अशोक कुमार यादव मुंगेली
फटे,पुराने कपड़ों में लिपटी है,गरीबों की गरीबी।
भूखा पेट भरता नहीं कभी,ये कैसी है बदनसीबी?
रोटी के लिए मजदूर के मन में धधकी ज्वाला।
अमीरों की चाबी ने गरीबों के घर लगाई ताला।।
झोपड़ी मानो भूत बंगले का कमरा लग रही है।
नींद में ऊँघते हुए दरवाजे दुःख की बातें कही है।।
रसोई के बर्तनों से चीखने की आ रही आवाज।
अन्न के खाली डिब्बे दाने-दाने को है मोहताज।।
चूल्हा का मन मचल रहा, माचिस से जलने को।
पास में लकड़ी शांत बैठी, आया दिन ढलने को।।
हैंडपंप का शीतल पानी, मारे गुस्से से उबल रही।
हांडी का मन, पानी पीने के लिए खूब मचल रही।।
खटिया, दो पैर में अडिग खड़ा है करते योगासन।
कथरी और चटाई लटक रही रस्सी में अनुशासन।।
बड़ा कुत्ता लोहे की हथकड़ी पहने काट रहा सजा।
घर-घर घुमने वाली बिल्ली झाँक कर ले रही मजा।।
हवा में नाचते हुए राह देख रहा पुरानी लंबा झाडू।
अभी तक वापस लौटा नहीं मेहनत करके समारू।।
कोई रात के सन्नाटे में चला आ रहा विश्वात्मा समान?
लगता है यही घर का मालिक है वही गरीब इंसान।।