विनय गुप्ता
कोरोना महामारी का सबसे बड़ा खमियाजा महिलाओं और बच्चों को उठाना पड़ा है। लॉकडाउन और दूसरे
स त नियम-कायदों की वजह से दुनिया भर में बहुत सारे क्षेत्र ठप पड़ गए या अस्त-व्यस्त हो गए,
सर्वाधिक प्रभावित अर्थव्यवस्था हुई एवं रोजगार में भारी गिरावट आई। अब जब महामारी का असर कम
होता दिख रहा है, तो ऐसे में विश्व के तमाम देशों सहित भारत भी इससे उबरने की कोशिश में है। ऐसे
में अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना बड़ी चुनौती है, जिसके लिये केन्द्र सरकार ने अनेक तरह के राहत
पैकेज जारी किये हैं, धीरे-धीरे बाजार और आम गतिविधियां सामान्य होने की ओर अग्रसर है। लेकिन
इस बीच कीमहिला रोजगार को लेकर एक चिंताजनक खबर आई है। सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन
इकॉनमी (सीएमआईई) नाम के थिंक टैंक ने बताया है कि भारत में केवल 7 प्रतिशत शहरी महिलाएं
ऐसी हैं, जिनके पास रोजगार है या वे उसकी तलाश कर रही हैं। सीएमआईई के मुताबिक, महिलाओं को
रोजगार देने के मामले में हमारा देश इंडोनेशिया और सऊदी अरब से भी पीछे है। कोरोना महामारी ने
इस समस्या को और गहरा बनाया है।
केन्द्र सरकार की नीति एवं योजनाओं के कारण पिछले कुछ दशकों में महिलाओं के सशक्तिकरण को
लेकर नये कीर्तिमान स्थापित हुए है, महिलाओं ने सार्वजनिक जीवन में भागीदारी से लेकर अर्थव्यवस्था
के मोर्चे तक पर जो अनूठी सफलताएं एवं आत्मनिर्भर होने के मुकाम हासिल किये थे, उसमें कोरोना
काल में तेज गिरावट आई है, जो परेशान कर रही है। सीएमआईई की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में इतनी
कम सं या में शहरी औरतों का रोजगार में होना चिंता का विषय है। कोरोना महाव्याधि के कारणों से उन
सेक्टरों पर सबसे ज्यादा असर पड़ा, जिन पर महिलाएं सीधे तौर पर रोजगार के लिए निर्भर हैं। चाहें
डोमेस्टिक हेल्प हो, स्कूलिंग सेक्टर हो, टूरिज्म या कैटरिंग से जुड़े सेक्टर हो। कोविड-19 संकट के चलते
भारी सं या में महिलाओं को इन सेक्टर से निकाला गया। वहीं, बच्चों के स्कूल बंद हो जाने से महिलाओं
पर उनकी देखरेख का अतिरिक्त बोझ आने से कइयों को अपनी नौकरी छोडऩी पड़ी। इन कारणों से
रोजगार या नौकरी का जो क्षेत्र स्त्रियों के सशक्तिकरण का सबसे बड़ा जरिया रहा है, उसमें इनकी
भागीदारी का अनुपात बेहद चिंताजनक हालात में पहुंच चुका है। गौरतलब है कि बबल एआई की ओर से
इस साल जनवरी से पिछले दो महीने के दौरान कराए गए सर्वेक्षण में ये तथ्य उजागर हुए हैं कि
महिलाओं को कई क्षेत्रों में बड़ा नुकसान उठाना पड़ रहा है। भारतीय संदर्भों के मुताबिक कोविड-19 के
चलते बहुत सारी महिलाओं को अपना रोजगार बीच में ही छोड़ देना पड़ा। इसने श्रम क्षेत्र में महिलाओं
की पहले से ही कम भागीदारी को और कम कर दिया है।
सीएमआईई के अलावा इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन के एक सर्वे में भी डराने वाले तथ्य सामने आया
है कि कोविड-19 से पुरुषों के मुकाबले महिलाओं के रोजगार पर ज्यादा बुरा असर पड़ा है। संस्था ने मुंबई
में एक सर्वे किया और पाया कि जहां तीन-चैथाई पुरुषों के रोजगार पर महामारी ने असर डाला, वहीं
महिलाओं का हिस्सा लगभग 90 प्रतिशत रहा। इसी सर्वे में पाया गया कि पुरुषों के लिए नया रोजगार
पाना महिलाओं के मुकाबले आठ गुना आसान रहा। उदाहरण के लिए पुरुषों ने चीजों को डिलीवर करने
की जॉब कर ली, जो भारत जैसे समाज में महिलाएं आसानी ने नहीं कर सकतीं। सीएमआईई के अनुसार,
साल 2019 में 9.7 फीसदी शहरी महिलाएं लेबर फोर्स का हिस्सा थीं। लेकिन महामारी के दौरान ये हिस्सा
घटकर 6.9 फीसदी हो गया। संस्था ने पूरे भारत में एक लाख 70 हजार परिवारों से बात करने के बाद ये
तथ्य पेश किए हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि कार्यस्थलों पर इकहत्तर फीसद कामकाजी पुरुषों के मुकाबले
महज ग्यारह फीसद रह गई हैं। जाहिर है, बेरोजगारी के आंकड़े भी इन्हीं आधारों पर तय होते हैं। इसमें
शक नहीं कि सामाजिक परिस्थितियों में महिलाओं को रोजाना जिन संघर्षों का सामना करना पड़ता है,
