एक वर्ष बीत गया है! पूरा एक वर्ष! वह आज भी मेरे जीवन का एक अटूट हिस्सा बने बैठी है। मैं चाह कर भी उसे
अपने से अलग नहीं कर पा रही। ऐसा क्यों हो जाता है? कैसे हो जाता है?
इसमें उसको दोषी कैसे ठहरा सकती हूं…? किन्तु मेरी वर्तमान स्थिति के लिये वही तो जिम्मेदार है। ..यदि मैने
उसे अपने जीवन का आदर्श न बना लिया होता तो, क्या मेरे हालात इस कदर दयनीय बन गये होते?
परन्तु क्या वह स्वयं मेरे पास चल कर आई थी कि, ऐ अनुष्ठा तुम मुझे अपने जीवन का आदर्श बना लो? अब
इन सवालों का औचित्य क्या है?…मैं तो जीवन के प्रत्येक कदम पर उसका ही अनुसरण करती रही। फिर गलती
कहां हो गई?
जय अंकल तो सदा ही कहा करते थे कि मनुष्य का उठाया हुआ हर कदम उसके वर्ग से संचालित होता है। मैं ही
उनके वामपंथ का मजाक उड़ाती रही…आज भी उड़ाती हूं।..पर कहीं उनकी कही बात सच भी तो साबित हो रही है।
वह अभिजात्य वर्ग की सदस्या थीय उसके सभी दोष उसकी दौलत के पर्दे के पीछे छिप जाते थे। वह राजकुमारी
थी, किन्तु मैं…! मध्यवर्गीय खोखलेपन को सहने के लिये अभिशप्त!
सपने तो मैं भी राजकुमारियों और राजकुमारों के ही देखा करती थी। जब एक फिल्म अभिनेत्री ने प्रिंस चार्ल्स का
खुले आम चुंबन ले लिया था, तो मुझे बहुत ईर्ष्या हुई थी। दिल के किसी कोने में गुदुगुदी भी हुई थी। मन में कहीं
यह विचार भी आया था कि वह अभिनेत्री मैं क्यों न हुई!.. आज तो उस अभिनेत्री का नाम भी भूल चुकी हूं.। वक्त
की मार के थपेड़े मनुष्य के दिमाग की स्लेट पर सब धुंधला कर देते हैं।
प्रिंस चार्ल्स के प्रेम किस्से तो सुनती पढ़ती रहती थी। …फिर एकाएक कहीं बिजली गिरी…और समाचार पढ़ा कि
राजकुमार विवाह कर रहा है…राजघराने की तुलना में तो डायना का परिवार मध्यवर्गीय ही कहलायेगा ना…एकाएक
वह, अमरीका में बच्चों की देखभाल करके गुजर करने वाली आया, राजकुमारी बन गई थी।…उसकी खूबसूरती के
चर्चे, पुरुष तो पुरुष, नारियों में भी होने लगे थे।
मुझे पहली बार पता चला कि चमत्कार केवल किस्से कहानियों में ही नहीं होते।…वास्तविक जीवन भी चमत्कारी हो
सकता है।
डायना के पिता ने तो अपनी पुत्री के लिये सचमुच का राजकुमार ढूंढ ही लिया था…मेरे पिता तो रेल मंत्रालय में
सेक्शन अफसर ही थे…फिर वे भला अपनी अनुष्ठा के लिये कैसे और कहां से राजकुमार ढूंढ पाते। वे तो क्लास थ्री
और क्लास टू के अफसरों से आगे सोच ही नहीं पाते थे।
एक तो पिता जी ने मुझे नाम ही विचित्र सा दिया था। नाम का उच्चारण पूरा होते होते लगता था जैसे किसी
नेठासे बन्दूक दाग दी हो।…उस पर, उनका मेरे लिये एक बैंक का अफसर लड़का ढूंढ निकालना…कि जा बेटी, कर
ले इस से शादी और गला दे अपना सारा जीवन उस बैंकर की सेवा करने में, उसके बच्चे जनने में और सास ससुर
की देखभाल करने में।
भला मुझ सी महत्वाकांक्षी लड़की किसी आम महिला वाले शुष्क कार्य कैसे सरअंजाम दे पाती। विद्रोह कर दिया था
मैने। जीवन में पहली बार पिता को बता दिया था कि यह शरीर और जीवन चाहे मेरे माता पिता ने ही मुझे बख्शा
है…परन्तु अब यह जीवन, यह शरीर मेरा है…सिर्फ मेरा।
मेरी कद काठी तो काफी हद तक राजकुमारी डायना से मिलती जुलती ही थीय अब मैंने अपने बाल भी वैसे ही
कटवा लिये थे।…मेरा पहनावा, मेरी चाल, मेरी अंग्रेजी ..सभी पर तो डायना छाये जा रही थी। उस बेचारी को तो
पता भी नहीं होगा कि हजारों मील दूर उसकी छवि की दीवानी एक मीरा भारत में भी रहती है। उससे क्या फर्क
पड़ता है। इस संसार में हर व्यकित अपना अपना भगवान गढ़ लेता है…यदि मैंने भी अपनी भगवान खोज ली तो
किसी को क्या फर्क पड़ता है। यदि डायना को मेरे पागलपन के बारे में पता चल भी जाता, तो मेरे जीवन में क्या
अंतर आने वाला था?
