किसी का पूरा और सही नाम लिखने का प्राय: स्वागत होता है। तब क्या कारण है कि उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर का नाम उसी रूप में लिखने पर हाय-तौबा हो रही है? कुछ नेताओं व बुद्धिजीवियों ने इस पर तरह-तरह से आपत्ति की है, जबकि स्वयं डॉ. आंबेडकर अपना यही नाम लिखते थे। इस आपत्ति पर विचार करें तो हमारी बौद्धिकता की दुर्गति दिखती है। नि:संदेह, आपत्ति करने वालों को असली कष्ट ‘रामजी से है। यदि डॉ. आंबेडकर के पिता का नाम रामजी के बदले प्रमोदजी, प्रशांतजी आदि होता, तब शायद ही कोई वितंडा होता, लेकिन वह रामजी होने से हर कार्यालय में रामजी का नियमित स्मरण होगा, इससे बौद्धिकों को तकलीफ है। यही बात ध्यान देने की है। रामजी या राम नाम से बैर! यह यहां बौद्धिक-शैक्षिक विमर्श और गतिविधियों में बार-बार दिखा है। अयोध्या में राम मंदिर प्रश्न पर भी कई इतिहासकारों व अंग्रेजी मीडिया ने जोरदार तरीके से राम जी के अस्तित्व पर ही सवाल उठाया था।
1989 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग द्वारा ‘पॉलिटिकल एब्यूज ऑफ हिस्ट्री (इतिहास का राजनीतिक दुरुपयोग) नामक एक पुस्तिका प्रकाशित की गई थी। रोमिला थापर, बिपन चंद्र, हरबंस मुखिया, मृदुला मुखर्जी आदि 25 वामपंथी उसके लेखक थे। उसमें राम को परिकल्पना बताया गया था। इन्हीं इतिहासकारों और बुद्धिजीवियों की बातों के बल पर फिर अमेरिकी लेखिका वेंडी डोनिजर ने ‘द हिंदूज- एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री (2009) नामक किताब लिख डाली। इसमें भी रामजी का तरह-तरह से मजाक बनाया गया। दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास पाठ्यक्रम में भी ‘तीन सौ रामायण जैसे लेखों के माध्यम से रामजी के प्रति ऊलजलूल ही पढ़ाया जाता रहा। फिर जब तमिलनाडु में राम-सेतु तोड़कर व्यापारिक मार्ग बनाने पर उद्वेलन हुआ तो तत्कालीन केंद्र सरकार ने 2007 में सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर कहा कि राम मिथकीय चरित्र हैं, इसलिए राम-सेतु भी गल्प है। अत: उसे तोड़ने में कोई सांस्कृतिक बाधा नहीं है। अभी चार वर्ष पहले लोकसभा चुनाव के दौरान एक मंच पर रामजी का चित्र लगा होना देश के चुनाव आयोग को ठीक नहीं लगा था, जबकि उसी चुनाव आयोग को अन्य धर्मावलंबियों द्वारा अपने पैगंबर के नाम, धर्म-पुस्तकों और श्रद्धा प्रतीकों का प्रयोग, प्रचार करना कभी नहीं खटकता। शासन और सरकार भी उनका ख्याल करते हुए सड़क, चौराहे, रेलवे स्टेशन, आदि पर किसी अनजान मामूली कब्र को भी नहीं हटाते। बहरहाल, राम जी के नाम से जुड़े ऐतिहासिक स्थलों पर भी मनमानी तोड़-फोड़ से उन्हें कभी कोई संकोच नहीं होता। यह सब क्या बताता है? यही कि राम जी वास्तविक हों या काल्पनिक, अथवा केवल एक शब्द, एक नाम- हर हाल में उनकी उपेक्षा होनी चाहिए। उन्हें दूर रखना चाहिए। वह भी कहां? भारतभूमि में! जहां अनादिकाल से कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक विविध स्थान और रीतियां सिया-राम मय हैं, वहां डॉ. आंबेडकर का पूरा नाम लिखने का बौद्धिक-राजनीतिक विरोध कितना विचित्र और दुष्टतापूर्ण है, जरा सोचना चाहिए।
