पर्यावरण को सुरक्षित करने के लिए वर्ष 1972 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने स्वीडन में विश्व के तमाम देशों को एक
मंच पर लाकर पहला पर्यावरण सम्मेलन आयोजित किया था। इसमें 119 देश सम्मिलित हुए और पहली बार एक
ही उद्देश्य के लिए इतने देश एकत्रित हुए थे। विश्व में लगातार बढ़ रहे प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग से होने वाली
हानि की चिंताओं की वजह से विश्व पर्यावरण दिवस की शुरुआत की गई थी। इसके दो वर्ष बाद हमारे देश में
विश्व पर्यावरण की नींव 5 जून 1974 में रखी गई थी। भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पर्यावरण दिवस
पर भारत की प्रकृति और पर्यावरण के प्रति चिंता जाहिर करते हुए आग्रह किया था कि पर्यावरण को समझें व
इससे प्यार करें चूंकि भारत जैसे देश में इसका एक अलग ही महत्व है। वैसे तो विश्वभर में कई महत्वपूर्ण दिवस
मनाए जाते हैं लेकिन कुछ दिनों का बेहद अहम मुद्दों की गंभीरता को समझाने के लिए निर्माण हुआ था, इनमें से
विश्व पर्यावरण दिवस भी एक है। मौजूदा स्थिति में हाईटैक होने के लिए हर रोज विश्व का एक सकारात्मक दिशा
की ओर निर्माण हो रहा है जिसमें भारत का नाम भी बेहद चुनिंदा देशों में गिना जाना लगा। लेकिन हम अन्य देशों
की अपेक्षा पर्यावरण को बचाने व संभालने में उतने सक्षम नही हैं जितने की हमे जरुरत हैं और उम्मीद भी।
दरअसल मामला यह है कि लगातार बढ़ रही जनसंख्या को व्यवस्थित करने के लिए हम पर्यावरण का विनाश
करते हुए आगे बढ़ रहे हैं। दुनिया के साथ कदम से कदम मिलाते हुए और हाईटैक दुनिया का निर्माण करना गलत
नही हैं लेकिन मानव जीवन की सबसे अहम व मूलभूत जरुरत को दरकिनार करके तरक्की करना अपराध सा
लगता है। यदि हम हिन्दुस्तान के परिवेश में चर्चा करें तो हमारे यहां जनसंख्या का बेहद तेजी से बढ़ना जारी है तो
उस आधार पर सरकारों को जनता के लिए जगह की व्यवस्था करनी होती है जिसके चलते जंगल का पर्यावरण
बर्बाद किया जा रहा है इसके अलावा प्रदूषण हमारा सबसे बडा दुश्मन है। देश की तरक्की व जनता की जरुरत के
लिए ऐसे मुद्दों की गंभीरता न समझना मानव जीवन पर ही भारी पड़ रहा है। मनुष्य की शहरीकरण की भूख ने
प्रकृति को इतनी हानि पहुंचा दी कि उसको यह मालूम ही नही पड़ा कि वो कब काल के गर्भ में प्रवेश कर गया।
यदि महानगरों की जीवनशैली व यापन की चर्चा करें तो यहां पिछले दो दशकों कम आयु में होने वाली मौतों के
आंकडों ने चौंका दिया। मनुष्य की आयु का घटना लगातार जारी है। इंसान की उम्र करीब सौ वर्ष होती थी लेकिन
आज के दौर में साठ साल पर आकर सीमित रह गई।
वैज्ञानिकों के अनुसार लगातार हो रही आपदाओं के लिए प्राकृतिक संसाधनों के बेहद अधिक इस्तेमाल को जिम्मेदार
ठहराया है। उनका मानना है कि आज स्थिति के आधार पर हमारी धरती अपने भार से कहीं अधिक भार वहन कर
रही है। अगर यही हाल रहा तो अगले दशकभर में धरती रहने लायक नही बचेगी। लेकिन मनुष्य आज भी सही राह
पर चले तो वो अपना भविष्य सुधार सकता है। यदि आपने गौर किया हो तो लॉकडाउन के दौरान वातावरण इतना
शुद्ध हो चुका है कि ऐसा हाल करीब ढाई दशक पूर्व देखा जाता था। महानगरों में सांस लेने में भारी तकलीफ होती
थी लेकिन इस दौरान इस तरह की किसी समस्या ने परेशान नही किया। पेड-पौधे फिर से हरे भरे होने दिखने लगे
साथ ही पक्षियों का भी फिर से आगमन हुआ। फैक्ट्रियां व गाडियां न चलने से आसमान इतना साफ दिखने लगा
कि मानो किसी पहाडी क्षेत्र में आ गए हों। लोगों को जो अन्य बीमारियां भी होती थी वो इस बार नही हुई। इस
घटना से एक बात तो समझ में आ गई कि यदि सरकार कोई ऐसी नीति बना दे जिससे किसी आपदा के कुछ दिन
या समय का लॉकडाउन कर दें तो और वो जनता आराम से मान ले तो हम दोबारा से प्रकृति को रिपेयर कर
सकते हैं। जब हम एक वायरस के डर से स्वयं को इतने लंबे समय तक कैद कर सकते हैं तो क्या सप्ताह में एक
दिन या कुछ समय के लिए अपने आप को मना नही सकते। चूंकि प्रकृति पर होने वाले अत्याचार को हम तभी
निंयत्रित कर पाएगें जब हम एक साथ सारी गतिविधियों को रोक दें, जैसा लॉकडाउन के दौरान हुआ।
शहरों में यदि किसी की सत्तर वर्ष में मृत्यु हो जाए तो लोग कहते हैं कि सही उम्र तक जी कर गये हैं। इस तरह
की बातों से ऐसा लगता है कि महानगरवासियों ने स्वयं भी यह ही ठान और मान लिया कि वह साठ व सत्तर के
वर्ष ही जीना चाहते हैं। मात्र इतने ही वर्ष जीना है यह तो उनको पता चल गया लेकिन वो इस सुधार की ओर नही
जाना चाहते कि वह अपनी संचालन प्रक्रिया में थोडा सा बदलाव कर मानव जीवन को सुरक्षित करें। कम आयु में
हार्टअटैक, मधुमेह व ब्लड प्रेशर जैसी बीमारियों से हमारा भविष्य दांव पर लग रहा है। हर रोज न जाने कितने
परिवार बर्बाद हो जाते हैं। किसी के सर से साया तो किसी के हमसफर के रुप में मानव की क्षति हो रही हैं।
वैश्विक सरकारों के माध्यम से पर्यावरण के प्रति जागरूकता और प्रकृति और पृथ्वी के संरक्षण के लिए तमाम
कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। हमारे देश में भी इसको बेहद गंभीर मुद्दा माना जा रहा है लेकिन कुछ देर
ही जागरुक होकर फिर पुराने ढर्रे पर आ जाते हैं जिससे हम सही दिशा पर नही आ पा रहे हैं। इस बात में कोई दो
राय नही हैं कि सरकार ऐसे मामलों में एक बडा बजट पारित है करती है व इसके प्रति गंभीर भी रहती हैं। इसके
लिए केन्द्र व राज्य स्तर पर विभाग कार्यरत भी हैं लेकिन हम उतनी संजीदगी से इस बात की गंभीरता नही समझ
पा रहे जितने की जरुरत है। यदि हम आज भी छोटी-छोटी चीजों को समझ कर उस पर अमल करना शुरु कर दें
तो निश्चित तौर पर हम अपनी आने वाली पीढ़ी को स्वस्थ जीवन दे सकते है।