अपनी भगवान की ही तरह मैं भी जुट गई थी अपने राजकुमार को ढूंढने में। क्या इतना ही सरल है अपने सपनों
के राजकुमार को पा लेना। जय अंकल एक बार फिर सामने आ खड़े हुये हैं, अनु, तुम ने कभीसोचा है?
जय अंकल का तकिया कलाम बन गया है…अनु, तुमने कभी सोचा है?…वह अपनी हर बात ऐसे ही शुरु करते हैं।
मेरी प्रश्नवाचक दृष्टि उनकी ओर उठ गई।
अपने चश्में के ऊपरी भाग से मेरी ओर देखते हुये, जय अंकल कहे जा रहे थे, हमारी आज की पीढ़ी में एक विचित्र
बात उभर कर सामने आई है…हम…अपने जीवन में अपने आदर्श नहीं गढ़ते। फिर चाहे साहित्य हो या राजनीति
हम अकेले पड़ जाते हैं। हम अपने जीवन को किसी आधार पर टिका नहीं पाते। हमारा जीवन निरुद्देश्य इधर उधर
भटकता रहता है…!
क्या यह बात मेरे जीवन पर भी लागू होती है? मैनें तो अपना आदर्श गढ़ा…अपने आदर्श के लिये तो मैने स्थान
और देश की सीमाओं तक की परवाह नहीं की। पुस्तकों, पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से ही अपने आदर्श को पहचानने
की चेष्टा में लगी थी।
लेडी डायना, राजकुमारी बनने से पहले अमरीका में छोटे बच्चों की आया का काम करती थी।…क्यों करती थी
ऐसा?…क्या उसे मालूम नहीं था यदि मैने उसके ही पदचिन्हों पर चल कर यह काम करने के बारे में सोचा भी तो
घर में बवाल मच जायेगा।…मचता फिरे…परवाह किसे थी!….
मैं एक धनाड्य गुजराती परिवार में जा कर उनके बच्चों की देखभाल करने लगी। एम.ए. अंग्रेजी आया पा कर
परिवार भी धन्य था और बच्चे भी। अनिल उसी परिवार का ही तो छोटा पुत्र था। मेरे विचारों को सुन कर जैसे
मेरा भक्त ही बनता जा रहा था, अनुष्ठा, हमारे देश को तुम जैसी लड़कियों की सख्त जरूरत है। न जाने कयों
हमारे देश में डिगनिटी ऑफ लेबर का अर्थ किसी को भी समझ क्यों नहीं आता!
बहुतायत में है न!… अनिल जी, हमारे देश में लेबर बहुत अधिक है… परन्तु काम!…कहां से लायेंगे इतना
काम!…चावलों में भी तो बासमती की ही कदर होती है न!…कम और महंगा जो मिलता है…आम चावल तो मजदूर
भी खा लेता है …बासमती तो डिगनिटी वाले लोग ही खा सकते हैं न!
मुझे औरों की तो खबर नहीं है, अनु, परन्तु तुम अवश्य ही बासमती वाली डिगनिटी रखती हो। मैं तुम्हारे जीवन से
मोटे सादे चावल सदा के लिये दूर कर दूंगा।…और मैं भी राजकुमारी बन गई थी। मुनीम परिवार की बहू बन जाना
कोई छोटी बात थी क्या?… अनिल से विवाह! मेरे माता पिता तो भौंचक रह गये थे। विवाह का रिसेप्शन भी तो
ताज होटल में रखा गया था…सामने गेट-वे-आफ-इंडिया! मेरे लिये जीवन का एक नया द्वार खुल गया था।
डायना ने विवाह के पहले दो तीन वर्षों में ही दो पुत्रों को जन्म दे दिया था। राजसिंहासन के लिये वारिस पैदा कर
दिये थे। कैसी अनुभूति हुई होगी राजकुमारी को! …मुझे डायना से उम्र में छोटे होने का एक लाभ तो था कि मैं
आसानी से उसके बनाए रास्ते पर चल सकती थी।
दूसरों के बनाये हुये रास्तों पर चलना बहुत आसान काम है, अनु। आसान काम करके महान् नहीं बना जा सकता।
…अपने लिये जीवन के नये रास्ते गढ़ने वाला ही महान् बन पाता है, बाकी लोग तो उसके अनुयायी बन कर रह
जाते हैं।…आज जय अंकल न जाने क्यों बार बार याद आ रहे हैं?
