अर्पित गुप्ता
त्वरित व किफायती न्याय का नागरिक अधिकार किसी भी लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की बुनियादी शर्त है।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र यानी देश में यह बात सैद्धांतिक तौर पर भले बार-बार दोहराई जाती हो, लेकिन
अफसोस की बात यह है कि अदालतों से इंसाफ पाने के लिए ही लोगों को सबसे ज्यादा पापड़ बेलने पड़ते हैं।
अदालतों के सैकड़ों चक्कर लगाने के बाद ही उन्हें इंसाफ मिल पाता है। आज आलम यह है कि देश भर में विविध
स्तरों पर अदालतों में करीब साढ़े तीन करोड़ से अधिक मुकदमे लंबित हैं। इसमें भी तकरीबन साठ हजार मामले तो
अकेले सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं। हाल में लोकसभा में केंद्र सरकार ने बताया कि देश की निचली और जिला
अदालतों में तीन करोड़ 14 लाख मामले लंबित हैं। इसमें से 14 फीसद दस साल या उससे भी ज्यादा पुराने हैं।
उच्च न्यायालयों की यदि बात करें, तो यहां करीब 45 लाख मामले न्याय की प्रतीक्षा कर रहे हैं। जाहिर है,
अदालतों पर काम का अत्यधिक बोझ है। उसके समक्ष आने वाले मुकदमों का प्रवाह अनियंत्रित है। अब भी इस
हालात का गंभीरता से मुकाबला नहीं किया गया, तो न्यायिक व्यवस्था के चरमराने का खतरा सामने है। न्यायिक
व्यवस्था में लोगों का यकीन बना रहे, इसके लिए जरूरी है कि उन्हें सही समय पर इंसाफ मिले।
देश के कानून मंत्री ने सभी उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों से आग्रह किया गया है कि वे अपने यहां की
अदालतों में लंबित पड़े दस साल या इससे पुराने मामलों का त्वरित निपटारा सुनिश्चित करें। जाहिर है, सलाह
महत्वपूर्ण है। यदि इस पर अमल किया जाए, तो न्यायिक परिदृश्य में कुछ तो बदलाव आएगा। जो मामले
अदालतों में बरसों से लटके हैं, उनका समय-सीमा में निपटारा हो पाएगा। अदालतों में काम का जो बोझ है, उसमें
भी कमी आएगी। सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई आदेशों में न्याय प्रणाली को दुरुस्त करने के लिए निचली अदालतों को
सलाह दी है कि भ्रष्टाचार, दहेज मौत, घरेलू हिंसा, यौन उत्पीडऩ व साइबर अपराध जैसे मामलों में मुकदमा
त्वरित गति से चलाया जाना चाहिए। बेहतर हो कि तय समय के भीतर फैसला भी हो जाए और यह समय तीन
साल हो सकता है।
अदालतों को मुकदमों के ढेर से निजात दिलाने के लिए केंद्र सरकार ने कुछ साल पहले राष्ट्रीय मुकदमा नीति
बनाने की बात की थी। इस नीति के अंतर्गत प्रमुख लंबित मुकदमों की औसत अवधि 15 साल से कम करके तीन
साल करना, अदालती समय का ज्यादा से ज्यादा सदुपयोग करने के लिए सभी अदालतों में कोर्ट प्रबंधकों की
नियुक्ति करने जैसी अहम बातें शामिल थीं। लेकिन यह मामला आगे नहीं बढ़ा। यदि इस तरह की नीति बन
जाती, तो न सिर्फ अदालतों पर लंबित मुकदमों का अंबार कम होता, बल्कि प्राथमिक औपचारिकताएं पूरी होने के
बाद ही मामले सुनवाई के लिए सूचीबद्ध होते और दायर करने की तारीख के हिसाब से सुनवाई की प्राथमिकता भी
तय होती।
ज्यादातर मुकदमे छोटे-छोटे झगड़ों और आपसी अहं की लड़ाइयों के नतीजे होते हैं। इनमें बहुत सारे मुकदमे ऐसे हैं
जिन्हें अदालती गलियारों में सालों-साल भटकाने की जगह घंटों की बातचीत में आसानी से निपटाया जा सकता है।
खासतौर से पारिवारिक और वैवाहिक विवादों के मामले तो मध्यस्थता के जरिए बेहतर तरीके से कम समय में ही
सुलझ सकते हैं। ज्यादातर मुकदमे यातायात से संबंधित अपराधों, चेक बाउंस जैसी शिकायतों के होते हैं, जिन्हें
दोनों पक्षकारों से बातचीत कर बड़ी आसानी से सुलझाया जा सकता है। फिर लोक अदालतों के जरिए समय-समय
पर इस तरह के मुकदमों का निपटारा किया जाता रहा है। अदालतों से मुकदमों का बोझ कम हो सके, इसके लिए
जरूरी है कि देश में लोक अदालतों की संख्या बढ़ाई जाए, याचिकाकर्ताओं को मध्यस्थता जैसी प्रक्रिया का सहारा
लेने के लिए प्रेरित किया जाए। जनाक्रोश के दबाव में दिल्ली में यौन हिंसा के मामलों की सुनवाई के लिए त्वरित
अदालतें गठित करने का फैसला किया गया। लेकिन त्वरित अदालतें पूरे देश में होनी जरूरी हैं।
मुकदमों का शीघ्र निपटारा न हो पाने के पीछे एक बड़ी वजह सरकारी वकीलों और जांच अधिकारियों की ढिलाई
और अयोग्यता भी है। आपराधिक मामलों की छानबीन में पुलिस की लापरवाही, तथ्यों को सही ढंग से पेश न कर
पाना, भ्रष्टाचार व सरकारी वकीलों का आरोपियों के दबाव में आकर सबूतों और गवाहों को ठीक से पेश न करने
जैसी बातें किसी से छिपी नहीं हैं। इसके चलते अक्सर पीडि़त पक्ष को इंसाफ नहीं मिल पाता। पुलिस सुधारों के
बारे में कई समितियों ने अपनी रिपोर्ट दीं, बड़ी-बड़ी बातें हुईं, लेकिन इस दिशा में अभी तक कोई सार्थक पहल
नहीं हो पाई है। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी 2006 में पुलिस सुधार के लिए अपनी ओर से कई महत्वपूर्ण
निर्देश दिए थे। लेकिन अफसोस की बात यह है कि इन निर्देशों को लेकर अभी तक भी कुछ नहीं हुआ है। सोराबजी
समिति ने रिपोर्ट में भारतीय पुलिस में बुनियादी सुधार के लिए कई सिफारिशें सुझाई थीं, लेकिन ज्यादातर राज्य
सरकारें इन सिफारिशों को लागू करने के लिए रजामंद नहीं हैं। पुलिस महकमे को सियासी हस्तक्षेप से आजाद
रखने के सुझाने के साथ ही कमेटी की दो ऐसी सिफारिशें हैं जो इंसाफ की नजर से काफी अहम हैं। पहली, पुलिस
में जनता की शिकायतों के निपटारे के लिए विभिन्न स्तरों पर आयोग कायम किए जाएं। दूसरे, आपराधिक मामले
की जांच की जिम्मेदारी पुलिस पर न हो। यानी, कोई स्वायत्त एजेंसी कायम की जाए।