ये जनता के रजिस्टर

asiakhabar.com | December 28, 2019 | 2:01 pm IST
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शिशिर गुप्ता

एनपीआर और एनआरसी को जोड़ कर गृहमंत्री अमित शाह को झुठलाने की कोशिश की जा रही है। राजनीति में तो
यह स्वाभाविक है, लेकिन कुछ टीवी चैनल और पोर्टल आदि ज्यादा पूर्वाग्रही दिख रहे हैं। यह भी गुमराह करने की
एक कुत्सित प्रवृत्ति है। बहरहाल यदि ये दोनों रजिस्टर आपस में जुड़े हैं, तो इसमें असंवैधानिक क्या है? यह माना
जा सकता है कि गृहमंत्री साफ-साफ देश को बताएं कि इन संबंधों का अतीत क्या रहा है? मई, 2014 में मोदी
सरकार आई और कुछ महीनों के अंतराल में सरकार के राज्यमंत्रियों ने संसद में जवाब दिया कि एनपीआर ही
एनआरसी का पहला चरण है। तत्कालीन गृह राज्यमंत्री किरेन रिजिजू ने जुलाई और नवंबर, 2014 के दौरान
संसद में सवालों के जवाब दिए कि एनपीआर के बाद ही एनआरसी लाया जाएगा। एक और गृह राज्यमंत्री हरिभाई
चौधरी ने भी कुछ ऐसा ही जवाब दिया। यदि संसद में 7 बार मोदी सरकार के मंत्रियों ने माना कि एनपीआर ही
एनआरसी का पहला चरण है, तो इसमें कौन-सा पहाड़ टूट पड़ा? या कौन से मंसूबे बेनकाब हो गए? संसदीय
सवालों के जवाब संबंधित नौकरशाही तैयार करती है और मंत्री अमूमन भरोसा करते हैं, क्योंकि सरकारों की
निरंतरता अफसर बखूबी जानते हैं और यह एक सरकारी प्रक्रिया है। एनपीआर भी संवैधानिक प्रक्रिया है, जिसका
विश्लेषण हम बीते कल के संपादकीय में कर चुके हैं। एनआरसी भी संवैधानिक प्रक्रिया है, जो स्वतंत्र भारत में
1951 से जारी रही है। 1985 में तो तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने ‘आसू’ के साथ ‘असम करार’ पर
हस्ताक्षर किए थे, तो उसका विषय भी एनआरसी था। इसे अवैध, खतरनाक, विभाजक, सांप्रदायिक आदि करार
क्यों दिया जा रहा है? दुनिया के सभी विकसित और सभ्य, लोकतांत्रिक देशों में नागरिकों का रजिस्टर तैयार
किया जाता रहा है। जहां तक मौजूदा विवाद का सवाल है, तो देश के गृहमंत्री को बिंदु-दर-बिंदु स्पष्ट करना
चाहिए। उन्होंने इतना जरूर कहा है कि एनआरसी जब भी लाया जाएगा, तो कैबिनेट और संसद के सामने उसका
पूरा प्रारूप होगा। विमर्श होगा, तो देश के सामने आएगा। सिर्फ मुसलमानों के प्रति दुराग्रह रखकर किसी भी मुद्दे
पर विचार नहीं किया जा सकता है। कमोबेश देश को इतना आश्वस्त रहना चाहिए। इस संदर्भ में एक प्रसंग
गौरतलब है। 2012 में तत्कालीन गृहमंत्री चिदंबरम के कार्यकाल में यूपीए सरकार ने जो ‘श्वेत पत्र’ जारी किया
था, उसमें स्पष्ट उल्लेख था कि एनपीआर ही एनआरसी की तरफ पहला कदम है। लिहाजा एनपीआर में अपनी
सूचनाएं दर्ज कराना प्रत्येक नागरिक के लिए संवैधानिक तौर पर अनिवार्य है। इससे पहले 2010 में यूपीए सरकार
के दौरान ही जब तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के आवास पर एनपीआर की शुरुआत देश के ‘प्रथम नागरिक’
की निजी सूचनाएं दर्ज करने के साथ की गई थी और दूसरे नागरिक के तौर पर यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी
फॉर्म भरा था, तत्कालीन उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने भी प्रपत्र में सूचनाएं दर्ज की थीं, तो एनपीआर संवैधानिक
और सही था। आज वह गलत कैसे हो सकता है? सर्वोच्च न्यायालय तो आज भी देश में है। आज भी हम लोकतंत्र
में जी रहे हैं। दरअसल हमें लगता है कि गृहमंत्री अमित शाह को इन घटनाओं का खुलासा देश के सामने करना
चाहिए और आश्वस्त करना चाहिए कि यूपीए कार्यकाल में एनपीआर और एनआरसी एक रूटीन, कानूनी कवायद के
हिस्सा थे और आज भाजपा-एनडीए सरकार के दौरान भी हो सकते हैं। इससे देश में भूचाल क्यों आना चाहिए?
गृह मंत्रालय की सालाना रपट में से ढूंढ-ढूंढ कर उद्धृत किया जा रहा है कि एनपीआर के बाद एनआरसी आना ही
है। पुरानी वेबसाइट के लिंक बताए जा रहे हैं। इनको कोई झुठला नहीं सकता, लेकिन देश के गृहमंत्री को भी
सरेआम ‘झूठ’ बोलने का कलंक नहीं दिया जा सकता है। संशोधन संविधान और कानून में संभव हैं, तो

राज्यमंत्रियों, रपटों या किसी और सरकारी शख्सियत के कथन को संशोधित नहीं किया जा सकता है क्या?
बहरहाल इस विषय पर अरुंधती रॉय सरीखे बौद्धिकों को लानत भेजना जरूरी है, जो जनता को गलत और
नकारात्मक काम करने को उकसाते हैं। अरुंधती विश्व के सम्मानित ‘बुकर अवार्ड’ विजेता लेखिका हैं, लेकिन उनके
दुराग्रह बाध्य कर रहे हैं, लिहाजा उन्होंने जनता से अपील की है कि एनपीआर के अफसर जब भी आपके घर आएं,
तो उन्हें ‘रंगा-बिल्ला’ जैसे गलत नाम बता दें और पता लिखवा दें-7, रेसकोर्स रोड। यह भारत के प्रधानमंत्री का
आवासीय पता रहा है। यह सरकारी कामकाज में रोड़ा अटकाना ही नहीं, बल्कि राजद्रोह है। ऐसे दुराग्रही दुष्प्रचार से
बचना चाहिए।


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