जी-20 शिखर सम्मेलन के ‘नई दिल्ली घोषणा पत्र’ में, युद्ध के संदर्भ में, सिर्फ यूक्रेन का ही उल्लेख क्यों किया गया? युद्ध एकतरफा नहीं हुआ करते। उनकी विभीषिकाएं और प्रभाव भी चौतरफा होते हैं। यूक्रेन पर रूस ने आक्रमण किया था, यह वैश्विक तथ्य है, लेकिन आज यूक्रेन भी, पश्चिमी और यूरोपीय देशों की सैन्य मदद पाकर, मास्को तथा अन्य बड़े शहरों पर ड्रोन हमले कर रहा है। रूस के भी अभी तक 2.5 लाख से अधिक सैनिक मारे जा चुके हैं। तोपखाने, जहाज, बख्तरबंद वाहन और शस्त्रागार आदि कितने ध्वस्त हुए हैं, उनकी संख्या भी हजारों में है। यूक्रेन का अधिकांश क्षेत्र तो खंडहर बन चुका है। यूक्रेन अमरीका और नाटो देशों की ‘कठपुतली’ बना है और ‘बलि का बकरा’ बनना उसकी नियति है। युद्ध से मिट्टी-मलबा हुए शहर, गांव और इलाकों के पुनर्निर्माण कब तक होंगे, ऐसा कोई आकलन सामने नहीं आया है। युद्ध ने गेहूं, खाद्य तेल, उर्वरक, गैस आदि की, दुनिया की, प्रमुख सप्लाई चेन को तोड़ कर रख दिया है। रूस और यूक्रेन इन वस्तुओं के प्रमुख निर्यातक देश रहे हैं। नतीजतन वैश्विक संकट हमारे सामने है। यदि जी-20 शिखर सम्मेलन, युद्ध की भयावहता को लेकर, चिंतित होता, तो उसका सम्यक उल्लेख किया जाना चाहिए था।
रूस और चीन मंथन और विमर्श के दौरान अपनी असहमतियां जता सकते थे। इंडोनेशिया के बाली शिखर सम्मेलन ने युद्ध के लिए रूस की निंदा की थी। उसके घोषणा-पत्र की भाषा अपेक्षाकृत तीखी थी, लिहाजा बड़ी ताकतों का विभाजन अधिक गहरा और तीक्ष्ण हो गया था। रूस भारत का पुराना और आजमाया हुआ ‘दोस्त’ है, लिहाजा घोषणा-पत्र में जिक्र के कारण ही संबंध खटास में नहीं डाले जा सकते थे, नतीजतन भारत ने आर्थिक और स्थिर विकास पर फोकस रखते हुए संतुलन साधने का प्रयास किया। बेशक जी-20 अर्थव्यवस्था और विकास का ही सबसे बड़ा मंच है, लेकिन दिल्ली घोषणा-पत्र में जो किया गया, वह बहुत बड़ा झूठ और छद्म कूटनीति का उदाहरण है। रूस-यूक्रेन युद्ध आज भी जारी है। भारत अपने मित्र रूस को युद्ध समाप्त करने को सहमत नहीं कर सका है। नई दिल्ली जी-20 में रूस-चीन के प्रतिनिधियों ने ऐसे घोषणा-पत्र से साफ इंकार कर दिया था, जिसमें युद्ध के लिए रूस की निंदा, भत्र्सना की जाती। अंतत: दिल्ली को ऐसी भाषा बुननी पड़ी, जो मास्को और बीजिंग को स्वीकार्य थी। हालांकि इसका उल्लेख भी किया गया कि क्षेत्रीय संप्रभुता और अखंडता का सम्मान किया जाए और उस पर किसी भी तरह का बल-प्रयोग न किया जाए। युद्ध के संदर्भ में जी-20 में सहमति और एकता दिखाई दी, लेकिन यह एकता तात्कालिक लगती है। सवाल यह भी है कि बाली घोषणा-पत्र की भाषा को नरम किए जाने पर पश्चिमी देश कैसे सहमत हो गए। वे तो रूस-चीन के प्रति काफी आक्रामक रहते आए हैं।
दरअसल वे महसूस करने लगे थे कि ग्लोबल साउथ के देशों में यूक्रेन के मुद्दे पर वे विमर्श की ताकत खो रहे हैं। हालांकि यूक्रेन पर रूस के हमले को लेकर अधिकतर विकासशील देशों ने पश्चिम के साथ ही वोट किए थे, संयुक्त राष्ट्र आम सभा में भी प्रचंड बहुमत रूस के खिलाफ था, लेकिन ग्लोबल साउथ के देश रूस पर चौतरफा पाबंदियां थोपने के निर्णयों के प्रति संकोची या विरोधी रहे हैं। उन्होंने युद्ध के नागरिक समाजों पर व्यापक प्रभावों पर फोकस रखने की पैरवी की है। इससे पहले कोरोना वैश्विक महामारी ने मानवीय समाजों को लगभग चकनाचूर कर दिया था। जी-20 में यूक्रेन को आर-पार का मुद्दा बनाने की बजाय पश्चिमी देशों ने नई दिल्ली और उभरती ताकतों के साथ काम करना चुना, ताकि ग्लोबल साउथ की चिंताओं और उसके सरोकारों पर ध्यान दिया जा सके। अमरीका की प्रत्यक्ष सोच यह थी कि रूस की तुलना में चीन पश्चिम के लिए ज्यादा खतरनाक है, लिहाजा उसने भारत और विकासशील तथा ग्लोबल साउथ के ज्यादा करीब आना तय किया, ताकि चीन का सीधा मुकाबला किया जा सके। यह भारत के कूटनीतिक वर्ग की कामयाबी है कि जी-20 के मंच पर यूक्रेन को लेकर भी विमर्श हुआ और उसे घोषणा-पत्र में स्थान दिया गया। बहरहाल जी-20 का आयोजन भारत की ख्याति और शक्ति में बहुत कुछ जोड़ गया। अब भारत अफ्रीकी देशों का ‘बेताज बादशाह’ भी करार दिया जा रहा है।