-डा. रवीन्द्र अरजरिया-
चुनावी वायदों में मुफ्तखोरी, सम्प्रदायवाद और क्षेत्रवाद को हवा देने की होड मची हुई है। कही संगठनों को बैन करने की कबायत की जा रही है तो कहीं मजहबी जुमलों को नारों में तब्दील किया जा रहा है। जीवन जीने की परम्परा का निर्वहन करने वालों की संख्या में बढोत्तरी करने की प्रेरणा देकर आतुर लोगों की भीड में वैमनुष्यता परोसने की मानसिता को देश के हित में कदापि नहीं कहा जा सकता। आम मतदाना ने कभी सोचा कि मुफ्तखोरी की घोषणा करने वाले दल क्या स्वयं के पार्टी फण्ड से नागरिकों को सुविधायें मुहैया करायेंगे या फिर ईमानदार करदाताओं की खून-पसीने की कमाई को ही चुनावी वायदे पूरे करने के लिए लुटायेंगे। इस मुफ्तखोरी ने देश में गरीबों की संख्या वाले आंकडों में कोरोना काल के बाद से बेतहाशा इजाफा किया है। आम आवाम को समझना होगा कि मुफ्त में मिलने वाली सुविधायें ईमानदार करदाता नागरिक की जी तोड मेहनत का परिणाम हैं। रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने, व्यापार के लिए अवसर पैदा करने, व्यवसाय के लिए नीतियां निर्धारित करने जैसी घोषणायें निश्चित ही जनसामान्य के लिए संजीवनी का काम करेंगी परन्तु देश में स्वाधीनता के बाद से ही परिश्रम की फौलाद पर मुफ्तखोरी की जंग लगाने वाले अनेक दलों ने देश की मानव शक्ति को नस्तनाबूत करने का मंसूबा पाल ही रखा है। कोरोना काल में सहायता के नाम पर सरकारी खजाने को खोल दिया गया था। खजाने के पैसों को अनेक उत्तरदायी अधिकारियों ने मनगढन्त आंकडे परोसकर अपनी निजी तिजोरियों में स्थानांतरित कर दिया था। जिस पर आरोपों की लम्बी श्रंखला भी सामने आई थी परन्तु चोर-चोर मौसेरे भाई की कहावत ने चरितार्थ होकर सब कुछ सामान्य कर दिया। संदेहात्मक भूमिकाओं में घिरने वाले अनेक अधिकारियों ने सरकारों पर दबाव बनाकर कोरोना काल के व्यय को सूचना के अधिकार की सीमा से ही बाहर करवा दिया था ताकि आम आवाम को सत्य से दूर रखा जा सके। यूं तो मुफ्तखोरी और तुष्टीकरण की नीतियों को स्वाधीनता के तत्काल बाद ही संविधान की व्यवस्थाओं में शामिल कर लिया गया था। जातिगत, सम्प्रदायगत, क्षेत्रगत, भाषागत जैसी विसंगतियों को रेखांकित करते हुए सुविधाओं की आवश्यकता बताकर संविधान में अनेक अनुच्छेदों निर्मित कर दिये गये थे। आज वे ही नासूर बनकर देश को बरबाद करने पर तुले हैं। एक के हाथ में लड्डू पकडाते ही दूसरों का ललचाना स्वाभाविक ही होता है। प्रतिभाओं को कुंठित करने वाली नीतियां थोपी गईं। आयोग्य लोगों की जमात को सरकारी ओहदों पर बैठाकर वेतन रूप में एक मोटी धनराशि से नवाजा गया। यहीं से शुरू हुआ पात्रों का आपात्रों के विरोध में स्वर मुखरित करने का क्रम। इस मुद्दे को राजनैतिक दलों ने आवश्यकता अनुसार भुनाया शुरू कर दिया। फूट डालो, राज करो, की गोरों की नीति को उनके अनुयायियों ने देश में अक्षरश: लागू कर दिया। उसके बाद नागरिकों को कामचोर बनाने बनाने हेतु षडयंत्र तैयार किये गये। सहायता के नाम पर दी जाने वाली सुविधाओं को धीरे-धीरे मुफ्तखोरी की आदत तब्दील कर दिया गया। आज यही आदत अधिकार में परिवर्तित हो गई है। लोग अब मुफ्तखोरी के लिए एक जुट होकर उसे अधिकार के तौर पर आंदोलनात्मक ढंग से मांगने लगे हैं। कांग्रेस के कार्यकाल की कुछ बानगी प्रस्तुत है जिसमें सन् 1975 में आईसीडीएस के तहत पोषण के नाम पर, सन् 1985 में इंदिरा आवास योजना के तहत ग्रामीणों को मकान देने के नाम पर, सन् 1985 में व्यापक फसल बीमा योजना के तहत फसलों के नुकसान की भरपाई के नाम पर, सन् 1985 में सर्वभौमिक टीकाकरण कार्यक्रम के तहत रोगों से सुरक्षा प्रदान करने के नाम पर, सन् 2004 में ग्रामीण भारत के लिए नई डील योजना के तहत विकास के नाम पर, सन् 2004 में नीम लेपित यूरिया योजना के तहत पैदावार बढाने के नाम पर, सन् 2005 में विरासत क्षेत्रों का विकास योजना के तहत प्रगति के नाम पर, सन् 2005 में मूल बचत बैंक जमा खाता योजना के तहत संचय के नाम पर, सन् 2005 में जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीनीकरण मिशन के तहत उत्थान के नाम पर, सन् 2005 राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना के तहत बिजली प्रदाय के नाम पर, सन् 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत आजीविका के नाम पर, सन् 2005 में राष्ट्रीय समुद्री विकास कार्यक्रम के तहत उपलब्धि के नाम पर, सन् 2007 में आम आदमी बीमा योजना के तहत जीवन के नाम पर, सन् 