डॉ. आंबेडकर के नाम में शामिल राम शब्द का उपयोग किए जाने पर आपत्ति जताने वाले यह कह सकते हैं कि उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा डॉ. आंबेडकर का संपूर्ण नाम लिखने के पीछे राम नाम लेने का उद्देश्य है, पर वे क्यों भूलते हैं कि स्वयं डॉ. आंबेडकर ने इसे वही सम्मान दिया था, जो संपूर्ण भारत में सदैव रहा है? उन्होंने हिंदू समाज की चालू कुरीतियों की आलोचना की थी, हिंदू दर्शन या पुराण की नहीं। बल्कि डॉ. आंबेडकर तो बौद्ध-धर्म में भी हिंदू ज्ञान का अवदान मानते थे। इसीलिए, जब हिंदू धर्म की अनुचित निंदा होती थी, तब डॉ. आंबेडकर उसका बचाव करते थे। उनके अपने शब्दों में, ‘हिंदुओं में सामाजिक बुराइयां हैं, किंतु एक अच्छी बात है कि उनमें उसे समझने वाले और उसे दूर करने में सक्रिय लोग भी हैं। जबकि मुस्लिम यह मानते ही नहीं कि उनमें बुराइयां हैं और इसलिए उन्हें दूर करने के उपाय भी नहीं करते। यह स्पष्ट दिखाता है कि डॉ. आंबेडकर हिंदू धर्म की मूल्यवत्ता और हिंदू समाज की मूल भावना को समझते थे। इस हद तक कि उन्होंने बौद्ध मत स्वीकार करते हुए भी इसका ध्यान रखा था। उनके शब्दों में, ‘बौद्ध धर्म भारतीय संस्कृति का अभिन्न् अंग है और इसलिए मेरा धर्मांतरण भारतीय संस्कृति और इतिहास को क्षति न पहुंचाए, इसकी मैंने सावधानी रखी है। डॉ. आंबेडकर के इस कथन में सभ्यतागत चेतना के साथ-साथ एक चेतावनी भी थी कि अन्य, बाहरी धर्म भारतीय संस्कृति और इतिहास को चोट पहुंचाते हैं। उस चेतावनी का महत्व आज भी कम नहीं हुआ है। यह इससे भी दिखता है कि राम नाम से लोगों को दूर रखने की उत्कट कोशिशें निरंतर जारी हैं। चूंकि राम को हिंदू परंपरा में ‘मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया है, अत: राम से दूर रखने की कोशिशें हिंदू समाज को चोट पहुंचाने के प्रयासों के सिवा कुछ नहीं हैं।
विभिन्न् धर्मों के बारे में डॉ. आंबेडकर की तुलनात्मक टिप्पणियां सदैव स्मरणीय हैं। अपनी बौद्ध-दीक्षा के दूसरे दिन 15 फरवरी, 1956 को सार्वजनिक भाषण में उन्होंने बाहरी मजहबों के उदाहरण देकर समझाया था कि वे ‘भेड़चाल वाले हैं। उन धर्मों में विवेक-चिंतन का स्थान नहीं, बल्कि भोग, लोभ और संपत्ति-प्रेम ही केंद्रीय प्रेरणा है। मनुष्य के आध्यात्मिक उत्थान के लिए कोई चिंता नहीं। वे सब ‘खाओ, पियो और मौज करो से अधिक कुछ नहीं कहते। जबकि बौद्ध-धर्म विवेक पर आधारित है। इसलिए किसी के गले में ‘पट्टे जैसी मजहबी पहचान नहीं बांधता।
यह सब मर्मभूत बातें थीं, जिसे कहकर डॉ. आंबेडकर ने भारतीय धर्म-परंपरा का ही महत्व बताया था। वे न केवल व्यवहारिक राजनीतिज्ञ, बल्कि अंतरराष्ट्रीय, साम्राज्यवादी विचारधाराओं के बारे में तब अनेक नेताओं की तुलना में अधिक गहरी समझ रखते थे। उन्होंने जोर देकर कहा था कि भारत को धर्म, दर्शन, चिंतन में विदेशों से कुछ लेने की जरूरत नहीं। डॉ. आंबेडकर की इस विरासत को हिंदू धर्म-समाज के शत्रुओं ने अधिक समझा था। इसीलिए, उन्होंने उनके बौद्ध दीक्षा लेने पर निराशा व्यक्त की थी कि यह तो कोई धर्म-परिवर्तन हुआ ही नहीं, क्योंकि हिंदू और बौद्ध धर्म में कोई बुनियादी विरोध नहीं है। इस प्रकार, डॉ. आंबेडकर सिद्धांत और व्यवहार में हिंदू धर्म और समाज से सदैव जुड़े रहे थे। जो लोग डॉ. आंबेडकर को हिंदू विरोधी या राम विरोधी बनाकर दिखाना चाहते हैं, उन्हें पहले अपना बैर दूर करना चाहिए और रामजी से दुराव छोड़ना चाहिए। यही डॉ. आंबेडकर के प्रति सच्ची श्रद्धा भी होगी। आखिर, वह रामजी के सुपुत्र थे।