राष्ट्रभक्ति का पाठ क्या सिर्फ़ जनता के लिये?

asiakhabar.com | March 2, 2022 | 3:28 pm IST
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-निर्मल रानी-
विगत पांच फ़रवरी को हैदराबाद के निकट संत रामानुजाचार्य की 216 फ़ुट ऊंची विशालकाय प्रतिमा 'स्टैच्यू ऑफ
इक्वलिटी' का अनावरण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा किया गया। वैष्णव संत रामानुजाचार्य की 1000 वीं जयंती के
उपलक्ष्य में शुरू हुए इस विशाल आयोजन में 2 से 14 फ़रवरी तक प्रतिदिन 1, 035 कुंडों के साथ 14 दिनों तक
महायज्ञ किया गया। इस आयोजन में प्रधानमंत्री के अतिरिक्त राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत व
मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री शिवराज चौहान सहित अनेक क़द्दावर "राष्ट्रभक्त नेताओं" ने भी शिरकत की। इस
आयोजन में उपस्थित संत जनों के अतिरिक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, मोहन भागवत व शिवराज चौहान की वेश
भूषा पर यदि ग़ौर करें तो मोदी, भागवत व चौहान भी कोई महान संत व त्यागी महात्मा प्रतीत हो रहे थे। मोदी
तो बाक़ायदा अपने माथे पर रामानंदी अखाड़े के साधू संतों द्वारा धारण किया जाने वाला विशाल 'रामानंदी तिलक'
लगाये हुये थे। वे पहले भी कई बार भारत के कई मठों मंदिरों से लेकर काठमाण्डू के पशुपतिनाथ मंदिर तक में
साधू संतों के वेश में नज़र आ चुके हैं। आयोजन को देखकर वास्तव में ऐसा प्रतीत हो रहा था कि यह विशाल व
अत्यंत ख़र्चीला आयोजन पूर्णतयः 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' से ओत प्रोत है।
परन्तु देशवासियों को यह जानकार आश्चर्य होगा कि संत रामानुजाचार्य की स्टील तथा पंचधातु से निर्मित इस
216 फ़ुट ऊंची प्रतिमा की ढलाई का काम चीन की एरोसन कारपोरेशन नामक एक कंपनी द्वारा किया गया है।
बताया जारहा है इस के निर्माण पर 135 करोड़ रूपये की लागत आई है। इसे 1600 अलग अलग टुकड़ों में ढालकर
चीन से भारत (हैदराबाद) लाया गया जहाँ प्रतिमा के इन टुकड़ों को जोड़कर संत रामानुजाचार्य की प्रतिमा 'स्टैच्यू
ऑफ इक्वलिटी' का भव्य एवं विराट रूप दिया गया। यह प्रतिमा उसी चीन में निर्मित की गयी है जो कभी लद्दाख़
कभी पेंगोंग कभी अरुणाचल प्रदेश तो कभी डोकलाम तो कभी तिब्बत व नेपाल के सीमान्त इलाक़ों से भारत
घुसपैठ करने की कोशिश करता रहता है। विस्तारवादी नीति अपनाने वाले इसी चीन के सैनिकों के साथ हमारे देश
के सैनिकों की सीमा पर अनेक बार हिंसक मुठभेड़ भी हो चुकी है। और ऐसी घटनाओं के बाद अनेक बार ज़िम्मेदार
सत्ताधारी 'राष्ट्रवादियों ' की ओर से यह अपील भी की जा चुकी है कि 'भारतवासी चीनी सामग्री व चीनी हितों को
साधने वाली किसी भी व्यवस्था का बहिष्कार करें।' भारत-चीन के मध्य तनाव के बीच अनेक अतिउत्साही
'राष्ट्रवादी' जगह जगह चीन निर्मित सामानों की 'होली' जलाते भी दिखाई दे जाते हैं। कभी सरकार भी कुछ चीनी
ऐप आदि प्रतिबंधित कर प्रतीकात्मक रूप से देश की जनता को यह संदेश देने की कोशिश करती है कि सरकार भी
चीन का 'बहिष्कार' कर रही है।
हैदराबाद में स्थापित की गयी संत रामानुजाचार्य की प्रतिमा चीन निर्मित कोई पहली प्रतिमा नहीं है। इससे पहले
अक्टूबर 2018 में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ही हाथों गुजरात के नर्मदा तट पर लोकार्पित की गयी सरदार
बल्लभ भाई पटेल की लगभग तीन हज़ार करोड़ रूपये लागत की 182 मीटर ऊँची प्रतिमा भी चीन में ही निर्मित
की गयी है। 'स्टैच्यू ऑफ यूनिटी' नामक सरदार पटेल की इस मूर्ति में भी चार धातुओं का उपयोग किया गया है।
इस प्रतिमा में 85 प्रतिशत तांबे का इस्तेमाल किया गया है। इसी प्रतिमा के निर्माण के लिये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
ने देश के लोगों से पुराना लोहा मांगा था और भाजपा कार्यकर्ताओं ने विशेषकर किसानों से लोहा इकठ्ठा कर
गुजरात भेजा था। सरदार पटेल जैसे देशभक्त व स्वदेशी की वकालत करने वाले लौह पुरुष की प्रतिमा चीन से
बनकर आयेगी शायद सरदार पटेल ने कभी सोचा भी नहीं होगा। केवल प्रतिमायें ही नहीं बल्कि सरकारी स्तर पर