जय अंकल यह क्यों नहीं समझ पाते कि अपने संदर्भों में तो मैं भी नयी राह बना रही थी। मैं भी तो समाज की
परवाह किये बिना आया बनने को तैयार हो गयी थी। जय अंकल एक बात नहीं समझ पाते, यदि मैं उन की सारी
बातें मानने लगूं, तो उनकी भी तो अनुयायी बन जाऊंगी।…फिर कौन सी नई राह होगी मेरी?…
मुझे अपनी राह पसन्द थी।…विवाह के एक वर्ष बाद ही अपूर्व का जन्म हो गया और अगले ही वर्ष अंगद भी इस
संसार में आ पहुंचा था।…अनिल, अनुष्ठा, अपूर्व और अंगद! हिंदी और अंग्रेजी, दोनों ही भाषाओं का प्रथम
परिवार!दि ए फैमिली…अनिल प्रसन्न था ..परिवार खुश था।
जीवन में कोई भी वस्तु स्थाई क्यों नहीं होती? सड़क पर गड्ढे भी आते हैं फिर सड़क सपाट हो जाती है। विमान
में यात्रा करते समय खराब मौसम की डगमगाहट भी होती है, तो आनंदमयी सुखद उड़ान भी। डायना के जीवन में
गड्ढों का आगमन इसी समाचार से हुआ था कि उसके पति के जीवन में पहले से एक महिला थी दृ कैमिला
पारकर बोल्ज। भला यह कैसे हो सकता था कि मेरा जीवन ऐसी दुर्घटना से बच पाता! …वास्तव में शुरु शुरु में तो
मैं बहुत ही निराश हुई कि अनिल कितना भोंदू है, जिसके जीवन में मेरे अतिरिकत कोई और प्रेमिका ही नहीं। फिर
भला मैं डायना की तकलीफ को कैसे महसूस कर पाऊंगी। यह सोच सोच कर परेशान होती रहती थी कि डायना के
जीवन का यह प्रकरण मेरे जीवन में कैसे और कब आयेगा!…कितना रोमैंटिक विचार था …मैं डायना के प्रत्येक सुख
दुःख का अनुभव स्वयं कर लेना चाहती थी। यह सहन करना कितना कठिन था कि डायना तो कैमिला पार के
कारण दुःखी हो, और मैं इस अनभव से पूरी तरह वंचित रह जाऊं! किन्तु मुझे भी अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी।
मेरे जीवन का यह कठोर सत्य एक कोमल नाम लिये मेरे सामने आ खड़ा हुआ।
कोमल भाभी अनिल की दूर की रिश्तेदार थीं…उस से बस तीन चार वर्ष ही बड़ी रही होंगी…विधवा …दो बच्चों की
मां . देखने में कहीं से भी कोमल नहीं लगती थीं। किंतु अनिल चुपके चुपके उनमें कोमलता ढूंढता रहता था।
कोमल भाभी, सृष्टि और काजल …यह तीनों ही अनिल की सोच को घेरे रहते थे। अनिल ही तीनों का खर्चा भी
उठाते थे। …मुझे कभी कोई कमी नहीं होने दी…किंतु मैं क्षुब्ध थी जैसे मुझे कबाड़ी की दुकान से कोई पुरानी वस्तु
ला कर दे दी गई हो। मैं अपने पति के रूप में, एक बंटा हुआ आदमी नहीं चाहती थी।
डायना ने कम से कम अपने पिता से शिकायत तो अवश्य ही की होगी कि उसे कैमिला पारकर की उतरन क्यों दी
गई। मैं तो यह भी नहीं कर सकती थी…मैं तो पुरानी, इस्तेमाल की हुई वस्तु की चमक से ही इतनी प्रभावित हो
गई थी, कि उसे ही नई समझ बैठी थी।..बेचारी डायना! …राजकुमारी हो कर भी वही सब कुछ भुगतती रही जो
मुझ जैसी मध्यवर्गीय दुखियारी भुगत रही थी। उसने भी अवश्य यही सवाल पूछा होगा,यह सब क्या चल रहा है?
क्या चल रहा है?
यह कोमल भाभी के साथ आपका क्या संबंध है?
वो भाभी हैं मेरी य बस और क्या?
मैं, हर बात सच सच जानना चाहती हूं?
जो सच है, वही तो बता रहा हूं।
यह सच जमाने के लिये है।…मैं ठोस सच्चाई जानना चाहती हूं।
मुझे बिजनस की उलझने ही सांस नहीं लेने देतीं अनु, तुम मेरे दिमाग को फिजूल की बहस में न उलझाओ।
मैं दिमाग के बारे में कुछ नहीं कह रही। मेरा सवाल तो तुम्हारे दिल को ले कर है।
क्या मतलब?
देखो अनिल, मैं तुम्हारे दिल पर एकछत्र राज करना चाहती हूं। मुझे आधा अधूरा पति स्वीकार नहीं।
यह क्या बेवकूफों की सी बातें कर रही हो तुम?
