राज्यसभा सीट बंटवारे को लेकर बिहार में विवादों का बाजार गर्म

asiakhabar.com | March 13, 2020 | 1:10 pm IST
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अर्पित गुप्ता

बिहार विधानसभा के होने वाले चुनाव से पहले ही सभी दलों ने जातिय समीकरण को साधना शुरु कर दिया है।
लेकिन इसमें राजद इस बार नए प्रयोग के साथ सभी दलों के लिए बड़ा टारगेट खड़ी करती जा रही है। जहां राजद
एम-वाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण के लिए जानी जाती थी वहीं अपने दल सवर्णों को ताबड़तोड़ जगह देकर
विपक्षियों के लिए बखेड़ा खड़ा कर दिया है। राजद के समीकरण में पहली बार प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह,
राज्यसभा सांसद मनोज झा, इस बार राज्यसभा अमरेंद्रधारी सिंह को भेजकर मुख्य सवर्णों में राजपूत, ब्राह्मण
और भूमिहार को साध लिया। बस रह गए तो कायस्थ समुदाय के लोग। तेजस्वी यादव के नए समीकरण से
एनडीए खेमे में हलचल मच गई है।
एनडीए में भी सवर्णों की धूम
एनडीए अपने तरीके से राजनीति कर रही है। एक तरफ जहां जदयू ने हरिवंश और रामनाथ ठाकुर को रिपिट किया
है, वहीं भाजपा हमेशा की तरह इस बार भी गच्चा खा गई है। बिहार से राज्यसभा जाने वाले दो नेताओं में आर के
सिन्हा और सीपी ठाकुर हैं। इन दोनों नेताओं ने दल के लिए कुर्बानियां दी हैं। इसमें सीपी ठाकुर के पुत्र विवेक
ठाकुर को राज्यसभा भेजकर उनको तो मना लिया। वहीं कायस्थ को साधने के लिए झारखंड भाजपा के प्रदेश
अध्यक्ष दीपक प्रकाश को भेजकर अपनी खानापूर्ति तो कर ली लेकिन इसमें कहीं न कहीं रंजिश की बू आ रही है।
आर के सिन्हा नहीं तो ऋतुराज क्यों नहीं
भाजपा की एक सशक्त कड़ी के रुप में जाने जाते हैं राज्यसभा सांसद आर के सिन्हा। अपने पत्रकारिता जीवन से
ही संघ की सेवा में जीवन गुजारने वाले को एक तो भाजपा ने बीतते उम्र में राज्यसभा भेजी और इस बार उनका
नाम ही काट दिया। आर के सिन्हा पार्टी के लगनशील कार्यकर्ता रहे हैं तो उनकी जगह उनके पुत्र जिन्हें अमित
शाह और प्रधानमंत्री का प्रिय भी माना जाता है को क्यों नहीं सदन भेजा गया। इसके पीछे कई सवाल खड़े हो रहे
हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि सुशील मोदी और पटना के सांसद रविशंकर प्रसाद की राजनीति के कोपभाजन बन गए।
अगर ऐसा हुआ है तो भाजपा को इसके लिए बड़ी कुर्बानी देनी पड़ सकती है। क्योंकि आर के सिन्हा किसी जाति के
नेता भर नहीं बल्कि जमात के नेता हैं इस बात को भी भाजपा को गंभीरता से लेनी चाहिए।
औंधे मुंह गिरी कांग्रेस?
राज्यसभा के लिए कांग्रेस लगातार एक सीट की मांग कर रही थी। मगर राजद नेता तेजस्वी ने कांग्रेस की एक न
सुनी और अपने ही दल को दो नेताओं को राजद का सीट देकर बिहार कांग्रेस प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल को हाशिए
पर लाकर खड़ा कर दिया है। हलांकि बिहार प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल ने तेजस्वी को पत्र लिखा था जिसमें गोहिल
ने अपने पत्र में लिखा था कि अच्छे लोगों के लिए कहा जाता है कि प्राण जाए पर वचन न जाए…उम्मीद है
कि,राजद के नेता अपने वचन का पालन करेंगे। पर इसका तेजस्वी पर कोई असर नहीं पड़ा। कांग्रेस की मांग को
तरजीह नहीं देते हुए दो लोगों के नामों की घोषणा कर अपने स्टैंड को स्पष्ट कर दिया। इससे यह भी स्पष्ट हो
गया है कि बिहार में कांग्रेस को राजद का छोटा भाई ही बनकर आगे चलना होगा।

बयानों से सवर्ण राजनीति का हो चुका है खुलासा
जगदानंद सिंह को राजद की कमान देने पर सुशील मोदी कह चुके हैं कि जगदाबाबू को प्रदेश अध्यक्ष बनाने से
राजपूत वोट नही मिलने वाला। वहीं जगदाबाबू को राजद अध्यक्ष बनाने के बाद नीतीश कुमार ने आनंद मोहन को
अपना पुराना मित्र करार देते हुए हर संभव मदद की बात कही थी। तब मुख्यमंत्री के इस बयान को राजपूत
बिरादरी को खुश करने के लिए डैमेज कंट्रोल के रूप में देखा गया था। दरअसल भाजपा और जदयू या मानकर
चलती है कि सवर्ण समाज का वोट राजद खेमे में नहीं जाने वाला। अमूमन यही होता भी है कि सवर्ण समाज की
80 फ़ीसदी से अधिक वोट एकमुश्त भाजपा और एनडीए के खाते में जाता है। तेजस्वी यादव की नजर इसी वोट
पर है। वे लगातार यह कहते आ रहे हैं कि वे सभी समाज और धर्म के लोगों को साथ लेकर चलेंगे उनके यहां कोई
भेदभाव नहीं है।
वहीं राजद के लाल तेजस्वी अब सवर्ण समाज की चार जातियों के नए वोटरों को अपने पाले में जोड़ने के लिए
लगातार प्रयास कर रही है। इसीलिये अब वे लालू यादव के शासन काल को अपनी सभा में नाम लेने से भी परहेज
करते हैं। भले ही विरोधी खेमा अमरेंद्रधारी को बड़ा कारोबारी बता कर राजद के सवर्ण कार्ड खेलने की बात को
खारिज कर रहा हो लेकिन तेजस्वी यादव ने संगठन की बड़ी कुर्सी के साथ-साथ राज्यसभा का टिकट देकर अपना
स्टैंड क्लियर कर दिया है। तीस साल पहले बिहार में सवर्णों का राज कायम था। फिर इसी बीच एक नाम उभरकर
सामने आया लालू प्रसाद यादव और यहीं से पिछड़े समाज की राजनीतिक का बिहार में उदय हुआ। लेकिन बिहार
की राजनीति में आगे एक बड़ा परिवर्तन आने का संकेत दिखने लगा है। तभी तो सभी दलों में सवर्णों की राजनीति
प्रबल होने लगी है। इस तरह बदलते समीकरण को साधने में कोई भी दल बिहार विधानसभा चुनाव में पीछे नहीं
रहना चाहता है। अब देखने वाली बात ये है कि आगामी विधानसभा चुनाव में किसको कितना इसका फायदा मिल
पाता है।


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