यस बैक, इस लापरवाही के छींटे सीधे मोदी सरकार पर पड़ सकते है

asiakhabar.com | March 13, 2020 | 1:12 pm IST
View Details

विकास गुप्ता

यस बैंक के संस्थापक राणा कपूर की गिरफ्तारी के साथ ही ऐसे तमाम तथ्य सामने आने शुरू हो गए हैं जो इस
बैंक के डूबने की कगार पर पहुंच जाने के कारण बयान कर रहे हैं। ये तथ्य हैरान करने और साथ ही यह बताने
वाले भी हैं कि यस बैंक के नीति-नियंता कर्ज देने के नाम पर किस तरह बंदरबांट कर रहे थे? बैंक के प्रमोटर
राणा कपूर को प्रवर्तन निदेशालय ने घोटालेबाजी के आरोप में गिरफ्तार कर लिया है और अदालत ने उसे 11 मार्च
तक न्यायिक हिरासत में रखने का आदेश भी दे दिया है परन्तु मूल सवाल यह है कि इस बैंक में धन जमा कराने
वाले आम नागरिकों को किस तरह यह बैंक अपना ही पैसा निकालने के लिए विभिन्न शर्तों से बांध सकता है? यह
पूरी तरह गैरवाजिब है। बैंकों को किराने की दुकानें या पेढी समझने वाले धन्ना सेठों को जनता की खून-पसीने की
कमाई की बैंकों में जमा रकमों को उनके ऐश और तफरीह का जरिया हरगिज नहीं बनाया जा सकता। बैंक किसी
भी देश के आर्थिक विकास की रीढ़ होते हैं और इनमें आम लोगों का यकीन इस तरह होता है कि मुसीबत के वक्त
अपनी रकम को पाने में उन्हें किसी तरह की समस्या नहीं आयेगी। कल तक हर शहर कस्बे में अपनी 1100
शाखाओं के माध्यम से लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करने वाले जुमले कहने वाला यस बैंक अचानक ही नो बैंक
बन कर उन्हीं लोगों से कह रहा है कि एक महीने में बस 50 हजार की रकम ही निकाल सकते हो!बहुत ही
अश्चर्जनक है कि एक धन्ना सेठ की कम्पनी दीवान हाऊसिंग फाइनेंस लि.से जिसने इसी बैंक से तीन हजार करोड़
रुपए का कर्ज लिया और इसे चुकाने के बदले बैंक के प्रमोटर राणा कपूर की अपनी एक घरेलू कम्पनी डू इट अर्बन
वेंचर्स इंडिया (प्रा) लिमिटेड को 600 करोड़ रु. का कर्ज अपनी एक सहायक गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनी से दिला
दिया। सवाल यह है कि क्या ये तीन हजार करोड़ रुपए का ऋण राणा कपूर ने खैरात में दिया था कि इसके बदले
में उसने अपनी पत्नी व बेटियों की कम्पनी के लिए 600 करोड़ रुपये का कर्ज ले लिया।
दरअसल भारत में बैंकिंग व्यवसाय बड़े ही सिलसिलेवार ढंग से पुराने ज़माने की दुकानदारी में बदला गया है।
निजीकरण का दौर चलने पर जिस तरह सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की उपेक्षा की गई और उनके द्वारा दिये गये
कर्जों 10 लाख करोड़ रुपए से अधिक के कर्ज बट्टे खाते में गये उसका लाभ निजी क्षेत्र के बैंकों ने प्रतियोगिता के
नाम पर उठाने की कोशिश की और आम जनता को अच्छी सेवा व लाभ के लालच में फंसा कर चन्द पूंजीपतियों
को मालामाल बनाने का काम किया और अपने ऐश करने का जरिया ढूंढा। पंजाब व महाराष्ट्र कोआपरेटिव बैंक
घोटाला ठीक इसी तर्ज पर किया गया। इस बैंक में अपना धन जमा करने वाले लोग अब दर-दर की ठोकरें खा रहे

हैं। तेजी से विकास करते अर्थ व्यवस्था वाले देश में बैंकों का ‘फेल’ होना बहुत ही खतरनाक और असाधारण घटना
होती है। इसका मतलब होता है कि बैंक बाजार के प्रभाव में नहीं बल्कि बाजार बैंक के प्रभाव में काम करता है।
ऐसा होने पर वित्तीय ढांचा चरमराने लगता है।आंखें बन्द करके बैंकों की नियामक प्रणाली से लापरवाही के लिए
जिम्मेदार कौन हो सकता है? जाहिर तौर पर इसका जवाब रिजर्व बैंक आफ इंडिया ही आयेगा। अतः रिजर्व बैंक ने
यस बैंक को बचाने के लिए स्टेट बैंक की मार्फत जो स्कीम तैयार की है वह निजी क्षेत्र के बैंकों में फैली अराजकता
का उत्तर नहीं हो सकती मगर एक तहकीकात होनी भी बहुत जरूरी है कि बैंकों से जो रोकड़ा उधार या कर्ज के तौर
पर जो रकम सम्पत्ति प्रबन्धन कम्पनियों को दी जा रही है कहीं उसका उपयोग शेयर बाजार में तो नहीं हो रहा है।
सरकार ध्यान दे कि यदि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को अब भी मजबूत नहीं बनाया गया तो आने वाले समय में हमें
कभी भी बहुत बहा झटका लग सकता है। इन बैंकों का भारत के सर्वांगीण विकास में सर्वाधिक योगदान रहा है।
इनकी कार्यक्षमता और दक्षता को बढ़ाने के लिए कर्मचारियों की पर्याप्त सेना भी जरूरी है जबकि जिस तरह इस
क्षेत्र के बैंकों का विलय हो रहा है उससे इनके कर्मचारियों की दक्षता घट रही है। ये बैंक सामाजिक बदलाव के एजेंट
इस तरह रहे हैं कि इन्होंने आजादी के बाद से भारत की तीस प्रतिशत जनता को खेती की जगह उद्योगों पर
निर्भर बनाया है। सरकार को समझाना चाहिए कि किसी भी घोटाले को 2 0 1 4 से पहले का बता कर अपनी
जवाबदारी से नहीं बचा जा सकता। इस लापरवाही के छींटे सीधे मोदी सरकार पर पड़ सकते है।


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *