-योगेश कुमार गोयल-
हॉकी के पूर्व कप्तान मेजर ध्यानचंद के जन्मदिन को भारत में प्रतिवर्ष ‘राष्ट्रीय खेल दिवस’ के रूप में मनाया
जाता है। इस वर्ष इस दिवस का इसलिए भी विशेष महत्व है, क्योंकि हॉकी के जादूगर कहे जाने वाले मेजर
ध्यानचंद के नाम के आगे एक और सम्मान जुड़ गया है। बरसों बाद ओलम्पिक हॉकी में पुरुष और महिला हॉकी
टीम के शानदार प्रदर्शन के बाद प्रधानमंत्री ने मेजर ध्यानचंद के सम्मान में भारत के सर्वाेच्च खेल पुरस्कार ‘खेल
रत्न पुरस्कार’ का नाम बदलकर ‘राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार’ से ‘मेजर ध्यानचंद खेल रत्न पुरस्कार’ कर दिया
है। उल्लेखनीय है कि यह पुरस्कार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेल क्षेत्र में सबसे उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले खिलाडि़यों
को दिया जाता है। पहली बार यह सर्वोच्च खेल सम्मान 1991-92 में दिया गया था।
उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में 29 अगस्त 1905 को जन्मे ध्यानचंद हॉकी के ऐसे खिलाड़ी और देशभक्त थे, कि
उनके करिश्माई खेल से प्रभावित होकर जब एक बार जर्मनी के तानाशाह हिटलर ने उन्हें अपने देश जर्मनी की ओर
से खेलने का न्यौता दिया, तो ध्यानचंद ने उसे विनम्रतापूर्वक ठुकरा दिया। उन्होंने सदा अपने देश के लिए खेलने
का प्रण लिया। हालांकि उन्हें बचपन में खेलने का कोई शौक नहीं था और साधारण शिक्षा ग्रहण करने के बाद वे
सोलह साल की आयु में दिल्ली में सेना की प्रथम ब्राह्मण रेजीमेंट में सिपाही के रूप में भर्ती हो गए थे। सेना में
भर्ती होने तक उनके दिल में हॉकी के प्रति कोई लगाव नहीं था।
सेना में भर्ती होने के बाद उन्हें हॉकी खेलने के लिए प्रेरित किया हॉकी खिलाड़ी सूबेदार मेजर तिवारी ने, जिनकी
देखरेख में ही ध्यानचंद हॉकी खेलने लगे और बहुत थोड़े समय में ही हॉकी के ऐसे खिलाड़ी बन गए कि उनकी
हॉकी स्टिक मैदान में दनादन गोल दागने लगी। उनकी हॉकी स्टिक से गेंद अक्सर इस कदर चिपकी रहती थी कि
विरोधी टीम के खिलाडि़यों को लगता था, जैसे ध्यानचंद किसी जादुई हॉकी स्टिक से खेल रहे हैं। इसी शक के
आधार पर एक बार हॉलैंड में उनकी हॉकी स्टिक तोड़कर भी देखी गई कि कहीं उसमें कोई चुम्बक या गोंद तो नहीं
लगा है लेकिन किसी को कुछ नहीं मिला। उन्हें अपने जमाने का हॉकी का सबसे बेहतरीन खिलाड़ी माना जाता है,
जिसमें गोल करने की कमाल की क्षमता थी। भारतीय ओलम्पिक संघ ने ध्यानचंद को शताब्दी का खिलाड़ी घोषित
किया था।
1922 में सेना में भर्ती होने के बाद से 1926 तक ध्यानचंद ने केवल आर्मी हॉकी और रेजीमेंट गेम्स खेले। उसके
बाद उन्हें भारतीय सेना टीम के लिए चुना गया, जिसे न्यूजीलैंड में जाकर खेलना था। उस दौरान हुए कुल 21 मैचों
में से उनकी टीम ने 18 मैच जीते, जबकि दो मैच ड्रा हुए और केवल एक मैच उनकी टीम हारी। मैचों में ध्यानचंद
के सराहनीय प्रदर्शन के कारण भारत लौटते ही उन्हें लांस नायक बना दिया गया और उन्हें सेना की हॉकी टीम में
स्थायी जगह मिल गई। वर्ष 1928 में एम्सटर्डम में होने वाले ओलम्पिक के लिए भारतीय टीम का चयन करने के
लिए भारतीय हॉकी फेडरेशन ने टूर्नामेंट का आयोजन किया , जिसमें कुल पांच टीमों ने हिस्सा लिया। ध्यानचंद को
सेना द्वारा यूनाइटेड प्रोविंस की ओर से टूर्नामेंट में खेलने की अनुमति मिल गई और अपने शानदार प्रदर्शन के