2007 में त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम के तहत फसलों की सिंचाई के नाम पर, सन् 2007 राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत खेती की तकनीक के नाम पर, सन् 2008 में मृदा स्वास्थ्य और उर्वरता के प्रबंधन पर राष्ट्रीय परियोजना के तहत भूमि सुधार के नाम पर, सन् 2008 में राष्ट्रीय बालिका दिवस कार्यक्रम के तहत प्रोत्साहन के नाम पर, सन् 2009 में राजीव आवास योजना के तहत शहरी क्षेत्रों में सुविधा देने के नाम पर मतदाताओं को लुभाने के प्रयास किये गये थे। तत्कालीन संघर्षशील एवं समस्याग्रस्त लोगों को तब इस तरह की अनेक योजनाओं के बारे में पता तक नहीं चल पाया और आंकडों में योजना ने सफलता के झंडे गाड दिये। भाजपा ने सन् 2014 में केन्द्र की सत्ता सम्हाली। उसने भी तत्काल मुफ्तखोरी के लिए नये ढंग से योजनायें बनाई और उसे लागू कराया। उदाहरणार्थ उज्जवला योजना के तहत सरकारी दस्तावेजों में पूर्व से दर्ज गरीबों को रसोई गैस प्रदान करने के नाम पर, प्रधानमंत्री श्रम योगी मानधन योजना के तहत असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को लाभ देने के नाम पर, प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के तहत छोटे और सीमांत किसान परिवारों को सहायता देने के नाम पर, आयुष्मान भारत योजना के तहत गरीबों को चिकित्सीय सुविधायें देने के नाम पर, गांवों में बिजली के तहत ग्रामीणों को साधन देने के नाम पर, इन्साल्वेंसी एण्ड बैंकरप्सी कानून के तहत राहत व्यवस्था के नाम पर, स्वच्छ भारत मिशन के तहत स्वच्छता और शौचालय निर्माण के नाम पर, सब्सिडी की डिजिटल ट्रांसफर व्यवस्था कार्यक्रम के तहत सीधा पैसा भेजने के नाम पर, सामान्य यात्रा सुविधा के तहत सडकों तथा मेट्रो नेटवर्क बढाने के नाम पर, प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत गरीबी सूची में दर्ज परिवारों को घर प्रदान करने के नाम पर लोगों को लुभाने का काम किया। यह अलग बात है कि इन योजनाओं का व्यापक प्रचार प्रसार होने के कारण हितग्राहियों को लाभ भी मिला। वर्तमान में केन्द्र व्दारा प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना, प्रधानमंत्री मनरेगा योजना, प्रधानमंत्री उज्जवला योजना, प्रधानमंत्री स्वनिधि योजना, अन्त्योदय अन्न योजना, प्रधानमंत्री आयुष्मान भारत योजना जैसी अनेक योजनायें चलाई जा रहीं है। महिलाओं के लिए अलग से बेटी बचाओ-बेटी पढाओ योजना, सुरक्षित मातृत्व आश्वासन सुमन योजना, फ्री सिलाई मशीन योजना, महिला शक्ति केन्द्र योजना, सुकन्या जैसी अनेक योजनायें चलाई जा रही हैं। अनेक राज्य भी अपने-अपने ढंग से मुफ्तखोरी को बढावा देते हुए लोगों को कामचोर बना रहे हैं। ऐसा करने वालों में दिल्ली सरकार हमेशा ही सुर्खियों में रहती है जहां आम आदमी पार्टी ने सत्ता में आते ही मुफ्तखोरी की आंधी पैदा कर दी थी। 200 यूनिट तक मुफ्त बिजली, 20,000 लीटर तक मुफ्त पानी, 200 मुहल्ला क्लीनिक में मुफ्त इलाज और टेस्ट, महिलाओं के लिए मुफ्त बस यात्रा, वरिष्ठ नागरिकों के लिए मुख्यमंत्री मुफ्त तीर्थ यात्रा योजना जैसे अनेक कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं। अनेक क्षेत्रों में भारी भरकम सब्सिडी दी जा रही है। केवल दिल्ली में ही बिजली कम्पनियों को लगभग ढाई हजार करोड रुपये का भुगतान सरकार को सब्सिडी के नाम पर करना पडता है। पानी पर पहले ही लगभग साढे चार सौ करोड रुपये का भुगतान सब्सिडी हेतु करना पडता है। महिलाओं की मुफ्त यात्रा के लिए लगभग 140 करोड रुपये खर्च किये जा रहे हैं। ऐसा ही कम-ज्यादा हाल देश के अन्य राज्यों में भी देखने को मिलता है। राज्यों के चुनावी घोषणा पत्रों में मुफ्तखोरी के बडे-बडे वायदे करने के बाद सत्तासीन सरकारें अक्सर केन्द्र की ओर ताकने लगतीं है तथा घोषणायें पूरी न होने के लिए केन्द्र सरकार पर ढीकरा फोड देतीं है। वर्तमान में यही सब देखने को मिल रहा है। ऐसे में जब तक आम मतदाता आगे आकर मुफ्तखोरी के चुनावी घोषणा पत्रों की होली नहीं जलायेगा तब तक ईमानदार करदाताओं के पैसों का न दुरुपयोग करके देश में कामचोरों की जमात तैयार करने वालों की मानसिकता में सुधार नहीं आयेगा। मुफ्तखोरों की जमात पैदा करने वालों को दिखाना होगा आइना तभी सत्ता के लालची लोगों को ईमानदार करदाताओं के पैसों का मूल्य पता चलेगा और हो सकेगा राष्ट्र का वास्तविक विकास। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।