विनय गुप्ता
महाराष्ट्र की राजनीति में जो भूचाल की स्थिति पैदा हुई है, नैतिकता के लिहाज़ से यदि देखें तो ऐसे
हालात की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। मगर जब कुर्सी की चाह, ख़ास तौर पर मुख्यमंत्री के पद की
लालसा का सवाल हो तो राजनीति में 'नैतिकता' शब्द की कोई गुंजाईश नज़र नहीं आती। भारतीय जनता
पार्टी और शिवसेना का लगभग 25 वर्ष पुराना गठबंधन इन्हीं हालात की भेंट चढ़ गया। 288 सीटों वाली
महाराष्ट्र विधानसभा में पिछले दिनों हुए आम चुनावों किसी भी दाल को बहुमत नहीं मिल सका। इन
चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को 105 सीटें मिलीं और शिवसेना को 56 सीटें हासिल हुईं। उधर
एनसीपी को 54 और कांग्रेस को 44 सीटों पर जीत मिली। सर्कार बनाने के लिए ज़रूरी 146 सीटों का
आंकड़ा चुनाव पूर्व गठबंधन वाली भाजपा व शिवसेना आसानी से पूरा करती नज़र आ रही है। परन्तु 56
सीटें जितने वाली शिव सेना ने भाजपा के सामने मुख्यमंत्री पद लिए जाने की शर्त रख दी जिसे भाजपा
ने मंज़ूर नहीं किया। नतीजतन स्थिति राष्ट्रपति शासन तक जा पहुंची। इस राजनैतिक उठापटक में ऊंट
किस करवट बैठेगा यह तो बाद में पता चलेगा परन्तु फ़िलहाल जो बड़े राजनैतिक बदलाव हुए हैं उनमें
शिव सेना न केवल घाटे में बल्कि राजनैतिक रूप से अलग थलग पड़ती भी दिखाई दे रही है। शिव सेना
का भाजपा से गठबंधन भी टूट चूका है और शिव सेना के लोकसभा सांसद व सेना के एकमात्र केंद्रीय
मंत्री अरविंद सावंत ने ''शिव सेना सच के साथ है। इस माहौल में दिल्ली में सरकार में बने रहने का
क्या मतलब है? यह कहते हुए नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा भी दे दिया है।वे मोदी सरकार में
भारी उद्योग मंत्री थे। अब सच क्या है, राजनीति में सच की परिभाषा क्या है, राजनीति में 'वास्तविक
सच' की कोई ज़रुरत या गुंजाईश है भी या नहीं या फिर मौक़ापरस्ती ही 'सच' की सबसे बड़ी परिभाषा
बन चुकी है इन बातों पर चिंतन करने की सख़्त ज़रुरत है।
आज भाजपा व शिव सेना एक दूसरे को वर्तमान राजनैतिक उथल पुथल के लिए ज़िम्मेदार ही नहीं ठहरा
रहे बल्कि एक दुसरे पर झूठ बोलने का इल्ज़ाम भी लगा रहे हैं। शिव सेना का कहना है कि महारष्ट्र के
राजनैतिक हालात के लिए शिवसेना नहीं बल्कि भाजपा का अहंकार ज़िम्मेदार है। परन्तु एक बात तो
ज़रूर स्पष्ट है कि हिंदुत्व के नाम पर साथ आए ये दोनों राजनैतिक दल मुख्यमंत्री के पद की ख़ातिर
अलग हो गए इसका सीधा सा मतलब यही हुआ कि दोनों ही दलों के लिए हिंदुत्व या विचारधारा की
बातें करना महज़ एक छलावा था वास्तव में तो मुख्यमंत्री का पर हिंदुत्व वाद से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण
था। इस राजनैतिक उथल पुथल के दौरान शिव सेना की तरफ़ से भाजपा के और कुछ ऐसे 'विषायुक्त
'तीर भी छोड़े गए जो विपक्षी दाल समय समय पर छोड़ा करते थे। सत्ता की खींचतान के बीच जब
शिवसेना के राज्यसभा सांसद संजय राउत से जब पूछा गया था कि भाजपा के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन
होने के बावजूद सरकार बनाने में देरी क्यों हो रही है तो उन्होंने कहा, 'यहां कोई दुष्यंत नहीं है जिसके
पिता जेल में हों। हम धर्म और सत्य की राजनीति करते हैं।उनका इशारा हरियाणा में सत्ता के लिए
भाजपा व जननायक जनता पार्टी में सत्ता के लिए हुए समझौते की तरफ़ था। क्योंकि दोनों ही एक दुसरे
के विरुद्ध चुनाव लाडे थे तथा चुनाव प्रचार के दौरान दोनों ही ने एक दुसरे पर भ्रष्टाचार के गंभीर
आरोप लगाए थे।दूसरा सवाल शिव सेना ने भाजपा के सामने यह भी रखा कि जब भाजपा महबूबा मुफ़्ती
की पार्टी पी डी पी से जम्मू कश्मीर में गठबंधन कर सकती हो तो शिव सेना को कांग्रेस से आपत्ति क्यों?
