-निर्मल रानी-
अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानों द्वारा दो दशक बाद बलपूर्वक किये गये सत्ता नियंत्रण के बाद एक बार फिर
अफ़ग़ानिस्तान की हुकूमत के अंधकार युग में जाने के क़यास लगाये जाने लगे हैं। संयुक्त राष्ट्र सहित दुनिया के
अनेक देश इस बात को लेकर बहुत चिंतित हैं। मानवाधिकारों के ज़बरदस्त हनन की शंकायें ज़ाहिर की जाने लगी
हैं। तालिबानों की धार्मिक व विशेष सामुदायिक विचारधारा से भिन्न मत रखने वाले अफ़ग़ान नागरिकों को क्रूर
तालिबानों का भय सताने लगा है।
राजधानी काबुल पर नियंत्रण हासिल करते ही जिस तरह इन्होंने बगराम सहित अफ़ग़ानिस्तान की विभिन्न जेलों में
बंद तालिबानियों, अलक़ायदा व आईएसआईएस के समस्त दुर्दांत आतंकियों को रिहा करने का काम किया है उससे
यह साफ़ ज़ाहिर है कि यह शरीफ़, अमन पसंद, प्रगतिशील व उदारवादी समग्र अफ़ग़ानी अवाम के नहीं बल्कि
ओसामा बिन लादेन व मुल्ला उमर की कट्टरपंथी व अतिवादी सशस्त्र आपराधिक सोच के ही प्रतिनिधि हैं। इन
दिनों दुनिया में मुहर्रम भी मनाया जा रहा है। अफ़ग़ानिस्तान में भी शिया व हज़ारा समुदाय के अलावा भी विभिन्न
धर्मों समुदायों के लोग हज़रत मुहम्मद के नवासे हज़रत इमाम हुसैन की शहादत को याद करते हुए मुहर्रम मनाते
हैं।
अफ़ग़ानिस्तान में भी इन दिनों काबुल व अन्य कई शहरों व क़स्बों में हज़रत हुसैन के चाहने वालों ने जगह जगह
'या हुसैन' और 'लब्बैक या हुसैन' लिखे हुए परचम लगाये हुए थे। परन्तु तालिबानों की नफ़रत व वैचारिक
असहिष्णुता से परिपूर्ण जल्दबाज़ी का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 15 अगस्त को ही उन्होंने जहाँ
अपने लड़ाकों को रिहा कराया वहीँ पूरे अफ़ग़ानिस्तान में मुहर्रम व हज़रत हुसैन की याद में लगे सभी परचमों व
निशानों को भी उसी दिन उतार दिया और उसके स्थान पर इस्लामी कलमा 'ला इलाहा इल्लल्लाह ' लिखा परचम
लगा दिया। ग़ौर तलब है कि इसी तरह का इस्लामी कलमा लिखा हुआ परचम आई एस आई एस के आतंकवादी
भी इस्तेमाल करते रहे हैं। मस्जिदों, मक़बरों, दरगाहों व रौज़ों पर हमले के समय भी और बेक़ुसूर लोगों की
सामूहिक हत्याएं करते समय भी इस्लामी कलमा लिखा हुआ परचम इन हत्यारे आतंकियों के हाथों में हुआ करता
था।
इनका इरादा पाश्चात्य संस्कृति के विरोध के नाम पर अपनी कटटरपंथी व रूढ़िवादी सोच को शरीया के नाम पर
आम अफ़ग़ानी नागरिकों पर थोपने का है। शिक्षा, विशेषकर कन्याओं व युवतियों की शिक्षा के यह सख़्त विरोधी हैं।
जबकि किसी भी देश धर्म के किसी भी समाज की प्रगति का पहला मूल मन्त्र ही उस समाज की महिलाओं का
शिक्षित होना है। कितना हास्यास्पद व विरोधाभासी है कि इन्हीं धर्म के ठेकेदारों को महिलाओं का शिक्षित होना
पसंद नहीं, महिलाओं के शिक्षण संसथान इन्हें पसंद नहीं। गत तीन दशकों में इनके द्वारा अब तक सैकड़ों स्कूल
ध्वस्त कर दिए गये। परन्तु यदि इन्हीं के घर परिवार की किसी महिला को डॉक्टर को दिखने की ज़रुरत पड़े तो
यही लोग महिला चिकित्सक ढूंढने लगते हैं। आख़िर रूढ़िवादियों का यह कैसा दोहरा चरित्र है?
