मौसम की क्रूरता व इनसानी लापरवाही

asiakhabar.com | July 13, 2023 | 6:07 pm IST
View Details

-कुलभूषण उपमन्यु-
वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन ने अपना क्रूर चेहरा दिखाना शुरू कर दिया है। हिमाचल प्रदेश में जुलाई में 200 प्रतिशत ज्यादा बारिश हुई है। यही हाल उत्तराखंड का है। हिमाचल के मंडी, कुल्लू, चंबा, शिमला, सिरमौर में जान-माल की अप्रत्याशित तबाही दिल दहला देने वाली है। मृतकों की संख्या 80 हो गई है। जगह-जगह लोग प्रकृति के क्रोध के शिकार हो कर असहाय अनुभव कर रहे हैं। सरकार मरहम लगाने की कोशिश कर रही है, किन्तु साल दर साल बढ़ती बाढ़ की विभीषिका कई सवाल खड़े कर रही है। जलवायु परिवर्तन के असर की भविष्यवाणी तो कई सालों से की जा रही है और जिसके चलते हिमालय जैसे नाजुक पर्वत क्षेत्र में उचित सावधानियां क्यों नहीं उठाई गई हैं। सैंकड़ों पर्यटक जगह जगह फंसे पड़े हैं। ईश्वर का शुक्र है कि सब सुरक्षित हैं। सरकार भी उनकी समस्याओं के प्रति संवेदनशील होकर कार्रवाई कर रही है, किन्तु बरसात में पर्यटन को किस तरह दिशा निर्देशित किया जाना चाहिए, इस बात की कमी खलती है। पर्यटन सूचना केन्द्रों का नेटवर्क सक्रिय होना चाहिए जो बरसात के खतरों से अवगत करवाए। मंडी में हुई तबाही के पीछे लारजी और पंडोह बांधों से अचानक छोड़ा गया पानी भी जिम्मेदार माना जा रहा है। बांधों के निर्माण के समय बाढ़ नियंत्रण में बांधों की भूमिका का काफी प्रचार किया जाता रहा है, किन्तु देखने में तो उल्टा ही आ रहा है। बांधों से अचानक और बड़ी मात्रा में छोड़ा जा रहा पानी ही अप्रत्याशित बाढ़ का कारण बनता जा रहा है।
बरसात से पहले बांधों में बाढ़ का पानी रोका जा सके, इसके लिए बांधों को खाली रखा जाना चाहिए, किन्तु अधिक से अधिक बिजली पैदा करने के लिए बांध भरे ही रहते हैं। बरसात आने पर पानी जब बांध के लिए खतरा पैदा करने के स्तर तक पहुंचने लगता है तो अचानक इतना पानी छोड़ दिया जाता है जितना शायद बिना बांध के आई बाढ़ में भी न आता। इन मुद्दों की निष्पक्ष जांच होनी चाहिए और बांध प्रशासन को निर्देशित किया जाना चाहिए। बांधों की बाढ़ नियंत्रण भूमिका को सक्रिय किया जाना चाहिए। दूसरा बड़ा गड़बड़ सडक़ निर्माण में हो रही लापरवाही से भी हो रहा है। निर्माण कार्य में निकलने वाले मलबे को निर्धारित स्थानों, डंपिंग स्थलों में न फेंक कर यहां-वहां फेंक दिया जाता है और वही मलबा बाढ़ को कई गुणा बढ़ाने का कारण बन जाता है। मलबा जब एक बार नीचे ढलानों पर खिसकना शुरू होता है तो अपने साथ और मलबा बटोरता जाता है, जिससे भारी तबाही का मंजर पेश हो जाता है। नदी-नालों में जब यह मलबा पहुंचता है तो नदी का तल ऊपर उठ जाता है और वे क्षेत्र जो पहले कभी बाढ़ की जद में नहीं आए थे, वे भी अब बाढ़ की जद में आ जाते