किये जाने वाले अनेकानेक सजावटी कामों में भी चाईनीज़ लाइट्स व एल ई डी का भरपूर इस्तेमाल होते देखा जा
सकता है। दिल्ली-मेरठ हाईवे पर दिल्ली से प्रवेश करते ही आपको दोनों और खंबों पर तिरंगी रौशनी बिखेरती एल
ई डी नज़र आएगी। इनमें लगभग आधी तो जलती ही नहीं हैं। देश के अनेक पार्क, पुल, फ़्लाई ओवर आदि इन्हीं
चाइनीज़ लाइट्स से सजे हुए हैं। यह सब वही सामग्री है जिसके बहिष्कार के लिये देशवासियों से बार बार कहा
जाता है। गणतंत्र दिवस के दिनों विशेषकर बीटिंग रिट्रीट के दिन राष्ट्रपति भवन, साऊथ व नॉर्थ ब्लॉक जिस रंग
बिरंगी रौशनी की छटा बिखेरता है और जिसे देखने के लिये लाखों पर्यटक व देशवासी दिल्ली आते हैं वह सारी
विद्युत सामग्री व उपकरण भी चीन निर्मित आयातित ही होते हैं। जिन बड़ी बड़ी योजनाओं व निर्माण कार्यों के
ठेके चीन को दिये जा रहे हैं उनकी तो बात ही अलग है।
उधर दूसरी तरफ़ यही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विभिन्न मंचों से 'आत्म निर्भर भारत', 'मेक इन इंडिया' और 'वोकल
फ़ॉर लोकल 'जैसे लोकलुभावने नारों को भी बुलंद करते रहते हैं। आख़िर क्या वजह है कि विगत आठ साल से
केंद्रीय सत्ता का नेतृत्व करने के बावजूद अभी तक स्वयं सत्ता से जुड़े लोग ही इतने भी 'वोकल फ़ॉर लोकल' नहीं हो
सके कि 'आत्म निर्भर भारत' व 'मेक इन इंडिया' जैसे बहुप्रचारित अभियान के अंतर्गत कम से कम विशाल
प्रतिमाओं के निर्माण का काम तो शुरू हो गया होता? जबकि हमारा देश प्रतिमा व मूर्तियां बनाने के क्षेत्र में सदियों
से महारत रखता है? भारतीय मूर्तिकारों द्वारा बनाई गयी हज़ारों प्रतिमायें भारत सहित पूरे विश्व में जगह जगह
स्थापित हैं। यदि 'आत्म निर्भर भारत', 'मेक इन इंडिया' और 'वोकल फ़ॉर लोकल' जैसे नारे केवल लोकलुभावन नहीं
बल्कि वास्तव में धरातल पर साकार होने के लिये गढ़े गये हैं तो इन विशालकाय ऊंची प्रातिमाओं को बनाने के
लिए भी सरकार हमारे देश के मूर्तिकारों को ऐसी प्रतिमाओं को गढ़ने या ढालने की विशेष तकनीक तथा इसके लिये
ज़रूरी बुनियादी ढांचे मुहैय्या क्यों नहीं करवाती? आज भी यदि आप भारतीय बाज़ारों पर नज़र डालें तो यही पायेंगे
कि हमारे बाज़ार नाना प्रकार के चीनी सामानों से पटे पड़े हैं। चीन से आने वाले हज़ारों कंटेनर प्रतिदिन चेन्नई
बंदरगाह पर उतर रहे हैं। सरकार स्वयं चीनी सामानों का आयात बंद नहीं कर रही है। परन्तु 'राष्ट्रभक्ति' का भ्रम
बनाये रखने के लिये जनता से चीनी सामानों के बहिष्कार की अपील सत्ताधारी लोगों द्वारा समय समय पर ज़रूर
की जाती है। क्या ऐसे में यह सवाल पूछा नहीं जाना चाहिये कि 'राष्ट्रभक्ति ' का पाठ क्या सिर्फ़ जनता के लिये
ही है, सत्ता से जुड़े लोगों के लिये नहीं?


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