अपनी लड़कियों को पढ़ाकर डॉक्टर इसलिये नहीं बनाना कि इन्हें उसके बाहर निकलने से उसके 'चरित्र हनन' का
ख़तरा है परन्तु किसी दूसरे प्रगतिशील समाज के व्यक्ति ने यदि अपनी लड़की को उसके 'चरित्र हनन' का ख़तरा
उठाते हुए उसे डॉक्टर बनाया है तो इनको उसकी सेवायें ज़रूर चाहिए? इसके अतिरिक्त महिलाओं का खेल कूद,
संगीत, सिनेमा हॉल, सह शिक्षा, फ़ैशन, पुरुष व महिलाओं का एक साथ घूमना फिरना या बात करना, प्यार-
मुहब्बत इन्हें कुछ भी पसंद नहीं। धार्मिक वेश, लिबास, बुर्क़ा यहाँ तक कि इनके अपनी जैसी लंबी दाढ़ी रखने को
भी यह अनिवार्य करना चाह रहे हैं। क्या मर्द तो क्या औरतें सभी को सार्वजनिक रूप से अमानवीय तरीक़े से
सज़ाएं देना इनकी ख़ास 'कारगुज़ारियों' में शामिल है।
जबसे अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबानों का सम्पूर्ण नियंत्रण हुआ है तभी से संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनिओ गुतेरेस
कई बार अफ़ग़ानिस्तान के हालात के प्रति अपनी चिंता ज़ाहिर कर चुके हैं। उनकी चिंता ख़ास तौर पर वहां की
महिलाओं को लेकर है। इसमें कोई शक नहीं कि तालिबानी वर्चस्व के बाद अफ़ग़ानिस्तान की हर धर्म व समाज की
महिलाओं के भविष्य पर एक बड़ा सवालिया निशान लगने वाला है। शरीया के नाम पर उनकी स्वतंत्रता, शिक्षा,
अधिकार, तरक़्क़ी, खेलकूद, मनोरंजन सब कुछ एक बार फिर दांव पर लग गया है। आज जो तालिबानी लड़ाके ख़ुद
को इस्लाम और शरीया का वारिस बता कर औरतों को अबला व असहाय बनाने तथा उन्हें ग़ुलामी की बेड़ियों में
जकड़ने की तैय्यारी कर रहे हैं उन्हें कम से कम एक नज़र पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद की धर्मपत्नी बीबी ख़दीजा की
जीवनी पर तो ज़रूर नज़र डालनी चाहिये।
बीबी ख़दीजा अरब के एक सबसे बड़े व्यवसायिक घराने से न केवल संबंध रखती थीं बल्कि स्वयं बड़े से बड़ा
व्यवसाय करती थीं। महिला होकर भी वे ख़ुद अपने पूरे क़ाफ़िले के साथ जिसमें अधिकांशतयः पुरुष ही होते थे,
अरब व अरब के बाहर के देशों में भी जाया करती थीं। उस व्यवसायिक आमदनी का बड़ा हिस्सा वे अपने पति
हज़रत मुहम्मद द्वारा चलाये जा रहे इस्लाम धर्म व उसके प्रचार प्रसार व इसकी अन्य ज़रूरतों को पूरा करने पर
ख़र्च करती थीं। वही बीबी ख़दीजा व उनकी इकलौती बेटी हज़रत फ़ातिमा लड़कियों की तरक़्क़ी, शिक्षा व
आत्मनिर्भरता की पैरोकार थीं। परन्तु आज रूढ़िवादी केवल वेश बना कर, दाढ़ियां रखकर और इस्लामी कलमा का
झंडा बुलंद कर आम बेगुनाह लोगों विशेषकर महिलाओं पर ज़ुल्म ढहा कर ख़ुद को इस्लामी शरीया क़ानून व
इस्लाम का वारिस बता रहे हैं?
तालिबान के प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने हालांकि तालिबानों से भयभीत लड़कियों को संबोधित करते हुए यह ज़रूर कहा
है कि उन्हें डरना नहीं चाहिए। तालिबान के प्रवक्ता ने यह विश्वास दिलाया है कि ''हम उनकी इज़्ज़त, संपत्ति, काम
और पढ़ाई करने के अधिकार की रक्षा करने के लिए समर्पित हैं। ऐसे में उन्हें चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। उन्हें
काम करने से लेकर पढ़ाई करने के लिए भी पिछली सरकार से बेहतर स्थितियाँ मिलेंगी'। तालिबानों ने महिलाओं
को राजनैतिक प्रतिनिधित्व दिये जाने व उन्हें सभी क्षेत्रों में कामकाज का अवसर दिए जाने का भी वादा किया है।
परन्तु तालिबानों द्वारा महिलाओं के प्रति दो दशक पूर्व किये गए बर्ताव का ही नतीजा है कि आज वहां महिलायें व
लड़कियाँ तालिबानों की वापसी से काफ़ी भयभीत हैं वे अपने अस्तित्व को लेकर चिंतित हैं क्योंकि उन्हें यक़ीन है
कि तालिबानी दौर-ए-हुकूमत में न तो वे नौकरी कर सकेंगी न ही लड़कियाँ शिक्षित हो सकेंगी। और यदि ऐसा हुआ
तो निश्चित रूप से यह अत्यंत दुखदायी व भयावह होगा। तालिबानी शासन में बढ़ती इस तरह की चिंताओं ने एक
बार फिर यह सोचने के लिए विवश कर दिया है कि विभिन्न धर्मों में आख़िर महिलायें ही सबसे अधिक धार्मिक
अतिवाद व रूढ़िवादिता का शिकार क्यों हैं?