बेवकूफ तो अब तक बनी रही… मैं सच्चाई जानना चाहती हूं।
अरे मेरी जानू, तुम तो नाहक ही परेशान हो रही हो। मैं तो तुम्हारे सिवाय किसी और से प्यार कर ही नहीं सकता।
…तुम और हमारे दोनों बच्चे ही मेरी जिंदगी का एकमात्र मकसद हो…भला मैं तुम्हारे अलावा किसी और के बारे में
सोच भी कैसे सकता हूं।यह कह कर अनिल ने मुझे अपनी बाहों में भर कर अपने सीने से चिपटा लिया था … और
मैं एक बार फिर बेवकूफ बन गई थी।…ठगी गई थी।…लन्दन में भी यही हुआ होगा…भला इसके अतिरिक्त और
कुछ हो भी कैसे सकता है। सभी मर्दों की चाल एक सी ही तो होती है।
किन्तु ऐसी चालें बहुत दिनों तक चलती नहीं हैं। झूठ का पर्दा इतना महीन और कमजोर होता है कि सच्चाई की
हल्की सी छुअन भी उसे उखाड़ फैंकती है। अनिल की कोमल सी भाभी अपने प्यारे से देवर के साथ कोमल
भावनाओं में जकड़ी हुई थी, जब अचानक मां जी ने उन्हें देख लिया। मां जी का संयमित क्रोध अपने पुत्र पर बरस
रहा था, डर था कहीं बहु न सुन ले…।.. बसा बसाया घर न उजड जाये।.. बेचारी मांजी! …उन्हें क्या मालूम कि
अपने बच्चों की बेहूदगियों और बदतमीजियों की खबर माता पिता को सब से अंत में पता चलती है। उन की बहु
तो पहले से ही अपने परिवार की नींव में घुसा पानी देख चुकी है। मांजी कितनी सुखी थीं जो अब तक उस बाढ़ के
वेग से बेखबर बैठी थीं।
इसी बेखबरी में वे अपने सुपुत्र से सवाल जवाब कर रही थीं -तुझे जरा भी लाज नहीं आई कलमुंहे य अपने ही घर
में यह कुकर्म करते हुये?
हुआ क्या है मां?… मैं तो बस भाभी को बाम लगा रहा था। उनकी पीठ में थोड़ा दर्द हो रहा था?कोमल भाभी
ढिठाई से मुस्कुराये जा रही थीं।
मैं सब समझती हूं बेटा…नौ महीने तुझे पेट में रखा है…आइंदा कोमल को ऐसा दर्द न ही हो तो अच्छा है। यह तो
अच्छा हुआ कि बहू मायके गई हुई है, नहीं तो न जाने क्या गजब हो जाता। फिर क्या कमी है अपनी बहू में?
अपनी मर्जी से तूने शादी की है? अपने खानदान की इज्जत का कुछ तो लिहाज किया होता। अब इस अफसाने को
यहीं खत्म कर दे। अब न तो कोमल कभी इस घर में आयेगी और न तू कभी इस के घर जायेगा। आई बात समझ
में?
क्या बात समझ में आना इतना ही आसान होता है? क्या लन्दन के बकिंगहम पैलेस की मां ने अपने पुत्र को यही
सब नहीं समझाया होगा। फिर वोह तो राजघराना है। राजघराने की अपनी मर्यादा होती है, परंपराएं होती हैं। वहां के
बाशिन्दे आम आदमी की तरह कहां बर्ताव कर सकते हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि रानी मां ने अवश्य ही अपने पुत्र
की खबर ली होगी। किन्तु यह पुत्र किसी की सुनने वाले हैं कहीं!…राजकुमार ने भी जन संपर्क की दुहाई दी होगी।
डायना का अहम् कितना आहत हुआ होगा। उसका अपना राजकुमार, उसका पति केवल उस का हो कर नहीं रह
सकता! उस आदमियों वाली शक्ल लिये महिला में ऐसा क्या मिलता होगा राजकुमार को, जो अपनी खूबसूरत पत्नी
का इतना निरादर करने से भी नहीं चूकता!
निरादर तो मेरा हो रहा था। जो बात अब तक दरवाजों के पीछे बन्द थी, छिपी हुई थीय वह अब खुले आम होने
लगी थी। मां के समझाने का असर कुछ उल्टा ही हुआ था। एक आदमियों की शक्ल वाली महिला ने मेरे जीवन को
भी तहस नहस कर के रख दिया था। किन्तु, यदि कोमल भाभी सुन्दर होतीं तो क्या अनिल के व्यवहार को सही
करार दिया जा सकता था? क्या पति पत्नी के सम्बन्धों में गहराई का कोई अर्थ नहीं होता? यदि मुझे कोई ऐसा
व्यक्ति मिल जाता जो कि अनिल से अधिक मालदार या सुन्दर होता, तो क्या मेरा व्यवहार भी अनिल जैसा हो
सकता था? नहीं! …मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकती थी। क्या अब सोच सकती हूं?