उसमें अब भी उनके हौसले बुलंद है। मगर सच यह भी है कि बहुत मुश्किल से सार्वजनिक जीवन में
अपनी जगह बनाने के बाद अचानक नौकरी और रोजगार गंवा देने का सीधा असर उनके मानसिक
स्वास्थ्य पर पड़ा है और वे उससे भी जूझ रही हैं। यों जब भी किसी देश या समाज में अचानक या
सुनियोजित उथल-पुथल होती है, कोई आपदा, युद्ध एवं राजनीतिक या मनुष्यजनित समस्या खड़ी होती
है तो उसका सबसे ज्यादा नकारात्मक असर स्त्रियों पर पड़ता है और उन्हें ही इसका खामियाजा उठाना
पड़ता है। महामारी के संकट में भी स्त्रियां ही सबसे ज्यादा प्रभावित हुईं। ताजा सर्वे में नौकरियों और
रोजगार के क्षेत्र में उन पर आए संकट पर चिंता जताई गई है। इससे पहले ऐसी रिपोर्ट आ चुकी है कि
कोरोना की वजह से लगाई गई पूर्णबंदी के चलते महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा के मामलों में तेजी से
बढ़ोतरी हुई। सवाल है कि आखिर ऐसी स्थिति क्यों पैदा होती है, जिनमें हर संकट की मार महिलाओं को
ही झेलनी पड़ती है।
महिलाओं के सशक्तिकरण के लिये जरूरी है कि अधिक महिलाओं को रोजगार दिलाने के लिए भारत
सरकार को जरूरी कदम उठाने होंगे। भारत सरकार को केवल आईटी सेक्टर पर ही फोकस करने की
मानसिकता बदलनी होगी। उसे दूसरे सेक्टर में निवेश करने वाली कंपनियों को बुलाना होगा। जैसे
टेक्सटाइल इंडस्ट्री, जो अब बांग्लादेश में शि ट हो गई है, इस इंडस्ट्री में महिलाओं को अच्छा रोजगार
मिलता है। सरकार इसके ऊपर फोकस करना होगा। सरकार को अपनी लैंगिकवादी सोच को छोडऩा
पड़ेगा। भारत सरकार के खुद के कर्मचारियों में केवल 11 प्रतिशत महिलाएं हैं। सरकारी नौकरियों में
महिलाओं के लिये अधिक एवं नये अवसर सामने आने जरूरी है।
दावोस में हुए वल्र्ड इकनॉमिक फोरम में ऑक्सफैम ने अपनी एक रिपोर्ट 'टाइम टू केयरÓ में घरेलू
औरतों की आर्थिक स्थितियों का खुलासा करते हुए दुनिया को चैका दिया था। वे महिलाएं जो अपने घर
को संभालती हैं, परिवार का याल रखती हैं, वह सुबह उठने से लेकर रात के सोने तक अनगिनत सबसे
मुश्किल कामों को करती है। अगर हम यह कहें कि घर संभालना दुनिया का सबसे मुश्किल काम है तो
शायद गलत नहीं होगा। दुनिया में सिर्फ यही एक ऐसा पेशा है, जिसमें 24 घंटे, सातों दिन आप काम पर
रहते हैं, हर रोज क्राइसिस झेलते हैं, हर डेडलाइन को पूरा करते हैं और वह भी बिना छुट्टी के। सोचिए,
इतने सारे कार्य-संपादन के बदले में वह कोई वेतन नहीं लेती। उसके परिश्रम को सामान्यत: घर का
नियमित काम-काज कहकर विशेष महत्व नहीं दिया जाता। साथ ही उसके इस काम को राष्ट्र की उन्नति
में योगभूत होने की संज्ञा भी नहीं मिलती। जबकि उतना काम नौकर-चाकर के द्वारा कराया जाता तो
अवश्य ही एक बड़ी राशि वेतन के रूप में चुकानी पड़ती। दूसरी ओर एक महिला जो किसी कंपनी में
काम करती है, निश्चित अवधि एवं निर्धारित दिनों तक काम करने के बाद उसे एक निर्धारित राशि वेतन
के रूप में मिलती है। उसके इस कार्य को और उसके इस क्रम को राष्ट्रीय उन्नति ( जीडीपी ) में
योगदान के रूप में देखा जाता है। यह माना जाता है कि देश के आर्थिक विकास में अमुक महिला का
योगदान है। प्रश्न है कि घरेलू कामकाजी महिलाओं के श्रम का आर्थिक मूल्यांकन क्यों नहीं किया जाता?
घरेलू महिलाओं के साथ यह दोगला व्यवहार क्यों?
दरअसल, इस तरह के हालात की वजह सामाजिक एवं संकीर्ण सोच रही है। पितृसत्तात्मक समाज-व्यवस्था
में आमतौर पर सत्ता के केंद्र पुरुष रहे और श्रम और संसाधनों के बंटवारे में स्त्रियों को हाशिये पर रखा
गया है। सदियों पहले इस तरह की परंपरा विकसित हुई, लेकिन अफसोस इस बात पर है कि आज जब
दुनिया अपने आधुनिक और स य होने का दावा कर रही है, भारत में नरेन्द्र मोदी सरकार महिलाओं को
बराबरी का दर्जा देने एवं उसके आत्म-स मान के लिये तत्पर है, उसमें भी ज्यादातर हिस्से में स्त्रियों को
संसाधनों में वाजिब भागीदारी का हक नहीं मिल सका है। एक बड़ा प्रश्न है कि आखिर कब तक सभी
वंचनाओं, महामारियों एवं राष्ट्र-संकटों की गाज स्त्रियों पर गिरती रहेगी।