चलते उन्हें ओलम्पिक में हिस्सा लेने वाली टीम में जगह मिल गई। फिर 1928, 1932 और 1936 के ओलम्पिक
खेलों में ध्यानचंद ने न केवल भारत का नेतृत्व किया, बल्कि लगातार तीनों ओलम्पिक में भारत को स्वर्ण पदक
भी दिलाए।
भारतीय हॉकी टीम की ओर से 17 मई 1928 को ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ अपने ओलम्पिक डेब्यू में ध्यानचंद ने
तीन गोल करते हुए भारत को 6-0 से जीत दिलाई। एम्सटर्डम में आयोजित उस ओलम्पिक में ध्यानचंद ने
सर्वाधिक 14 गोल किए थे। तब वहां के एक स्थानीय अखबार ने उनके शॉट्स से प्रभावित होकर लिखा था कि यह
हॉकी नहीं बल्कि जादू था। ध्यानचंद वास्तव में हॉकी के जादूगर हैं। वर्ष 1932 के लॉस एंजिल्स ओलम्पिक में
ध्यानचंद और उनके भाई रूप सिंह ने भारत की ओर से एक मुकाबले में कुल 35 में से 25 गोल किए। उस
ओलम्पिक के कुल 37 मैचों में भारत के कुल 330 गोल में से अकेले ध्यानचंद ने ही 133 गोल किए थे। 1936 के
बर्लिन ओलम्पिक में तो उन्होंने इतना बेहतरीन प्रदर्शन किया कि तानाशाह हिटलर ने उन्हें ‘हॉकी का जादूगर’
उपाधि दे डाली, जिसके बाद से हर कोई उन्हें इसी नाम से जानने लगा। हालांकि 1936 के ओलम्पिक खेल शुरू
होने से पहले एक अभ्यास मैच के दौरान भारतीय टीम जर्मनी से 4-1 से हार गई थी। उस हार से ध्यानचंद इतने
व्यथित हुए कि उन्होंने इस बारे में अपनी आत्मकथा ‘गोल’ में लिखा, ‘‘मैं जब तक जीवित रहूंगा, उस हार को
कभी नहीं भूलूंगा। उस हार ने हमें इतना हिलाकर रख दिया था कि हम पूरी रात सो नहीं पाए।’’
दो बार के ओलम्पिक चैम्पियन केशव दत्त का ध्यानचंद के बारे में कहना है कि वह हॉकी के मैदान को उस ढ़ंग से
देख सकते थे, जैसे शतरंज का खिलाड़ी चेस बोर्ड को देखता है। इसी प्रकार भारतीय ओलम्पिक टीम के कप्तान रहे
गुरूबख्श सिंह का कहना है कि 54 साल की उम्र में भी ध्यानचंद से भारतीय टीम का कोई भी खिलाड़ी बुली में
उनसे गेंद नहीं छीन सकता था। मेजर ध्यानचंद ने 43 वर्ष की उम्र में वर्ष 1948 में अंतरराष्ट्रीय हॉकी को अलविदा
कहा। हॉकी में बेमिसाल प्रदर्शन के कारण ही उन्हें सेना में पदोन्नति मिलती गई और वे सूबेदार, लेफ्टिनेंट तथा
कैप्टन बनने के बाद मेजर पद तक भी पहुंचे। वे 1956 में 51 वर्ष की आयु में सेना से मेजर पद से सेवानिवृत्त
हुए। उसी वर्ष उन्हें भारत सरकार ने पद्मभूषण सम्मान से सम्मानित किया।
सेवानिवृत्ति के बाद वे माउंट आबू में हॉकी कोच के रूप में कार्यरत रहे और बाद में कई वर्षों तक पाटियाला के
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्पोर्ट्स में चीफ हॉकी कोच रहे। तीन दिसम्बर 1979 को उन्होंने दिल्ली के एम्स में
अंतिम सांस ली। अपने कैरियर में उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ एक हजार से भी ज्यादा गोल दागे। भारत सरकार ने
मेजर ध्यानचंद के सम्मान में वर्ष 2002 में नेशनल स्टेडियम का नाम बदलकर मेजर ध्यानचंद राष्ट्रीय स्टेडियम
कर दिया। ध्यानचंद इतने महान खिलाड़ी थे कि वियना के स्पोर्ट्स क्लब में उनकी चार हाथों में चार हॉकी स्टिक
लिए एक मूर्ति लगाई गई है और उन्हें एक देवता के रूप में दर्शाया गया है। भारत में उनके जन्मदिन को ‘राष्ट्रीय
खेल दिवस’ घोषित किया गया है और इसी दिन विभिन्न खेलों में उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले खिलाडि़यों को राष्ट्रीय
पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं।