विनय गुप्ता
चुनाव आयोग ने 24 सीटों के उपचुनाव के लिए तैयारियां शुरू कर दी हैं। इसके साथ ही मध्य प्रदेश की सियासत
में सक्रियता बढ़ गई है। सिंधिया समर्थक जिन विधायकों ने इस्तीफा दिए हैं। उसमें लगभग 18 सीटें ग्वालियर
और चंबल संभाग की हैं। यहां पर उप चुनाव में ज्योतिरादित्य सिंधिया को अपना वर्चस्व बनाने और दिखाने की
चुनौती है। पूर्व मुख्यमंत्री राजा दिग्विजय सिंह ने कांग्रेस की राजनीति में ज्योतिदित्य सिंधिया को अलग-थलग
करने के लिए हर संभव प्रयास किया था। विधानसभा और लोकसभा के चुनाव में वह पर्दे के पीछे रहकर समन्वय
बनाने के नाम पर जो षड्यंत्र रच रहे थे। उसका जवाब देने की अब ज्योतिरादित्य सिंधिया रणनीति बना रहे हैं।
उसमें राजा दिग्विजय सिंह को भी उप चुनाव में सड़कों पर उतरकर सामने आना होगा। दिग्विजय सिंह चुनाव
मैदान में सामने होंगे, तो सिंधिया और भाजपा के लिए जीत ज्यादा आसान होगी।
आर पार की लड़ाई लड़ेंगे सिंधिया
पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने जिस तरह से मध्य प्रदेश एवं केंद्र की राजनीति में ज्योतिरादित्य सिंधिया को
नेपथ्य में डालने का प्रयास किया था। उससे सिंधिया काफी नाराज हैं। उन्हें अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए
कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थामना पड़ा। सिंधिया परिवार के लिए यह अस्तित्व की लड़ाई है। राजमाता
सिंधिया ने भी तत्कालीन मुख्यमंत्री डीपी मिश्रा से नाराज होकर कांग्रेस की सरकार 1967 में गिराई थी। माधवराव
सिंधिया का अपमान जब तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव ने किया तब उन्होंने भी कांग्रेस पार्टी छोड़कर नई पार्टी
बना ली थी। माधवराव की पार्टी को चुनाव में मप्र में कोई सफलता नहीं मिली। सोनिया गांधी द्वारा उन्हें वापस
कांग्रेस में ले लिया गया था। सिंधिया परिवार के ज्योतिरादित्य सिंधिया तीसरे व्यक्ति हैं। जिन्हें सड़क में उतरने
की बात कहकर सिंधिया खानदान को, जो चुनौती दी गई है। अब यह उनके लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गई है।
कांग्रेस छोड़कर अब वह सिंधिया खानदान के प्रतिष्ठा और राजनैतिक भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं।
सिंधिया को सांसद रहते भोपाल में नहीं मिला आवास
मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बन जाने के बाद भी ज्योतिरादित्य सिंधिया को आवास आवंटित नहीं किया गया।
यह भी उनके लिए एक प्रतिष्ठा का प्रश्न था। मंत्रिमंडल के गठन से लेकर उसके बाद, जिस तरह से उनके कोटे के
मंत्रियों को उपेक्षित करके रखा गया था। सिंधिया से भी कोई राय नहीं ली जा रही थी। दिग्विजय सिंह के कहने पर
सारे काम मुख्यमंत्री के रूप में कमलनाथ कर रहे थे। ऐसी स्थिति में ज्योतिरादित्य सिंधिया को नेपथ्य में डालने
की जो राजनीति दिग्विजय सिंह कर रहे थे। अस्तित्व को बचाए रखने के लिए, ज्योतिरादित्य सिंधिया को कांग्रेस
छोडने को विवश होना पडा। अब भाजपा में वह अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए इस उपचुनाव में अपनी
सारी ताकत लगाएंगे। उन्हें कम से कम 18 से 20 सीटें उपचुनाव में जितवाना होंगी। तभी उनकी भाजपा में पकड़
मजबूत और भविष्य सुरक्षित होगा।
सिंधिया के कारण ग्वालियर चंबल संभाग में भाजपा को मिलती थी चुनौती
ग्वालियर चंबल संभाग में माधवराव सिंधिया, उसके बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया के रहते हुए भाजपा यहां पर