बहरहाल राजनीति में अनैतिकता का बोलबाला है, ऐसे वातावरण में आज राष्ट्रीय जनता दाल के प्रमुख
लालू यादव को 2015 के बिहार विधान सभा के चुनाव परिणाम के सन्दर्भ में याद करना ज़रूरी है।
भारतीय जनता पार्टी को बिहार की सत्ता से दूर रखने के लिए महागठबंधन बनाया गया था जिसमें
नितीश कुमार के नेतृत्व वाली जनता दाल यूनाइटेड, लालू यादव की राष्ट्रिय जनता दाल तथा कांग्रेस
पार्टी शामिल थे। जबकि भाजपा राम विलास पासवान की लोक जान शक्ति पार्टी के साथ चुनाव मैदान
में थी। लालू यादव ने राज्य में नितीश कुमार की 'विकास बाबू' की छवि को सामने रखकर चुनाव लड़ा
था लिहाज़ा सत्ता में आने पर मुख्यमंत्री नितीश ही बनेंगे यह उनका वादा था। चुनाव परिणाम आने पर
राज्य जनता दाल यूनाइटेड को 71 सीटें मिलीं जबकि राष्ट्रिय जनता दाल को 80 व कांग्रेस पार्टी को 27
सीटें प्राप्त हुईं। उधर भाजपा को 53 व उसकी सहयोगी लोजपा को मात्र 2 सीटों पर संतोष करना पड़ा।
इस चुनाव परिणाम बाद महाराष्ट्र की स्थिति की ही तरह सबकी नज़रें लालू यादव पर जा टिकी थीं।
अनैतिकता की राजनीति के वर्तमान वातावरण में यह क़यास लगाए जाने लगे थे कि राज्य में सबसे बड़ी
पार्टी में उभरी आरजेडी अपने वादे के अनुसार नितीश को मुख्यमंत्री बनने देगी या सबसे बड़े दल होने के
नाते स्वयं मुख्यमंत्री पद का दवा करेगी। परन्तु अत्यंत संक्षिप्त राजनैतिक बाद लालू यादव ने अपने वेड
पर क़ाएम रहते हुए कुमार मुख्यमंत्री बनाए जाने का रास्ता हमवार किया और अपने दोनों पुत्रों को
नितीश मंत्रिमंडल में सम्मानपूर्ण जगह दिला दी। यानी सबसे बड़े दल के रूप उभरने के बावजूद
मुख्यमंत्री पद के लिए नहीं अड़े। भले ही इस वादा वफ़ाई का बुरा नतीजा भुगतना पड़ा और आज तक वे
भुगत भी रहे हैं।
उधर ठीक इसके विपरीत दूसरे नंबर पर आने वाली शिवसेना महाराष्ट्र में मुख्य मंत्री पद के लिए इस हद
तक आई कि विधान सभा भंग होने तक की नौबत आ गयी। शिवसेना व भाजपा का अलग होना
हिन्दुत्व के दो तथाकथित अलम्बरदारों का अलग होना है जो यह साबित करता है कि सत्ता व पद के
आगे हिंदुत्व या हिंदुत्ववादी विचारधारा की कोई अहमियत नहीं जबकि साम्प्रदायिक ताक़तों को सत्ता से
रोकने व धर्मर्निर्पेक्षता को मज़बूत करने की ख़ातिर लालू यादव ने 2015 में न केवल मुख्यमंत्री पद पर
अपना दावा पेश नहीं किया बल्कि जनता से किये गए अपने चुनाव पूर्व वादे को भी निभाया। आगे
चलकर नितीश कुमार ने कैसे राजनैतिक चरित्र का परिचय दिया वो भी पूरे देश ने देखा। इसलिए कहा
जा सकता है वैचारिक व सैद्धांतिक दृष्टिकोण से महाराष्ट्र की राजनीति की तुलना में 2015 में बिहार
में लिया गया लालू यादव का स्टैंड उद्धव ठाकरे की तुलना में कहीं ज़्यादा वैचारिक, सिद्धांतवादी व
नैतिक प्रतीत होता है। शायद यही वजह है कि चारा घोटाला व भ्रष्टाचार के दूसरे आरोपों के बावजूद
लालू यादव की धर्मनिर्पेक्ष छवि व उनकी लोकप्रियता अभी भी बरक़रार है। जबकि शिवसेना को पुत्रमोह,
सत्तामोह तथा वैचारिक व सैद्धांतिक उल्लंघन का भी सामना करना पड़ रहा है।