अर्पित गुप्ता
कोविड-19 के विश्वव्यापी दुष्प्रभाव के सन्दर्भ में जितने भयावह व अकल्पनीय समाचार सुनाई दे रहे हैं उससे भी
अधिक दर्दनाक ख़बरें भारतवर्ष में मज़दूरों, कामगारों व मेहनतकशों से जुड़ी हुई प्राप्त हो रही हैं। लगभग गत डेढ़
महीने से लॉक डाउनकी वजह से पैदा हुए हालात से प्रभावित कामगार मज़दूर पूरे भारत में इधर से उधर हज़ारों की
किलोमीटर की पैदल यात्राएं करते देखे जा रहे हैं। अंधकारमय भविष्य, अनिश्चितता का वातावरण, किसी के कांधों
पर गृहस्थी का बोझ तो किसी की गोद में बच्चे, किसी के कांधे पर कोई विकलांग परिजन तो किसी की पीठ पर
बूढ़े असहाय मां- बाप, कोई स्वयं बीमारी की अवस्था में, तो कोई गर्भवती अवस्था में, लाखों की जेबें ख़ाली,
जिनके पैरों में चप्पल नहीं उनके तलवों में ऐसे भयानक छाले व ज़ख़्म जिन्हें कमज़ोर दिल रखने वाला इंसान देख
भी नहीं सकता, कोई सड़कों के रास्ते तो कोई रेल मार्ग पर रेल पटरियों के किनारे चलते हुए तो कोई पहाड़ी क्षेत्रों
या खेत खलिहानों से होकर गुज़रता हुआ, कई कई दिनों के भूख और प्यास से जूझता हुआ सैकड़ों-हज़ारों
किलोमीटर का सफ़र तय करने निकल पड़ा है वह स्वाभिमानी राष्ट्र निर्माता कामगार मज़दूर, जिनकी शान में
भारतीय राजनीति के धुरंधर 'क़सीदे' पढ़ने से नहीं थकते। पूरे देश के अलग अलग क्षेत्रों से इन घर से बेघर व
बेरोज़गार हो चुके कामगारों से जुड़ी विचलित कर देने वाली तमाम ख़बरें आ रही हैं। कहीं रास्ते की असीमित
परेशानियों का सामना न कर पाने की स्थिति में किसी ने आत्म हत्या कर ली तो कई भूख प्यास व थकान को
सहन न करते हुए रास्ते में दम तोड़ गए। कई 'राष्ट्र निर्माता श्रमिकों' को किसी वाहन ने टक्कर मार दी। गत 8
मई को औरंगाबाद के निकट 16 प्रवासी मज़दूर माल गाड़ी से कट गए और उनके शव क्षत विक्षत होकर दूर तक
फैल गए। मध्य प्रदेश जाने हेतु श्रमिक स्पेशल ट्रेन पकड़ने हेतु ये बदनसीब लोग जालना से औरंगाबाद के लिए
रवाना हुए थे। रस्ते में नींद आने के चलते ये विश्राम करने के लिए रेल लाइन को ही सुरक्षित जगह समझकर उसी
पटरी के बीच लेटे ही थे कि इन थके श्रमिकों को नींद आ गयी। इसके बाद एक मालगाड़ी उन सभी 16 श्रमिकों
को रोंदते काटते हुए गुज़र गयी। इस हादसे के बाद 'श्रमिकों के शुभ चिंतकों' ने घड़ियाली आंसू बहाए, आर्थिक
सहायता घोषित हुई, अफ़सोस व्यक्त करने की ख़ाना पूर्ति की गयी। मगर जिन परिवारों के सदस्य लॉक डाउन के
दुष्प्रभाव को झेलते हुए संसार से बिदा हो गए उनकी भरपाई न ही पैसों से हो सकेगी न ही घड़ियाली आंसुओं से।
मज़दूरों व कामगारों की इस अभूतपूर्व दुर्दशा ने एक बार फिर इस बहस को जीवंत कर दिया है कि इन मेहनतकशों
की बदहाली की ज़िम्मेदार आख़िर किसकी है ? प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने 22 मार्च को सुबह 7 बजे से शाम पांच
बजे तक के लिए जनता कर्फ़्यू का ऐलान किया था और 5 बजे शाम को पांच मिनट तक तालियां बजा कर कोरोना
योद्धाओं के प्रति सम्मान व्यक्त करने की अपील की थी। इसी रात 22 मार्च को ही विश्व के सबसे व्यस्ततम रेल
नेटवर्क को भी रोक दिया गया साथ ही साथ एक दूसरे राज्यों को जोड़ने वाली बस परिवहन सेवा पर भी रोक लगा
दी गई। इसके बाद से अब तक 3 बार लॉक डाउन को आगे बढ़ाया चुका है। माना जा रहा है कि सरकार ने यहीं
पर एक ऐसी बड़ी भूल है जिसका सीधा प्रभाव श्रमिकों व प्रवासी कामगारों से लेकर देश की अर्थ व्यवस्था तक पर
पड़ रहा है और भविष्य में भी कई वर्षों तक पड़ेगा। दरअसल लॉकडाउन एक ऐसी आपातकालीन व्यवस्था का नाम
है जिसके अंतर्गत न केवल यातायात के सार्वजनिक संसाधनों को बल्कि निजी उद्योगों, संस्थाओं, संस्थानों व
व्यवसायिक केंद्रों को भी बंद कर दिया जाता है। इस दौरान जो भी क़दम उठाए जाते हैं वे एपिडेमिक डिसीज़ एक्ट,
