साया की तरह उनका साथ देने वाले मुलायम सिंह यादव भी उन्हें गच्चा दे चुके हैं!
यही वजह है कि शिवपाल सिंह यादव की समाजवादी सेक्युलर मोर्चा बीजेपी के साथ गठबंधन नहीं करेगी, बल्कि उसकी गुप्त रणनीतिक मदद लेगी! ऐसे स्पष्ट आसार नजर आ रहे हैं कि फिलवक्त वह कांग्रेस के पाले में खड़ी रहेगी ताकि सेक्युलर वोट नहीं छिटके। इस बात के रहस्य से पर्दा उचित समय पर उठेगा। बता दें कि सपा नेता अखिलेश यादव ने जिस तरह से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को यूपी में कमतर आंकने की जुर्रत की है, शायद उसी का जवाब अब शिवपाल को मजबूत करके दिया जाएगा। ऐसा इसलिए कि बिहार की प्रमुख विपक्षी पार्टी राजद (राष्ट्रीय जनता दल) के मार्गदर्शक लालू प्रसाद यादव के एक दूत के कहने पर ही कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने शिवपाल यादव को आश्वस्त किया कि आप सपा से अलग होकर नई पार्टी बनाइए, फिर कांग्रेस आपको तरजीह देगी और मदद भी करेगी। सूत्रों का कहना है कि उच्च शिक्षा प्राप्त अखिलेश यादव, (पूर्व मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश) की सियासी कार्यशैली से न केवल शिवपाल यादव बल्कि लालू प्रसाद यादव और राहुल गांधी दोनों खफा चल रहे हैं। इसलिए अखिलेश यादव को कमजोर करने की नीयत से ये सियासी चाल चली गई है।
सूत्र बता रहे हैं कि समाजवादी सेक्युलर मोर्चा के आलाकमान शिवपाल यादव शीघ्र ही बिरसा मुंडा जेल, रांची जाएंगे और वहां बन्द अपने पारिवारिक समधी लालू प्रसाद यादव से आशीर्वाद लेकर गुप्त सियासी मन्त्रणा करेंगे। गौरतलब है कि यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के बीच पारिवारिक रिश्ता करवाने में शिवपाल सिंह यादव की एक बड़ी भूमिका रही है, जिसके मुरीद लालू प्रसाद हैं। क्योंकि कभी प्रधानमंत्री बनने की खातिर लालू-मुलायम के बीच कभी छत्तीस का आंकड़ा हुआ करता था, जिसे बड़े ही मुश्किल से शिवपाल सिंह यादव ने बखूबी पाटा।
यह बात दीगर है कि इस शादी के बाद दोनों ‘राजपरिवार’ अपने अपने सूबे की सत्ता से बेदखल हो गए। फिर भी शिवपाल सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव के सम्बन्ध मधुर बने हुए हैं। इसलिए शिवपाल को इस बात की पक्की उम्मीद है कि लालू प्रसाद यादव के पद और कद का पूरा लाभ उन्हें और उनकी नवगठित पार्टी को मिलेगा। सम्भव है कि भविष्य में दोनों एक-दूसरे में मर्ज करके कोई नया समाजवादी मुहिम चलाएं, ताकि दोनों सूबे की सत्ता में उनकी वापसी हो सके।