इसके लिये तो मुझे अपनी इष्ट देवता की ओर देखना था। मेरी सबसे विकट समस्या यह थी कि मेरी इष्ट देवता
मुझ से हजारों मील दूर एक सोने के महल में रहती थी।…रहती थी या कैद थीय यह मैं नहीं जानती थी। मेरा
उससे एकतरफा संवाद था। मेरा जब जी चाहता उससे बतिया लेती। उसकी प्रतिक्रिया दृ अपने पति के प्रति, या
फिर अपने हालात के प्रति या फिर अपनी सास के प्रति दृ सब का हाल केवल समाचार पत्रों के माध्यम से ही तो
पता चलता था। भला अपनी अभीष्ट के मन के भीतर का हाल कैसे जान पाती! मन के भीतर कहीं यह भी महसूस
होने लगा था जैसे हम दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं य या फिर एक ही पहलू भी तो कहला सकते थे। मेंने
बहुत बार सोचा भी कि शायद मैं ही अपनी परिस्थितियों से जूझते हुये कोई ऐसा हल ढूंढ लूं जो कि सम्भवतः
डायना के भी काम आ सके। किन्तु डायना तो मुझ से पहले ही हर स्थिति का सामना करने के लिये विवश थी।
विवशता तो नारी के व्यक्तित्व का एक अभिन्न अंग है। इसी विवशता के विरुध्द बीड़ा उटाने की ठानी होगी लेडी
डायना ने। अपने पति को समझा समझा कर थक गई होगी। फिर उस की सास भी तो कोई छोटी मोटी औरत
नहींदृरानी है ब्रिटेन की। हमारी मेनका ही कहां लड़ पाई अपनी ताकतवर सास के विरुध्द! कहां तो एक ओर वह
भारत के भावी प्रधानमन्त्री संजय गान्धी की पत्नी थीय कहां आजकल एक स्वतन्त्र उम्मीदवार की हैसियत से
लोकसभा की सदस्या है और इन्सानों के बजाये जानवरों और पेड़ पौधों की लड़ाई लड़ रही है।
लड़ाई लड़ना तो कोई डायना से सीखे। क्या ठसके से जीती थी और क्या ठसके से सामने वाले से लोहा लेती थी।
राजघराने की ईंट से ईंट बजा कर रख दी थी। समाचार पत्र की एक खबर ने तो मुझे डायना का और भी बड़ा मुरीद
बना दिया था। एक धमाका कर दिया था मेरी मार्गदर्शक ने। जब राजकुमार के महल में एक पार्टी चल रही थी,
लेडी डायना बाहर अपने ही महल के बगीचे में अपने प्रेमी, आर्मी के मेजर की बाहों में प्रेम का रस लुटा रही थी।
उसने साबित कर दिया था कि प्रेम केवल राजकुमार चार्ल्स की बपौती नहीं है। यदि पति विवाहित होने के बावजूद
अपनी प्रेमिका के साथ गुलछर्रे उड़ा सकता है, तो वह आंसू बहाती, दुःख उठाती, नारी का किरदार निभाने को बाध्य
नहीं है।
बाध्य तो मैं भी नहीं थी कि मैं लेडी डायना की हर बात का अन्धा-धुन्ध पालन करूं। किन्तु जब मैने उसे अपना
आदर्श मान ही लिया था, तो मेरे पास और कोई विकल्प ही कहां बचा था। मेरे और अनिल के बीच एक शीत युध्द
चल ही रहा था। उसकी माताजी भी मुझे ही परिवार की इज्जत का वास्ता दे रही थीं। उनकी घर की इज्जत के
टुकडे तो उनका सुपुत्र उड़ा रहा था और लेक्चर सुनने को मुझे मिल रहे थे। मैंने मन ही मन निर्णय ले लिया था
कि अनिल से मैं ठीक वैसे ही बदला लूंगी जिस तरह लेडी डायना ने अपने ही बगीचे में अपने प्रेमी के साथ रति
क्रीड़ा कर के लिया था। …सवाल यह उठ रहा था कि मैं प्रेमी कहां से लाऊं!
लड़कों को हमेशा यह गलतफहमी बनी रहती है कि उन्होंनें कोई लड़की फंसा ली है। कोई भी लड़का किसी भी
लड़की को तब तक नहीं फंसा सकता जब तक कि लड़की स्वयं फंसने को तैयार न हो! मैं तो यहां तक कहूंगा कि
एक लड़की जब चाहे किसी भी लड़के को अपनी ओर आकर्षित कर सकती है, उसे जरा भी मेहनत करने की
आवश्यक्ता नहीं। क्योंकि लड़के तो पहले ही फंसने को बेचैन खड़े होते हैं। उन्हें तो बस कोई फंसाने वाली चाहिये।
जय अंकल एक बार फिर मेरी सहायता करने आ पहुंचे थे।
तो क्या मुझे केवल इशारा भर करना था, और कोई भी मेरा प्रेमी बनना स्वीकार कर लेता? मैं क्यों चिन्ता करती?