वर्चस्व नहीं बना पाई। भाजपा यहां पर राजमाता के होते हुए एकाधिकार कायम करना चाहती थी, वह कभी नहीं हो
पाया। एक सुनियोजित रणनीति के तहत भाजपा ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को भाजपा में प्रवेश दिया है।
ज्योतिरादित्य सिंधिया के ऊपर यह जिम्मेदारी होगी कि वह अपनी लोकप्रियता से उपचुनाव में ग्वालियर चंबल
संभाग की सभी सीटों के चुनाव पुनः जितायें। सिंधिया इसमें सफल होंगे तभी उनकी भाजपा में स्थिति मजबूत
होगी। यदि उनके आने के बाद भी उपचुनाव में वह अपने सभी समर्थकों को जिताकर नहीं ला पाए, तो यह उनकी
लोकप्रियता और उनके प्रभाव में कमी मानी जाएगी। ऐसी स्थिति में ज्योतिरादित्य सिंधिया को भाजपा के अंदर से
चुनौतियां मिलना शुरू हो जाएंगी। जिसके कारण सिंधिया के लिए यह अस्तित्व की लड़ाई बन गई है।
सिंधिया और भाजपा आश्वस्त
मध्यप्रदेश में जिन 24 सीटों पर उप चुनाव होने जा रहे हैं। वहां पर कांग्रेस के कार्यकर्ता बडी संख्या में संगठन से
नाराज हैं। ग्वालियर चंबल संभाग के कई जिलों में ऐसे कोई नेता नहीं है, जो सिंधिया या भाजपा का मुकाबला कर
पाए। भाजपा में इस बात की चर्चा है कि विधानसभा उपचुनाव के लिए कांग्रेस के पास ना तो कार्यकर्ता हैं और ना
ही उपयुक्त उम्मीदवार है। कांग्रेस के पास पर्याप्त संसाधन भी नहीं हैं। कांग्रेस के पास ऐसे कोई नेता भी नहीं है,
जो ज्योतिरादित्य सिंधिया की लोकप्रियता और उनकी भाषण शैली में उनके सामने टिक पाए। सिंधिया का प्रभाव
एवं लोकप्रियता कांग्रेस के युवा कार्यकर्ताओं में भी बनी हुई है। ऐसी स्थिति में कांग्रेस का चुनाव प्रचार करने के
लिए कमलनाथ-दिग्विजय सिंह के अलावा कोई ऐसा चेहरा नहीं है। जो स्टार प्रचारक के रूप में मतदाताओं को
प्रभावित कर सके। इसको लेकर भाजपा और सिंधिया काफी आश्वस्त हैं कि भाजपा उपचुनाव में लगभग 20 सीटें
आसानी से जीत लेगी।
कमलनाथ की प्रतिष्ठा उपचुनाव में दांव पर लगेगी
पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ की प्रतिष्ठा भी इस उपचुनाव में दांव पर लगी होगी। पूर्व
मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की छवि आम जनता के बीच में अच्छी नहीं मानी जाती है। 2003 से लेकर 2018
तक के चुनाव प्रचार में कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह को चुनाव मैदान में नहीं उतारा। भाजपा ने सुनियोजित रुप से
दिग्विजय सिंह की छवि जनता के बीच बंटाधार के रुप में बना रखी है। जिसके कारण उन्हें 2018 के चुनाव में
पर्दे के पीछे से समन्वय की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। वर्तमान में जो स्थिति है, उसमें सारे प्रदेश में यह संदेश
गया है कि सही मायने में सत्ता पर पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का नियंत्रण था। चीफ सेक्रेटरी, डीजी और प्रमुख
पदों पर जो अफसर बैठे थे। वह सब दिग्विजय सिंह के भरोसेमंद अधिकारी थे। दिग्विजय सिंह ने सुनियोजित
रणनीति के तहत कमलनाथ को इन अधिकारियों के चंगुल में फंसाकर मंत्रालय में बैठक करने और योजनाएं बनाने
के काम में लगाकर कैद कर दिया था। अब 24 सीटों पर उपचुनाव होना है। मुख्यमंत्री रहते हुए कमलनाथ ने आम
जनता के बीच जाकर दौरे नहीं किए। जनता के साथ मुख्यमंत्री के रुप में कम संवाद हुआ है। मीडिया में भी
कमलनाथ कम आए हैं। सिंधिया के जाने से संगठन भी बहुत कमजोर हो गया है। मुख्यमंत्री और संगठन की दोनों
जिम्मेदारी कमलनाथ के पास है। ऐसी स्थिति में अब उप चुनाव में जीत या हार का जो भी परिणाम होगा, उसका
सेहरा कमलनाथ के सिर पर ही बंधेगा।