शिशिर गुप्ता
देश की अदालतों में जिस तरह से लंबित मुकदमों की तादाद बढ़ती जा रही है, वह चिंता का विषय है।
निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च अदालत में मुकदमों का लगता अंबार न्यायपालिका पर बढ़ते बोझ को
बताने के लिए काफी है। संसद में सवाल-जवाब के दौरान केंद्र सरकार ने बताया है कि देश की निचली
और जिला अदालतों में तीन करोड़ चौदह लाख मामले ऐसे हैं जो लंबित पड़े हैं। इनमें 14 फीसद मामले
दस साल या इससे ज्यादा पुराने हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि दस साल से ज्यादा पुराने मामले सबसे
ज्यादा उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, ओडिशा एवं गुजरात में लंबित हैं। लंबित मामलों में
ऐसे मुकदमे हैं जिनकी सुनवाई पूरी नहीं हुई है या जिन पर फैसला आना बाकी है। पर सवाल है इनकी
सुध ले कौन! विधि और न्याय मंत्रालय ने राष्ट्रीय न्यायिक डाटा ग्रिड के आंकड़ों का हवाला देते हुए
बताया कि करीब 45 लाख मुकदमे तो देश के उच्च न्यायालयों में लंबित हैं और सर्वोच्च अदालत में
लंबित मामलों का आंकड़ा साठ हजार के करीब है। ये आंकड़े बता रहे हैं कि हमारी न्यायिक व्यवस्था
संसाधनों का किस कदर अभाव झेल रही है। ऐसे में न्याय की उम्मीद किससे और कैसे की जाए?
ऐसा नहीं है कि देश की न्यायिक व्यवस्था की इस लाइलाज बीमारी के बारे में सरकारें अनभिज्ञ हों। यह
भी नहीं कि समस्या कोई पांच-दस साल में बढ़ी हो। अदालतों में लंबित मुकदमों की तादाद बढऩे का बड़ा
कारण जजों की कमी भी है और समय-समय पर सर्वोच्च न्यायालय ने इस बारे में सरकार का ध्यान
खींचा है। लेकिन दुख की बात यह है कि किसी भी सरकार ने इसे कभी गंभीरता से लिया ही नहीं।
निचली अदालतों में जजों की भर्ती का काम राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है और यह काम संबंधित
राज्य सरकारें न्यायिक सेवा परीक्षा के माध्यम से करती हैं। समस्या यह है कि जिस रफ्तार से अदालतों
में मुकदमे आ रहे हैं, उसकी तुलना में जजों की नियुक्ति नहीं हो रही। ऐसे में न्यायिक कामकाज बाधित
होना स्वाभाविक है। राज्य सरकारों का अपना रोना है। सरकारी नौकरियों में पदों की संख्या बढ़ाने की
एक सीमा है, सरकारें अपने आर्थिक बोझ तले दबी हैं। ऐसे में जब तक राज्यों की न्यायिक सेवा में बड़े
पैमाने पर भर्तियां नहीं होंगी तो मुकदमों को तय सीमा के भीतर निपटाना किसी के लिए संभव नहीं है।
कानून मंत्री ने सभी उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों से दस साल या इससे ज्यादा पुराने मामलों
को जल्द निपटाने का आग्रह किया है। पर सवाल तो वहीं का वहीं है कि निपटाया कैसे जाए! मामले
तत्काल निपटाना आसान इसलिए भी नहीं होता कि हमारी न्यायिक प्रक्रिया काफी जटिल है। जमानत
जैसी प्रक्रिया ही विचाराधीन कैदियों के पसीने छुड़ा देती है। मुकदमों की सुनवाई में सालों गुजर जाते हैं,
खासतौर से दीवानी मामलों में बीस-तीस साल कोई ज्यादा समय नहीं माना जाता। मुकदमों की सुनवाई
में पुलिस और जांच एजेंसियों की बड़ी भूमिका होती है। छोटे-मोटे अपराधों से लेकर बढ़े और गंभीर
अपराध के मामलों में जांच तो पुलिस ही करती है। देश का पुलिस तंत्र खुद संसाधनों की मार झेल रहा
है। फिर पुलिस, जांच एजेंसियों और अदालतों के बीच तालमेल की कमी भी बना मुद्दा है। समाज में
अपराधों की बदलती प्रकृति भी पुलिस और न्यायपालिका के बड़ी चुनौती बनी है। लंबित मुकदमों का
बोझ कम करने का रास्ता तो न्यायपालिका और सरकार को मिल कर ही निकालना होगा, वरना न्याय
आमजन की पहुंच से दूर होता चला जाएगा।