मुझे कौन सा उससे विवाह करना थाय या फिर उसे अपना सच्चा प्रेमी बनाना था! मेरे लिये तो वह केवल मेरे
इन्तकाम का एक माध्यम भर बनने वाला था। मुझे तो यह भी नहीं मालूम था कि मैं उस के साथ सहवास का
आनंद भी उठा पाऊंगी या नहीं।
आनंद सहवास का उठाया या नहीं, इसके बारे में तो कुछ भी कह पाना कठिन है। किन्तु इतना अवश्य कह सकती
हूं कि उन विशेष क्षणों में अनिल से बदला लेने की भावना ने मेरे व्यवहार को खासा उग्र बना दिया था। विजय
अनिल के खास मित्रों में से एक है। अनिल के दोस्तों में एक वही तो है जो देखने में ठीकठाक लगता है। मुझ से
कभी भी आंखें मिला कर बात नहीं कर पाता। उसकी आंखों में मैंने हमेशा ही अपने लिये एक खामोश तारीफ
महसूस की थी। इसलिये मेरे बदले का हथियार उससे अधिक कारगर कोई भी और हो ही नहीं सकता था। उसे तो
विश्वास ही नहीं हुआ जब मैंने उसकी ओर निमन्त्रण भरी निगाहों से देखा। वह तय नहीं कर पा रहा था कि यह
सब सच है या केवल एक सपना।
घर में अनिल के जन्मदिन की पार्टी थी। अनिल का चालीसवां जन्मदिन! अनिल के दोस्त रह रह कर एक ही
जुमला बार बार दोहरा रहे थे,लाईफ बिगिन्स एट फार्टी! अनिल की लाईफ चालीस पर नया मोड़ ले रही थी या नहीं,
यह तो वह ही जाने। किन्तु मेरा जीवन उसी रात एक नई करवट लेने वाला था। और इस बात को मेरे अतिरिक्त
और कोई नहीं जानता थाय मेरी मानसिक हमसफर लेडी डायना भी नहीं।
मेरे सामने सैंकडों बार अपनी पत्नी की तारीफें करने वाला विजयय दोस्तों में पत्नीव्रत कहलाने वाला विजयय एक
पुरातन विचारधारा वाले परिवार का लड़का विजयय अनिल को गैर औरत से सम्बन्ध रखने के लिये डांटने वाला
विजयय मेरे मौन निमन्त्रण को वह पल भर में ही समझ गया था और अपनी पतिव्रता पत्नी तथा मेरे गैर-
जिम्मेदार पति को नीचे हॉल में व्यस्त छोड मेरे साथ मेरा बदला लेने ऊपर मेरे बेडरूम में पहुंच गया था। मुझे
बहुत दिनों बाद याद आया था कि मेरी आंखें, मेरे बाल, मेरी त्वचा, मेरे होंठ, मेरी छातियां यानि के मेरा संपूर्ण
बदन ही बला का खूबसूरत है। विजय उन्माद के उन क्षणों में मेरे अंगों को चूमता जा रहा था और उनकी तारीफें
करता जा रहा था। हम दोनों ने मिल कर डायना के पाठ को अच्छी तरह से पढ़ा और याद किया। और हमें बेडरूम
से इकठ्ठे निकलते हुये अनिल ने देख लिया। उस दिन भाग्य पूरी तरह से मेरे साथ था।
अब अनिल की बारी थी। वह कोंच कोंच कर सवाल कर रहा था कि विजय और मैं इकठ्ठे बेडरूम में क्या कर रहे
थे? और मेरा जवाब एकदम सीधा सादा था, आजकल मैं तुम से कहां पूछती हूं कि तुम बन्द कमरे में कौन से
कोमल कर्म करते रहते हो। उस हिसाब से तो तुम्हें भी कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिये कि मैं और विजय कमरे में
क्या कर रहे थे।
अनिल दांत पीस रहा था और मैं उस की बेबसी का आनंद उठा रही थी। मैं अच्छी तरह जानती थी कि विजय और
मेरे बारे में कोई भी अखबार समाचार नहीं छापेगा। मन ही मन इस बात पर विचार भी कर रही थी कि यदि मुझे
विजय के साथ अनिल ने देखा ही नहीं तो मेरे बदले का क्या होगा। अनिल से बदला लेने में जहां एक ओर डायना
मेरा साथ दे रही थी वहीं दूसरी ओर मेरी किस्मत भी अनिल की बेबसी का मजाक उड़ा रही थी।
काश! मैं जान पाती जब राजकुमार को मालूम हुआ होगा कि डायना अपने प्रेमी के आगोश में राजकुमार की पार्टी
का जश्न मना रही थी,तो उसके दिल पर क्या गुजरी होगी। अनिल के दिल की हालत देख कर मैं कूछ कुछ
