-कुलभूषण उपमन्यु-
हमारे देश में अनाजों की विविधता की संस्कृति रही है। चावल, गेहूं के अतिरिक्त ज्वार, बाजरा, कोदरा (रागी),
कंगनी, चीणा, स्वांक (झंगोरा) आदि कई अनाज उगाए जाते थे और उनके पोषक तत्त्वों के ज्ञान के आधार पर
उनका मौसम या तासीर के हिसाब से भोजन में उपयोग किया जाता था। किंतु हरित क्रांति के दौर में न जाने कहां
से यह भ्रमपूर्ण विचार फैल गया कि गेहूं-चावल ही उत्कृष्ट अन्न हैं और बाकी को मोटे अनाज कह कर हीन दृष्टि
से देखा जाने लगा। कुछ लोग तो अज्ञानवश ये सोचने लग पड़े कि ये मोटे अन्न गरीबों का खाना हैं। अतः इन
अनाजों की न केवल अनदेखी हुई, बल्कि इन्हें हिकारत की दृष्टि से देखा जाने लगा। किंतु एक जानकार वर्ग इनके
संरक्षण और गुणवत्ता के ज्ञान का रक्षक बना रहा और आज फिर से इन अनाजों के प्रति चेतना फैलना शुरू हुई है।
इन अनाजों को रासायनिक खादों और दवाइयों की भी जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि इनमें कीड़ा नहीं लगता, और ये
कम उपजाऊ जमीनों में भी बढि़या पैदावार देते हैं। ये पौष्टिक भोजन और चारा देते हैं। यदि इनके मुकाबले में गेहूं-
चावल के पोषक तत्त्वों को देखें तो ये 4-5 गुणा ज्यादा पौष्टिक पाए जाते हैं।
प्रति सौ ग्राम कोदरा-रागी में धातुएं कोदरा-2.7 ग्रा., कंगनी-3.3 ग्रा., स्वांक-झंगोरा- 4.4 ग्रा., चावल-0.7 ग्रा.,
गेहूं-1.5 ग्रा., आयरन कोदरा-3.9 मि. ग्रा., कंगनी-2.8 मि. ग्रा., झंगोरा-15.2 मि. ग्रा., गेहूं-5.3 मि. ग्रा., चावल-
0.7 मि. ग्रा., कैल्शियम कोदरा-रागी- 344 मि. ग्रा., कंगनी 31 मि. ग्रा., झंगोरा-11 मि. ग्रा., गेहूं-10 मि. ग्रा.,
चावल-41 मि. ग्रा., रामदाना-स्युह्ल- 159 मि. ग्रा., फाइबर कोदरा- 3.6 ग्रा., कंगनी- 8 ग्रा., स्वांक-झंगोरा-
10.1 ग्रा., गेहूं-1.2 ग्रा., चावल-0.2 ग्रा., जौ-15.6 ग्रा.। इस तरह हम पाते हैं कि जरूरी पौष्टिक तत्त्वों के मामले
में इन अनाजों की अनदेखी करके हम अपने ही स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। हमें इन पौष्टिक तत्त्वों की
कमी होने की सूरत में बनावटी दवाइयों के रूप में इन पौष्टिक तत्त्वों को डाक्टर के कहने पर खाना पड़ता है। गेहूं-
चावल की खेती में तो रासायनिक दवाइयों की भरमार हो रही है। ये मोटे अनाज तो बिना दवाइयों और रासायनिक
खादों के ही हो जाते हैं। इस लिए ये रासायनिक जहरों द्वारा मानव शरीर को हो रहे नुकसान के खतरे से भी
खाली हैं। रासायनिक खेती के चलते पंजाब की बठिंडा पट्टी तो कैंसर पट्टी के नाम से मशहूर हो गई है, क्योंकि
इस क्षेत्र में हर घर में कोई न कोई कैंसर रोग से पीडि़त मिल जाएगा। खेती विरासत मिशन जैसी संस्थाएं इन क्षेत्रों
में प्राकृतिक खेती को वैज्ञानिक तरीके से करने का प्रचार कर रही हैं। उन्हें समाज से भी अच्छी प्रतिक्रिया मिल रही
है। हम जलवायु परिवर्तन के दौर में प्रवेश कर चुके हैं। गर्मी बढ़ने के साथ-साथ इसमें वर्षा भी अनिश्चित हो
जाएगी। इससे सामना करना भी पड़ रहा है। यह क्रम बढ़ता जाएगा। इससे खेती के लिए पानी का संकट भी बढ़ता
जाएगा, क्योंकि बारिशों के दिन कम हो जाएंगे और बौछार बढ़ जाएगी।
भारत में पहले ही 80 फीसदी बारिश मॉनसून के तीन महीनों में ही हो जाती है। शेष वर्ष पानी की कमी बनी रहती
है, जिसके चलते अंतरराज्यीय टकराव और अंतर-व्यावसायिक टकराव भी बढ़ते जाएंगे। उद्योगों और घरेलू प्रयोग
के लिए भी पानी की मांग लगातार बढ़ रही है। खेती में हम जिन फसलों को बढ़ा रहे हैं, वे सब ज्यादा पानी की
मांग करती हैं। जबकि ये पौष्टिक अनाज थोड़े पानी में भी अच्छी फसल दे जाते हैं। गन्ने को इन पौष्टिक अनाजों
के मुकाबले 5 गुणा और धान को तीन गुणा पानी चाहिए। जैसे वर्ष में कुछ महीने ही हमारे देश में पानी की
बहुतायत होती है, वैसे ही क्षेत्रवार भी हमें काफी असमानता झेलनी पड़ती है। सतही जल के 71 फीसदी जल
संसाधन 36 फीसदी क्षेत्र को ही उपलब्ध हैं और 64 फीसदी क्षेत्र 29 फीसदी साधनों पर निर्भर है। देश में 56.7
फीसदी क्षेत्र वर्षा आधारित खेती पर निर्भर है। इसलिए बहुत तेज गति से भूजल दोहन बढ़ा है। भारतवर्ष दुनिया का
सबसे बड़ा भूजल उपयोगकर्ता बन गया है। 75.80 फीसदी सिंचाई भूजल से हो रही है। इससे भूजल स्तर भी तेजी
से घट रहा है। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान में भूजल स्तर 2002-8 के आकलन के मुताबिक प्रतिवर्ष 33 सेंटीमीटर
की दर से घट रहा है। अब तक यह दर और भी बढ़ चुकी होगी। इसी कारण देश के 33 फीसदी जिले भूजल की
दृष्टि से असुरक्षित घोषित हो चुके हैं। दुनिया की 16 फीसदी आबादी हमारे देश में बसती है और सतही जल के 4
फीसदी संसाधन ही हमारे पास हैं। प्रति व्यक्ति, प्रति वर्ष जल उपलब्धता 1170 घन मीटर ही है, जबकि 1700
घन मीटर से कम जल उपलब्धता जल संकट माना जाता है। इस वस्तुस्थिति को देखते हुए कृषि जैसी
जीवनोपयोगी गतिविधि को टिकाऊ बना कर रखने की चुनौती देश के सामने है, और पौष्टिक भोजन उपलब्ध
करवाने की महती जिम्मेदारी भी। अतः सब तरह से पौष्टिक अन्न उगाना, जिनकी मोटे अनाज कह कर अनदेखी
की गई, समय की मांग है। पौष्टिक अन्न और जहरमुक्त वैज्ञानिक खेती इस समय का घोष वाक्य होना चाहिए।
इसे प्रोत्साहन मिलना चाहिए।