शिशिर गुप्ता
महात्मा बुध से लेकर महात्मा गाँधी जैसे महापुरुषों की कर्मस्थली रहा देश का प्राचीन समय का सबसे समृद्ध
राज्य बिहार गत 15 वर्षों में हुए अनेक मूलभूत विकास कार्यों के बावजूद अभी भी देश के पिछड़े राज्यों में ही
गिना जाता है। आज भी बिहार के शिक्षित व अशिक्षित युवा अपनी रोज़ी रोटी की तलाश में देश के अन्य राज्यों में
जाने के लिए मजबूर हैं। महाराष्ट्र जैसे राज्य में तो बिहार के लोगों की संख्या इतनी अधिक हो चुकी है कि क्षेत्रीय
मराठा राजनीति करने वाले नेता उत्तर भारतियों के विरोध के नाम पर ही मराठा मतों के ध्रुवीकरण की राजनीति भी
करते हैं। यह भी सच है कि डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद से लेकर जय प्रकाश नारायण व कर्पूरी ठाकुर जैसे नेता इसी राज्य
का प्रतिनिधित्व करते थे परन्तु इसके बावजूद अन्य राज्यों की तुलना में बिहार का विकास होना तो दूर उल्टे
बिहार तेज़ी से पिछड़ता ही चला गया। लगभग 3 दशकों तक बिहार भ्रष्टाचार, ग़रीबी, पिछड़ेपन, अपराध,
जातिवाद व बेरोज़गारी का पर्याय बना रहा। परन्तु जब से राष्ट्रपति भारत रत्न ए पी जे अब्दुल कलाम ने बिहार से
विकास की धारा बहाने की शुरुआत की और इसी राज्य से नई हरित क्रांति छेड़ने का आवाह्न किया तब से न
केवल बिहार के नेतृत्व को भी पारम्परिक लचर राजनैतिक रवैय्ये को त्यागना पड़ा बल्कि केंद्र सरकार भी बिहार के
विकास के लिए गंभीर नज़र आने लगी। बिहार को एक झटका उस समय भी लगा जबकि 15 नवंबर 2000 को
बिहार विभाजित हो गया और झारखण्ड के नाम से राज्य का लगभग 80,000 वर्ग किलोमीटर का प्रकृतिक रूप से
समृद्ध क्षेत्र बिहार से अलग हो गया। कहा जाता है कि झारखण्ड राज्य अपने आप में देश की 40 प्रतिशत खनिज
संपदा का स्वामित्व रखता है।
बहरहाल यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं कि जहां राज्य के शिक्षित युवाओं ने देश-विदेश में ऊंचे से ऊंचे पदों
पर बैठकर राज्य का नाम रौशन किया तथा राज्य के मेहनतकश युवाओं व श्रमिक व खेती किसानी करने वाले
कामगारों ने भी अपने ख़ून पसीने से राष्ट्र निर्माण में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की वहीँ यहां के राजनेताओं में
राज्य के विकास को लेकर गंभीरता नज़र नहीं आई। हां राज्य में दशकों तक भ्रष्टाचार, लूट खसोट, राजनैतिक व
प्रशासनिक लापरवाही व ढुलमुलपन का माहौल ज़रूर बना रहा। धर्म व जाति के नाम पर बिहार की भोली भली
जनता को ठगा जाता रहा। यही वजह थी कि राष्ट्रपति कलाम की पहल व यू पी ए सरकार के समर्थन से शुरू हुई
विकास यात्रा के सारथी व उस समय के भी मुख्यमंत्री रहे नितीश कुमार को बिहार में 'विकास बाबू' के नाम से
जाना जाने लगा था। निःसंदेह बिहार ने गत 15 वर्षों में तरक़्क़ी तो ज़रूर की है परन्तु अभी भी राज्य के विकास
की गति अत्यंत धीमी है। स्कूल में जाने वाले बच्चों की संख्या ज़रूर बढ़ी है परन्तु शिक्षा के स्तर में सुधर नहीं
हुआ है। विद्यालय भवन तथा अध्यापकों की कमी अभी भी राज्य में महसूस की जा रही है। इत्तेफ़ाक़ से अपनी
राजनैतिक 'सूझ बूझ' की वजह से आज भी नितीश कुमार ही राज्य के मुख्यमंत्री हैं परन्तु उनके मुख्यमंत्री बनने
के इस सत्र में यही देखा जा रहा है कि उनका बिहार के विकास से भी ज़्यादा ध्यान व समय अपनी कुर्सी को 'येन
केन प्रकरेण' बरक़रार रखने में लगा रहा। कभी कांग्रेस व राष्ट्रीय जनता दल के साथ मिलकर महागठबंधन बनाया
और भाजपा के विरुद्ध चुनाव लड़कर जीत हासिल की। फिर इन्हीं सहयोगी दलों को ठेंगा दिखाकर भाजपा के
समर्थन की मिली जुली सरकार बना डाली।
अब राज्य एक बार फिर संभवतः इसी वर्ष अक्टूबर में राज्य विधान सभा का सामना करने जा रहा है। राज्य के
वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य में सबसे बड़े जनाधार वाले राजनैतिक दल राष्ट्रीय जनता दाल की नैय्या डगमगा रही
है। अपने जादुई व लोकलुभावन अंदाज़ के लिए अपनी अलग पहचान रखने वाले नेता लालू यादव इस समय जेल
में सज़ा काट रहे हैं। उनकी राजनैतिक विरासत को उनके पुत्रगण ठीक ढंग से संभाल नहीं सके। कांग्रेस पार्टी भी
कमोबेश उत्तर प्रदेश जैसी स्थिति में ही यहां भी है। और सबसे बड़ी बात यह की स्वयं मुख्य मंत्री नितीश कुमार को
भी अब राज्य में विकास बाबू के नाम के बजाए 'पलटीमार' के नाम से जाना जाने लगा है। उधर भाजपा भी
स्वभावतयः धर्मनिरपेक्ष विचारधारा रखने वाले इस राज्य में पूरी तरह से अपने पैर नहीं फैला सकी है। संभवतः
इसी चतुर्कोणीय राजनैतिक द्वन्द में से ही इस बार राज्य की जनता एक नया विकल्प प्रशांत किशोर के रूप में भी
देख सकती है। गत दिनों पटना में अपने संवाददाता सम्मलेन में स्वयं 'पी के' ने ही अपने कुछ ऐसे ही इरादों की
जानकारी भी दी। उन्होंने जे डी यू से नाता तोड़ने के बाद पहली बार नितीश कुमार पर जो सबसे बड़ा हमला बोला
है वह है उनकी राजनैतिक विचार%
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