अन्दाज तो लगा रही थी कि राजकुमार कैसे झुंझलाया होगा, बेबसी में तड़पा होगा। एक मामले में तो सभी मर्द
एक से होते हैं। जैसे ही उन्हें शक होता है कि उनकी पत्नी के किसी से सम्बन्ध हैं तो उन्हें अपने सिर पर एक
जोड़ी सींग दिखाई देने लगते हैं। चाहे स्वयं हर रोज किसी नई लड़की से चक्कर चलाते रहें।
मांजी और अनिल में खुसर फुसर दिखाई भी दे रही थी और सुनाई भी। बीच बीच में विजय का नाम भी कानों में
पड़ा। जैसे कोई षड़यन्त्र रचा जा रहा हो। अब परवाह किसे थी। मैने तो गुरु मंत्र ले ही लिया था। वैसे तो राजमहल
में भी इतनी क्या राजनीति हुई होगी जो हमारे घर में हो रही थी। क्ई दिनों तक अनिल रात को सोने के लिये मेरे
कमरे में नहीं आया। विजय का घबराई सी आवाज में फोन भी आया था,भाभी जी, अनिल मेरे पीछे हाथ धो कर
पड़ गया है।
अरे, आप इतने में ही घबरा गये? और फिर मैं अचानक डार्लिंग से भाभी जी कैसे बन गयी?मैंने अपनी आवाज में
जैसे मादकता उंडेल दी थी।
यह मजाक की बात नहीं है, अनु जी। उसने तो मेरे पाछे जासूस लगा दिये हैं। एकदम फिल्मी स्टाइल में।
और आप इतनी सी बात में घबरा गये! ऐसे भी भला कोई प्यार करता है!…अच्छा बताइये कब मिल रहे हैं? बैठ
कर मसला भी सुलझा लेंगे, और……!मेरी खनकती हुई हंसी टेलीफोन की तार पर सवार हो कर विजय के पौरुष को
हौसला देने लगी। और बेवकूफ विजय खट से मुझे एक थ्री स्टार होटल के कमरे में मिलने के लिये तैयार हो गया।
मुझे अच्छी तरह मालूम था कि मैं कितनी देर में होटल से बाहर निकलूंगी। मैंने आवाज बदल कर अनिल को वही
समय दे कर सूचना दी कि वह अपनी पत्नी को किसी पराये पुरुष के साथ वहां देख सकता है। डायना को
एकसेलेब्रिटीहोने का कितना सुख था। वह कितनी आसानी से अखबारों की सुर्खियों में आ सकती थी। उसे प्रिंस
चार्ल्स को बताने तक की आवश्यक्ता नहीं थी कि उसका नया प्रेमी कौन है। राजकुमार को अगले दिन का समाचार
पत्र ही समझा देते थे कि कौन उसेककॉल्डबना रहा है।
ककॉल्डबना अनिल होटल की लॉबी में चक्कर लगा रहा था जब मैं और विजय होटल से बाहर निकल रहे थे। मैंने
चोर निगाह से देख लिया था कि अनिल किसी जासूस की तरह हमारा पीछा कर रहा है। मैं विजय को लेकर एक
डिपार्टमेन्ट स्टोर में घुस गई। अनिल के चक्कर में बेचारे विजय को पच्चास हजार का चूना लग गया। मेरी पसन्द
की कोई भी वस्तु सस्ती तो हो ही नहीं सकती। मुझे अनिल पर दया भी आ रही थी और क्रोध भी। अरे, कोई
तुम्हारी पत्नी को तुम्हारे सामने घुमा रहा है और तुम केवल जासूसी में लगे हुये हो! तुम्हारी मर्दानगी क्या मर गई
है! लानत है ऐसे मर्द पर! उसकी रगों का खून सचमुच ठण्डा हो चुका था।
किन्तु राजकुमार ने ही कहां डायना को कहीं रंगे हाथों पकडने की हिम्मत दिखाई। क्या सारे मर्द एक से ही होते
हैं? क्या इस सदी के सभी मर्द नामर्द हो चुके हैं? समाचार पत्रों को पढ़ने के बाद तो प्रिंस चार्ल्स ने भी यही किया
होगा,
तुम कल वर्ली गई थीं?
जी हां गई थी। कुछ काम था क्या?
किस के साथ गई थी? अनिल क्रोध में पागल सा हो रहा था। और मैं एक बार फिर उसकी बेबसी का आनन्द ले
रही थी।
आप भी तो वहीं थेय आपने देखा नहीं? अब यह चूहे बिल्ली के खेल बन्द करो अनिल। जो कहना और करना है
खुल कर करो। मैं बेशर्मी पर उतर आई थी।
देखो अनु, अब भी अपने आप को संभाल लो। नहीं तो मुझ से बुरा कोई न होगा।
ना होय इससे मुझे क्या फर्क पड़ता है। वैसे अगर बुरे बनने के बजाय अच्छे बन कर दिखा सको तो हमारा परिवार
टूटने से बच सकता है।
तुम कहना क्या चाहती हो?
