मौत से डर नहीं लगता साहब… ‘शिक्षा’ से लगता है

asiakhabar.com | January 12, 2020 | 5:55 pm IST
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वहां किताबें तितर-बितर थी। पढ़ने वाली किताबें फटी पड़ी थी। पुस्तकालय में सन्नाटा नहीं कोहराम मचा था।
कलम की जगह सरियों ने, कंप्यूटर की जगह मोबाइलों ने षड्यंत्र का जिम्मा उठा रखा था। छात्र नहीं छात्र संघ के
गुंडों ने तांडव मचा रखा था।मारना-पीटना ही पाठ समझने वाले लाठियों से रात के अंधेरे में देश के उजाले को
दबाने का महा पाप किया था। हॉस्टल के कांच टूट कर चकनाचूर हो गए थे। खून से लथपथ शौचालय रात की

आपबीती चीख चीख कर बयां कर रहे थे। जिसे चाहा उसे, जैसे चाहो वैसे, जहां चाहा वहां छात्रों को निर्ममता से
पीटा गया था। नए वर्ष का पहला रविवार, जेएनयू के छात्र कुछ समझ पाते उससे पहले ही मुखोटे धारी उन पर
टूट पड़े। इस बार भी पुलिस जेएनयू गेट के बाहर खड़े होकर तमाशाबीन बनी हुई थी। मानो तमाशा बिन बनने का
ठेका इन्होंने ही ले रखा हो। जेएनयू मैं तीन बदमाशों ने गुंडों का झुंड निरीह छात्रों का शिकार करने के लिए खुला
छोड़ रखा था। उस गुंडई झुंड ने जानवरों से बदतर व्यवहार किया था।
मुखौटा पर्व: शायद कोई भी हो, उन्हें शिक्षा से बहुत डर लगता है।कहते हैं शिक्षा असंख्य मस्तिष्क को एक साथ
सोचने पर मजबूर करने की क्षमता रखता है। यही कारण है कि मुखौटा धारियों ने इसी शिक्षा का मुंह चुप कराने
के लिए लोहे की छड़ों का इस्तेमाल किया था।उन मूर्खों को क्या पता शिक्षा की लौ लोहे की छड़ों से तो क्या सृष्टि
की किसी भी शक्ति से बुझ नहीं सकती।
राष्ट्रीयता पर्व: अपने डर को छिपाने के लिए राष्ट्रीयता, देशभक्ति जैसे भारी-भरकम शब्दों को ओढ़ लेते हैं। ऐसे
लोगों का जीवन दर्शन भी अजीब है। इनके लिए पुस्तकालय आतंकवादी केंद्र और छात्र आतंकवादी लगते है। पुस्तके
तो बम-गोले लगते हैं। छात्र – प्रोफेसर, पढ़ना-पढ़ाना यह सब उनके लिए मायने नहीं रखते। पुस्तके फाड़ना, हड्डी
तोड़ना, गले दबाना आम बात है। वे शिक्षा को अहिंसा से दबाने में विश्वास रखते हैं।
भय पर्व: डरपोक शिक्षा का जवाब शिक्षा से नहीं मारपीट से देने में रखते हैं। इन्हें मौत से डर नहीं लगता
साहब…’शिक्षा’ से लगता है। ये लोग जेएनयू की सूरत बदलने चले थे। शिक्षा के बदले मारपीट से कायापलट करना
चाहते थे। बुद्धि में ज्ञान भरने की जगह शरीर का अंग अंग छिद्र आन्वित कर दिया। ऊपर से बहादुर दिखने वाले
लोग, भीतर से कायर, डरपोक और बुजदिल हैं। सच का सामना करने से डरने वाले ये लोग कभी बहादुर नहीं हो
सकते।
आतंकी पर्व: जो सीना ठोक कर अपने किए को किया नहीं मानते, वे आतंकी नहीं तो और क्या है?सीमा के उस
पार से दागे गए गोलों से कहीं अधिक घातक विश्वविद्यालय पर फेंके गए पत्थर थे। देश के विरुद्ध काम करने
वाला यदि आतंकवादी है, तो विश्वविद्यालय पर पत्थर फेंकने वाले कौन से दूध के धुले हैं। विश्वविद्यालय देश का
निर्माण करते हैं।ऐसे विश्वविद्यालयों में छात्रों का मारना-पीटना आतंकवादी क्रियाकलाप नहीं तो और क्या है?
उनकी बर्बरता का पता छात्रों को पीटने के ढंग से चलता है।किसी ने आंखों की रोशनी खोई, किसी ने सुनने की,
किसी ने बोलने की, किसी ने चलने की, तो किसी ने हिलने की। नादान मूर्ख यह भूल बैठे कि छात्र अब भी सोचने
की शक्ति सहेजे रखे हैं।
संस्कृति पर्व: बुजदिल छिपाकर गुंडागर्दी करने वाले की संस्कृति है – ‘सरिया संस्कृति’। व्हाट्सएप में साथी गुंडों के
झूंडो को जे एन यू में भेजने के लिए अपनी पुलिस, अपनी सरकार, अपना वाइस चांसलर बताकर उत्प्रेरित करना
यह बुजदिल संस्कृति नहीं तो और क्या है? बाद में पकड़े जाने और मुखोटे पहचाने जाने का भय भी नहीं था। यह
हमारी संस्कृति, सनातन धर्म पर हमला नहीं तो और क्या है?
लाठी डकैती पर्व: भविष्य की पीढ़ी के लिए विश्वविद्यालय भारतीय रिजर्व बैंक ही हैं। ऐसे बैंक में डकैती करने के
लिए मुखौटा धारियों ने लाठी के बल पर अपना दमखम दिखाया। हमला करने वाले मुखोटे की पहचान धीरे धीरे
कर अब साफ हो रही है।इसीलिए कुछ लोग बेशर्मी की सभी सीमाएं लांघ कर इस हमले की जिम्मेदारी लेने के लिए
आगे आ रहे हैं।यदि इस पर सख्त कदम नहीं उठाए गए तो यह घटना संक्रामक बनकर न जाने और कितने
जेएनयू विश्वविद्यालयों तक फैलेगी।

मौन स्वीकृति पर्व: ऐसी घटनाओं का खंडन करने की बजाय सोशल मीडिया पर इन्हें ‘लाइक’ करना शासक वर्ग की
मौन स्वीकृति नहीं तो और क्या है? चुप्पी अत्यंत भयावह होती है।विश्वविद्यालय को युद्ध स्थल मांगने वाले
बुद्धिजीवियों के लिए संविधान का होना या ना होना एक समान है। यह घटना ‘निर्भया’ ‘दिशा’ से भी भयावह है।
रोशनी की ‘दिशा’ ‘निर्भय’ शिक्षा क्या संभव है?


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