डिज़ास्टर मैनेजमेंट एक्ट, आईपीसी और सीआरपीसी के तहत उठाए जाते हैं। लॉकडाउनकी शुरुआत चीन के वुहान
से हुई थी। बाद में संक्रमण के बढ़ते ख़तरे को देखते हुए अमरीका, इटली, फ्रांस, आयरलैंड, ब्रिटेन, डेनमार्क,
न्यूज़ीलैंड, पोलैंड तथा स्पेन जैसे देशों में भी लॉकडाउनके तरीक़े ही अपनाए गए।
परन्तु भारत में जिस प्रकार लॉक डाउन के बाद प्रवासी श्रमिकों ने अविश्वास व अनिश्चितता, मजबूरी व बेबसी का
सामना किया वह स्थिति किसी अन्य देश में नहीं देखी गयी। आज एक अजीब सी विरोधाभासी स्थिति पैदा हो
गयी है। भूख और बेरोज़गारी के संकट से जूझ रहे जिन श्रमिकों को सरकार को व्यवस्थित रूप से उनके अपने घरों
तक पहुँचाने की व्यवस्था लॉक डाउन की घोषणा से पूर्व करनी चाहिए थी वह आधा अधूरा प्रबंध डेढ़ महीने बाद
इन दिनों किया जा रहा है। और डेढ़ महीने बाद जब वही मज़दूर किसी तरह मरते खपते, पैदल, उपलब्ध अपर्याप्त
रेल व बस जैसे संसाधनों से अपने अपने घरों को पहुंचना चाह रहे हैं ताकि वे अपने परिवार के बीच रहकर विगत
डेढ़ महीने के अपने भयावह अनुभवों से स्वयं को उबार सकें तो देश के सामने अर्थव्यवस्था का संकट बता कर
कर्नाटक जैसे कुछ राज्यों में उद्योगपतियों के कहने पर उन्हें बंधक की तरह ज़बरदस्ती रोका जा रहा है। कर्नाटक
के मुख्यमंत्री ने तो प्रवासी मज़दूरों को लेकर जाने वाली कई रेलगाड़ियों का परिचालन ही इसी मक़सद से रुकवा
दिया ताकि वे अपने घरों को वापस न जा सकें और उद्योग धंधों में पुनः अपनी सेवाएं दे सकें। इससे साफ़ साफ़
यही पता चलता है कि सरकार को लॉक डाउन की घोषणा से पूर्व श्रमिकों को घरों तक पहुँचाने का प्रबंध करना था
जो सरकार नहीं कर सकी। और अब जब उन्हीं श्रमिकों को काम पर वापस बुलाने का समय है तो उन्हें घर भेजने
की व्यवस्था की जा रही है। सरकारी रणनीतिकारों की अदूरदर्शिता व इससे उपजी अव्यवस्था के वातावरण में ही
मज़दूरों को बंधक बनाने जैसी नौबत आ गयी है। निश्चित रूप से इसके लिए सरकार व उसके रणनीतिकार ही पूरी
तरह ज़िम्मेदार हैं।
इस सन्दर्भ में एक बात और भी क़ाबिल-ए-ग़ौर यह है कि विश्व स्वास्थ्य संगठनके ही कई विशेषज्ञों का यह मानना
है कि लॉक डाउन, कोविड-19 या किसी अन्य महामारी को रोकने या इस पर क़ाबू पाने का उपाय हरगिज़ नहीं है।
बल्कि लॉक डाउन महामारी के दौरान उठाया जाने वाला एक ऐसा क़दम है जिसके द्वारा महामारी का विस्तार तेज़ी
से नहीं हो पाता। परिणाम स्वरूप असपतालों स्वाथ्य संस्थानों पर अचानक मरीज़ों का बोझ नहीं पड़ता। इस थ्योरी
पर यदि ग़ौर करें तो भी हमें सरकार की नाकामियां ही नज़र आती हैं। दुनिया की हर उन सरकारों व उनके
रणनीतिकारों को चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए जो युद्ध की भविष्य की संभावनाओं के मद्देनज़र अपने
बजट का बड़ा हिस्सा सैन्य आधुनिकीकरण यहाँ तक कि परमाणु शस्त्र सम्पन्नता पर तो ख़र्च कर सकते हैं।
धर्मस्थानों, विशालकाय प्रतिमाओं, स्टेच्यू, नए नए विशाल भवनों की योजनाओं, बड़े बड़े पार्कों, मेलों आदि पर तो
ख़र्च कर सकते हैं परन्तु देश की जनसँख्या के घनत्व के मुताबिक़ शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं संबंधित शोध कार्यक्रमों
पर नहीं? हमारी प्राथमिकताएं तो सांसदों के वेतन-भत्ते बढ़ाना, प्रधान मंत्री व राष्ट्रपति के लिए नए विमान
ख़रीदना, नए संसद भवन का निर्माण कराना, बुलेट ट्रेन चलाना, सरकार समर्थित विवादित लोगों को वाई-ज़ेड
सुरक्षा देना आदि है। और जब देश पर महामारी जैसा वर्तमान संकट आए तो लॉक डाउन की घोषणा कर जनता को
घरों में क़ैद रखना और उसी पर महामारी के विस्तार का ठीकरा फोड़ना और राष्ट्र निर्माता मज़दूरों को बंधुआ,
बेबस व मजबूर बना देना?