देखो अनिल, मैं तुम्हें क्ई बार कह चुकी हूं कि मैं तुम्हें कोमल के साथ या किसी भी और कुतिया के साथ बांट
नहीं सकती। अपनी बेहूदगियों के लिये माफी मांगो और उस बिच का साथ छोड दो। तभी और केवल तभी हमारा
घर बच सकता है। मेरी आवाज की दृड़ता से जैसे अनिल कहीं भीतर तक हिल गया था।
ओह शिट! बस इतना कह कर अनिल कमरे से बाहर चला गया। मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट थी। एक विजयी मुस्कान!
इतनी परेशानियों में भी डायना गरीब और मजलूमों के लिये समय निकाल ही लेती थी। समाचार पत्रों में उसकी
तस्वीरें गरीब बच्चों के साथ, एड्स रोगियों के साथ या फिर बारूदी सुरंगों के चक्कर में, कहीं न कहीं तो दिखाई दे
ही जाती थीं। अपनी औकात के अनुपात में मैने भी मुंबई के टाटा अस्पताल में जा कर कैंसर रोगियों की देखभाल
का काम शुरू कर दिया। इसके दो फायदे थे। एक तो घर से निकलने का बहाना हो जाता था और दूसरे अब मेरे
काम के चर्चे भी अखबारों में होने लगे थे। पत्रकारों को कॉकटेल पार्टी दे कर फोटो छपवाने की कला मुझे अजमानी
ने सिखाई थी। वह तो हर वर्ष ना जाने कितने पुरस्कार बांटता रहता है। साल भर मे आठ दस बार तो अखबार में
उसकी सूरत दिखाई दे ही जाती है। आजकल विजय के स्थान पर अनिल से बदला लेने में अजमानी मेरी सहायता
कर रहा था। डायना के दिये सबक के नक्शे कदम पर चल रही थी। प्रेमी बदलना भी तो मेरी मजबूरी थी।
अनिल को अब मेरी सूरत भी अच्छी नहीं लगती थी। राजकुमार की ही तरह उसकी भी मजबूरी थी कि वह मुझसे
तलाक ले ले। तलाक का नोटिस मिलते ही मैं हिसाब लगाने में जुट गई कि डायना को तलाक के बाद जायदाद का
कितना हिस्सा मिला था …और मुझे क्या मिलने वाला है। अब मेरे लिये अपने प्रेमियों के नम्बर याद रख पाना भी
संभव नहीं हो पाता था। याद नहीं पड़ता कि इकबाल मेरा प्रेमी नम्बर कितना था!
एक बात मुझे हर वक्त कचोटने लगी थी दृ आजकल अनिल मेरी किसी भी हरकत से आहत नहीं होता था।
दरअसल उसने मेरे व्यक्तितव की पूरी तरह से अवहेलना शुरू कर दी थी। अब उसे कोई फर्क ही नहीं पड़ता था कि
मैं किस के साथ घूम रही हूं या सो रही हूं। जब लोग उस के मुंह पर भी कहने लगे कि उसकी बीवी टेक्सी है, वह
तब भी चुप्पी साधे रहता। मुझे अपने आप पर कोफ्त होने लगी थी।
एक बार फिर डायना के जीवन पर निगाह डालती हूं।…फिर सोच में पड़ जाती हूं …आज तो जय अंक्ल भी मेरी
सहायता के लिये आगे नहीं आ रहे।…जय अंक्ल, प्लीज!… मुझे यूं अकेला न छोड़िये …मुझे इस समय आप की
बहुत जरूरत है। मुझे समझाइये जय अंक्ल मुझ से कहां गल्ती हो गई! मैंने तो डायना को अपने जीवन का आदर्श
बनाया। जो जो कुछ डायना ने किया वोह सब मैंने भी किया। ठीक उसी की तरह पहले आया बनी य राजकुमार से
विवाह कियाय अपने ही घर में अपने प्रेमी के साथ हमबिस्तर हुईय क्ई प्रेमी बदले मैंने भी, कैंसर के रोगियों की
सहायता की, पति के मान सम्मान की कोई परवाह नहीं कीय परिवार के लिये विवाद खड़े करती रही। डायना तो
मरी भी अपने प्रेमी डोडी के साथ ही।
यह सब करने के बावजूद लोग उसे सन्त बनाने पर तुले हैं। मदर टेरेसा के मुकाबले डायना की मृत्यु की भी कहीं
अधिक चर्चा हुई। फिर वही सब करने के बाद मुझे ऐसा क्यों महसूस होने लगा है कि मैं एक वेश्या बन गई हूं?