इंजीनियर राशिद हुसैन
गंगा-जमुनी तहज़ीब का गवाह शहरे-जिगर यानी मुरादाबाद यूं तो दुनिया भर में पीतल नगरी के नाम से जाना जाता है। लेकिन अदब की दुनिया में भी इस शहर को एक बड़ा मुकाम हासिल है।
दुनिया के चंद बड़े शायरो में शुमार आलमी शायर जिगर मुरादाबादी ने तमाम आलम में इस शहर को पहचान दिलाई है। ये शहर वासियों के लिए फक्ऱ की बात है।
शहर की अदबी विरासत आगे बढ़ाने के लिए जिगर मुरादाबादी से लेकर क़मर मुरादाबादी, कैफ मुरादाबादी, गौहर उस्मानी, शाहिद अहसन, सलीम कैफ़ी, दिलकश आफरीदी, शहाब मुरादाबादी, ज़मीर दरवेश, मंसूर उस्मानी, अनवर कैफ़ी तसलीमा सिद्दीकी, कशिश वारसी, डॉक्टर मीना नक़वी,डॉक्टर मश्कूर मुरादाबादी, शाहिद ऐसन, जसबी मुरादाबादी,मेहमूद अंसारी, डॉक्टर कृष्ण कुमार नाज, डॉक्टर मुजाहिद फ़राज़ नसीम वारसी तक कई बड़े नाम हैं। आज भी कई युवा शायर अहमद मुरादाबादी समेत अपनी शायरी से मुरादाबाद का नाम रोशन कर रहे हैं।
मौजूदा वक़्त में एक बड़ा नाम है, आकर्षक व्यक्तित्व के धनी पेशे से वकील एडवोकेट ज़िया ज़मीर जो अपने वालिद जनाब ज़मीर दरवेश की विरासत को बहुत ही मेहनत लगन और मोहब्बत से आगे बढ़ा रहे हैं।
ज़िया साहब की हाल ही में आई एक नई किताब “ये सब फूल तुम्हारे नाम” ग़ज़ल संग्रह मेरे हाथो में है। मैंने जब इसको पढ़ना शुरू किया तो इसमें लिखी ग़ज़लों में खोता चला गया और बहुत सोचा कि क्या लिखूं? कितना लिखूं? क्योंकि इस किताब की समीक्षा बड़े काबिल साहित्यकार पहले ही कर चुके हैं। मैं अदना सा लेखक कोई टिप्पणी नहीं कर सकता। सबका अपना अपना नज़रिया है। मेरा नज़रिया कुछ अलग है। इसलिए बहुत हिम्मत करके एक छोटी सी समीक्षा लिखने की कोशिश कर रहा हूं।
जिस उम्र में ज़्यादातर युवा शायर अपनी शायरी में आशिक़-मिज़ाजी, मेहबूब की तारीफ, लबो-रुख़सार की बातें करता है। उसी उम्र में ज़िया साहब ने अपनी ग़ज़लों के ज़रिए समाज के हर पहलू को बड़ी ही खूबसूरती से उकेरा है। उन्होंने इश्क़ की शुरुआत लिखी तो बिछड़ने का ग़म और दर्द को भी अपनी ग़ज़लों में अच्छे से बयां किया है तो वहीं ग़रीब मज़लूम की बेबसी, मां की ममता, मासूम बच्चों के कोमल मन को भी गहराई से पढ़ा है। इसी संग्रह से उनका एक शेर जिसमे सागर सी गहराई है।
लहर खुद पर है पशेमान कि उसकी ज़द में
नन्हे हाथों से बना रेत का घर आ गया है
मेहबूब से बात करते हुए फिक्र में लिखते हैं-
आज ये शाम भीगती क्यों है
तुम कहीं छुप के रो रही हो क्या
समाज की हकीकत को बयां करते हुए लिखा-
उनको दुनिया ने हमेशा ही अंधेरे बख्शे
जिनकी आमद से ज़माने में उजाले हुए हैं
प्यार में जुदाई के बाद के जिंदगी के जज़्बात कुछ यूं कहे हैं-
वो जो बे साख्ता हंसने की अदा थी तेरी
तुझको मालूम नही वो ही दवा थी मेरी
फिर कटाक्ष करते हुए लिखा –
अब तो आते हैं सभी दिल को दिखाने वाले
जाने किस राह गए नाज़ उठाने वाले
रोज़ी रोटी के लिए घर छोड़ परदेस में रहने अकेले पन पर भी शेर के देते हैं-
घर याद आता है घर का हर रस्ता याद आता है
शहर हो जब अनजान तो जाने क्या क्या याद आता है
ज़िया साहब की अधिकतर ग़ज़लों में जुदाई का दर्द यादें तन्हाई मेहबूब से शिकवा बेबसी की झलक दिखती है। इसी किताब में ये और दो शेर
जाने वालों को मुसलसल देखता रहता हूं मैं
किसलिए जाते हैं ये भी पूछता रहता हूं मैं
इसी गजल का शेर में फिर कुछ शिकायत और ख्वाहिश ज़हिर की है-
एक दरिया है कि जो करता नहीं मुझको कुबूल
बैठकर साहिल पे अक्सर डूबता रहता हूं में
एक घर एक औलाद के लिए मां की कुर्बानी को भी बड़े अच्छे अंदाज़ में पंक्तियों के जरिए कह देते हैं-
घुटनो की पीड़ा में जाग के सोने वाली मां
इन्सूलिन की गोली से खुश होने वाली मां
सिलवटी हाथों से कपड़ो को धोने वाली मां
पापा की इक डांट से घुट कर रोने वाली मां
बच्चो से छिप छिप कर रोना कैसा होता है
मां हो तुम और मां का होना ऐसा होता है
कुल मिलाकर “ये सब फूल तुम्हारे नाम” ग़ज़ल संग्रह की एक एक ग़ज़ल एक एक शेर और एक एक शब्द पढ़ने लायक है और कुछ न कुछ कह रहा है। इस संग्रह का हर शेर ऐसा महसूस होता है जैसे उन्ही के लिए कहा गया हो।
“ये सब फूल तुम्हारे नाम” के लिए ज़िया ज़मीर साहब बधाई के पात्र हैं और युवा साहित्यकारों के लिए मार्ग दर्शक हैं।