बेशक द्रमुक नेता दयानिधि मारन ने चार साल पहले उप्र और बिहार का अपमान किया था। उन्होंने कहा था कि इन राज्यों के लोग शौचालय और सडक़ साफ करने के लिए तमिलनाडु आते हैं। वे बुनियादी तौर पर निर्माण-मजदूर हैं। मुख्यमंत्री स्टालिन ने हिंदी-विरोध में आपत्तिजनक बयान दिया है। उनके मंत्री-पुत्र ने ‘सनातन’ को खत्म करने का आह्वान किया था। कुछ द्रमुक सांसदों ने सनातन को डेंगू, एड्स और कोढ़ आदि करार दिया था। एक सांसद ने तो लोकसभा में बयान दे दिया था कि भाजपा सिर्फ ‘गोमूत्र वाले राज्यों’ में ही चुनाव जीतती है। यह दीगर है कि उन्होंने अपने बयान पर माफी मांगी और उसे वापस लिया। भारत की आजादी के 76 साल बाद भी ‘उत्तर बनाम दक्षिण’ के गालीनुमा बयान सुनने को क्यों मिलते हैं? यदि उप्र, बिहार बनाम तमिलनाडु के बीच विभाजन और नफरत की दरारें हैं, तो भारत विविधताओं वाला देश कहां है? वाराणसी में ‘काशी तमिल संगमम’ के आयोजन क्यों होते रहे हैं?
दक्षिण भारतीय लोग दिल्ली और हिंदी पट्टी के क्षेत्रों में काम क्यों करते हैं? बसे हुए क्यों हैं? क्या भारत एक संप्रभु और संगठित देश नहीं है? दयानिधि मारन केंद्रीय मंत्री रहे हैं और अब लोकसभा सांसद भी हैं। उन्हें उत्तर भारत में यह संवैधानिक और अति विशिष्ट रुतबा क्यों हासिल है? दरअसल उनका पुराना बयान नए सिरे से प्रासंगिक हो गया है, क्योंकि उनकी द्रमुक पार्टी विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ की घटक है। उप्र और बिहार को शौचालय साफ करने वालों के राज्य चित्रित करने पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, राजद प्रमुख लालू यादव और उप्र के पूर्व मुख्यमंत्री एवं सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव आदि खामोश क्यों हैं? हकीकत यह है कि यदि उप्र और बिहार के मानव संसाधन देश के दूसरे राज्यों में न जाएं, तो बहुत कुछ निष्क्रिय हो सकता है। कारोबार और फसलों की कटाई के काम ठप्प हो सकते हैं।
कई संदर्भों में हुक्का-पानी तक बंद हो सकता है। शौचालय साफ करने और सडक़ निर्माण करने वाले मजदूरों के राज्यों का यथार्थ यह है कि उप्र से 13.5 फीसदी और बिहार से 8.5 फीसदी आईएएस अधिकारी देश को मिलते हैं। ये सर्वाधिक आंकड़े हैं। तमिलनाडु में करीब 1.5 करोड़ उत्तर भारतीय बसे और काम करते हैं। वहां की सरकार में भी उच्च और मझोले स्तर के अधिकारियों की संख्या भी ज्यादातर उत्तर भारतीयों की है। तमिलनाडु में अकेले बिहार से ही 25 से अधिक आईएएस और आईपीएस अधिकारी सेवारत हैं। तमिलनाडु के नेताओं को अपने सामाजिक-आर्थिक विकास और समझदारी का परिचय देते हुए उप्र और बिहार की अर्थव्यवस्था को भी समझना चाहिए। दोनों राज्यों की कुल जीडीपी 33 लाख करोड़ रुपए से अधिक है, जबकि तमिलनाडु की करीब 28 लाख करोड़ रुपए है। दरअसल देश का संविधान ऐसी गाली, नफरत और भेदभाव की अनुमति नहीं देता। उप्र, बिहार और तमिलनाडु भारत गणराज्य के ही हिस्से हैं। वे एक ही लोकतांत्रिक परिवार के सदस्य हैं। संविधान के मुताबिक, प्रत्येक नागरिक, किसी भी राज्य में, निवास और व्यवसाय कर सकता है। उन पर राज्यों की सीमा और भाषा की कोई पाबंदी नहीं है। तमिलनाडु अहिंदी भाषी राज्य है।
वहां हिंदी-विरोध के आंदोलन भी छिड़े हैं। वे हिंदी को राष्ट्रभाषा और राजभाषा की मान्यता नहीं देते, लिहाजा हिंदी पट्टी से भी नफरत करते हैं। उनकी सोच और गालियों से क्या होता है? वे देश का संविधान नहीं हैं। देश के विकास में उप्र और बिहार का भी योगदान है, तो तमिलनाडु भी भारत के हिस्से से बहुत कुछ हासिल करता है। मारन सरीखों के बयान निंदनीय और शर्मनाक हैं। चूंकि द्रमुक सरीखी दक्षिण भारतीय पार्टियों के जनाधार उत्तर भारत में नहीं हैं और भाजपा सरीखी हिंदी पट्टी की पार्टियों का विस्तार दक्षिण में नगण्य ही है। कर्नाटक और तेलंगाना में भाजपा के कुछ गढ़ हैं, लेकिन इसी आधार पर उप्र, बिहार को गाली नहीं दी जा सकती। शायद द्रमुक वालों ने महात्मा गांधी को नहीं पढ़ा। यदि गांधी का अनुसरण किया होता, तो वे शौचालय की बात इस ढंग से नहीं कहते।