हैं। सडक़ निर्माण में जल निकासी का भी ध्यान नहीं रखा जाता है। सडक़ किनारे बनाई गई नालियों से जल इकट्ठा होकर कहीं एक जगह छोड़ दिया जाता है जो भू-कटाव को बढऩे का कारण बनता है। सडक़ निर्माण विधिवत पर्वतीय दृष्टिकोण से कट एंड फिल तकनीक से किया जाना चाहिए। पहाड़ों में सडक़ के विकल्पों पर भी सोचा जाना चाहिए। सडक़ तो जीवन रेखा है, किन्तु जीवन रेखा यदि जीवन को ही लीलने लग जाए तो सोचना पड़ेगा कि गड़बड़ कहां हो रही है। सडक़ के विकल्प के रूप में मुख्य मार्गों से लिंक सडक़ों के बजाय उन्नत तकनीक के रज्जू मार्ग बनाए जा सकते हैं, किन्तु इस दिशा में सरकारों ने सोचना ही शुरू नहीं किया है। हां, पर्यटन आकर्षण के रूप में कुछ कुछ जगहों में रज्जू मार्ग बने हैं। उनके अनुभव से सस्ती और टिकाऊ यातायात सुविधा निर्माण की जा सकती है।
फिलहाल जब यह बात उजागर हो गई है कि मलबा डंपिंग की भूमिका भूस्खलन बढ़ाने में मुख्य है तो सरकार का यह फर्ज बनता है कि इसका सुओ-मोटो संज्ञान लेकर जहां जहां नुकसान हुआ है वहां तकनीकी जांच करवाई जाए। राष्ट्रीय राज मार्गों के मामले में चीफ विजिलैंस अफसर राष्ट्रीय राजमार्ग को जांच के लिए कहना चाहिए। 1994 में भागीरथी के तट पर, जब टिहरी बांध विरोधी आन्दोलन चल रहा था, तब हिमालय बचाओ आन्दोलन का घोषणा पत्र जारी हुआ था, जिसकी मुख्य मांग थी कि हिमालय की नाजुक परिस्थिति के मद्देनजर हिमालय के लिए विकास की विशेष प्रकृति मित्र योजना बनाई जाए। योजना आयोग द्वारा नियुक्त किए गए डा. एस. जेड. कासिम की अध्यक्षता में बनाई गई विशेष समिति ने भी 1992 में इसी आशय की रिपोर्ट जारी की थी, किन्तु उस पर भी कोई अमल नहीं हुआ। पर्वतीय क्षेत्रों के लोग लगातार विकास के नाम पर चल रही अंधी दौड़ के विरोध में अपनी आवाज बुलंद करते रहे हैं, किन्तु सरकारों और तकनीकी योजना निर्माताओं के कानों में जूं भी नहीं रेंगती है। एक अच्छा बहाना इन लोगों को मिल जाता है कि प्रकृति के आगे हम क्या कर सकते हैं, किन्तु इन लोगों को पूछा जाना चाहिए कि प्रकृति को इतना मजबूर करने का आपको क्या हक है कि प्रकृति बदला लेने पर उतारू हो जाए। हालांकि इस विषय पर चर्चा तो सरकारी क्षेत्रों में चलती रहती है, वर्तमान सरकार में भी नीति आयोग द्वारा हिमालयी क्षेत्र में विकास की दिशा तय करने के लिए रीजनल कौंसिल का गठन किया गया है, किन्तु अभी तक इस संस्था की कोई गतिविधि सामने तो नहीं आई है। अब समय है कि सब नींद से जागें और हिमालय में विकास की गतिविधियों को प्रकृति मित्र दिशा देने का प्रयास करें। हमें सोचना होगा कि हिमालय में होने वाली कोई भी पर्यावरण विरोधी कार्रवाई पूरे देश के लिए हिमालय द्वारा दी जाने वाली पर्यावरणीय सेवाओं से वंचित करने वाली साबित होगी।


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *