पिछले दिनों राजस्थान सरकार ने शिक्षा में नवाचार को लेकर एक सराहनीय पहल की है। जिसके तहत सरकार राज्य के सरकारी व गैर सरकारी प्रारंभिक व माध्यमिक स्कूल के छात्रों को प्रत्येक शनिवार को शैक्षिक गतिविधियों के साथ ही सह शैक्षिक गतिविधियों के रूप में सामाजिक सरोकार से प्रदत्त कार्यक्रमों से जोड़ने का प्रयास करेगी। इसके लिए राज्य माध्यमिक शिक्षा निदेशालय ने इस निर्णय को शिविरा पंचांग में भी शामिल कर लिया है। दरअसल, ‘बाल सभा’ के नाम से प्रत्येक शनिवार को आधे घंटे का एक कार्यक्रम आयोजित किया जाएगा। जिसके अंतर्गत प्रत्येक माह के प्रथम शनिवार को महापुरूषों की जीवनी व उनसे संबंधित प्रेरक प्रसंगों से छात्रों को अवगत कराया जाएगा। माह के दूसरे शनिवार को दादी-नानी से जुड़ी प्रेरणादायक कहानियां सुनायी जायेगी। वहीं माह के तीसरे शनिवार को संत-महात्माओं के प्रवचन से छात्रों को लाभान्वित होने का अवसर मिल सकेगा। चौथे शनिवार को महाकाव्य व उससे जुड़ी प्रश्नोत्तरी परीक्षाओं का आयोजन किया जाएगा। यदि महीने में पांचवां शनिवार पड़ता है, तो उस दिन बच्चे नाटक व एकांकी में भाग लेंगे व देशभक्ति से ओत-प्रोत गीतों का गायन भी होगा। इस निर्णय को लेकर विपक्ष ने सरकार को घेरते हुए ‘शिक्षा के नाम पर भगवाकरण’ का आरोप लगाया है। विपक्ष का कहना है कि सरकार इस तरह के फरमान जारी करके धार्मिक शिक्षा को प्रोत्साहन दे रही है। गौरतलब है कि कुछ दिनों पहले मध्य प्रदेश सरकार ने भी स्कूलों में छात्र हाजिरी के वक्त ‘यस सर’ के स्थान पर ‘जय हिंद’ बोलने का आदेश जारी किया था। तब भी विरोध का स्वर बुलंद होता नजर आया था।
राजस्थान सरकार स्कूलों में सुनवाएगी संतों के प्रवचन, विवाद शुरू
asiakhabar.com | June 23, 2018 | 4:49 pm ISTयह सही है कि संविधान में धारा 28 (1) के मुताबकि- ‘किसी भी किस्म की धार्मिक शिक्षा को ऐसे किसी शैक्षिक संस्थान में नहीं दिया जा सकता है, जो राज्य के फंड से संचालित होती है।’ हमारा संविधान धर्म निरक्षेप होने की बात कहता है। लेकिन, इससे इतर राज्य सरकार के हाल के नवाचार से प्रेरित निर्णयों को ‘धार्मिक शिक्षा’ व ‘शिक्षा के भगवाकरण’ जैसे विषयों से जोड़कर देखना भारी भूल होगी। वस्तुतः ‘जय हिंद’ बोलने में किसी भी प्रकार का कोई धर्म आड़े नहीं आता है। ज्ञातव्य है कि ‘जय हिंद’ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के काल का सर्वोत्तम नारा था, जिसे अमर नायक सुभाष चंद्र बोस ने दिया था और जिसके बलबूते हमने फिरंगियों के फेर से निकलकर आजादी हासिल की थी। वहीं राजस्थान सरकार संत-महात्माओं के प्रवचनों के लिए केवल हिन्दू संतों को ही नहीं, बल्कि मुस्लिम, सिक्ख व ईसाई संतों को भी आमंत्रित करेगी तो ऐसे में धार्मिक शिक्षा देने की सोच बेमानी सिद्ध होती है।
मेरे दृष्टिकोण में सरकार का यह फैसला समयानुसार उचित है। क्योंकि वर्तमान में अंकों की प्रतिस्पर्धा वाली शिक्षा ने छात्रों में सामाजिक सरोकार व मानवीय व्यवहार कुशलता को गौण कर दिया हैं। वे महज रोबोट की भांति यांत्रिक जीवन जी रहे हैं। ऐसे में सरकार का यह निर्णय एक नयी आशा जगाता है, जो छात्रों को अपने परिवेश, देश-काल, अतीत व रीति-रिवाजों से परिचित करवाने में सक्षम साबित होगा। जहां एक ओर दादी-नानी की कहानियां उनके लिए मार्गदर्शन व ‘गागर में सागर’ का काम करेगी, तो दूसरी ओर देशभक्तों व क्रांतिकारियों के किस्से उनमें राष्ट्रभक्ति का संचार करेंगे। संत-महात्माओं के प्रवचन एक-दूसरे धर्म के प्रति जहर घोलने की बजाय धर्म के मर्म को उजागर कर परस्पर एकता व भाईचारे से रहने के लिए छात्रों को प्रेरित करेंगे, जिसकी वर्तमान में ज़रूरत भी है।
वैसे भी आज के तथाकथित साधुओं व बाबाओं को छोड़कर देखें तो भारतीय समाज में संत परंपरा ने समाज को सदैव उत्कृष्ट मार्गदर्शन व दिशा उपलब्ध करायी है। स्वामी विवेकानंद जैसे संत पुरुष ने पुरुषार्थ पर प्रबल जोर देते हुए ‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’ का पाठ पढ़ाया है, तो वहीं महावीर स्वामी ने ‘अहिंसा परमो धर्म’ तथा गौतम बुद्ध ने ‘अप्प दीपो भवः’ का संदेश देकर अज्ञानता के तम को मिटाकर समाज में ज्ञान व मानवता की एक नई अलख जगाने का काम किया हैं। आज शिक्षा अमेरिका, फ्रांस, जापान व जर्मनी के बुद्धिजीवियों के विचारों से रूबरू करवा रही है, लेकिन देश के महापुरुषों के महान विचारों को दरकिनार कर रही है। फलस्वरूप आज के छात्रों को हिटलर व चंगेज खान के जन्म से लेकर मरण तक के सारे कार्य रटे-रटाये याद हैं, लेकिन चंद्रशेखर आजाद, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, महाराणा प्रताप, भगत सिंह जैसे वीर-बलिदानियों के जीवन ज्ञान से वे अछूते हैं। ऐसे समय में जहां छात्रों के आदर्श देशभक्त, महापुरुष न बनकर सिनेमा जगत के हीरो बन रहे हैं, निरंतर नैतिक मूल्यों का क्षरण होता जा रहा हैं, नाना प्रकार की विकृतियां उनके जीवन में घर करती जा रही हैं, वहां इस तरह की पहल छात्रों में नैतिक मूल्यों का विकास करने के साथ ही उनके सामाजिक ज्ञान का दायरा भी बढ़ाएगी।