विनय गुप्ता
भोपाल के ऐशबाग क्षेत्र में ‘फकीरी’ और पन्नी बीनने वाले समुदाय के बच्चों को शिक्षा से जोड़ने का काम कर रही
एक सामाजिक संस्था ने दो साल की पुरजोर कोशिशों के बाद आखिरकार 40 बच्चों को स्कूल भेजना शुरू किया।
भारत में आज भी ऐसे कई समुदाय हैं जिनकी कोई भी पीढ़ी कभी, किसी स्कूल की ड्योढ़ी नहीं चढ़ पाई है।
लिहाजा यह बहुत ही अनिवार्य हस्तक्षेप बनकर उभरा। इसी बीच कोरोना महामारी आई और मार्च 2020 से स्कूल
पूरी तरह से बंद हो गए। निजी स्कूलों में तो ऑनलाइन पढ़ाई शुरू हो गई और बच्चे व्यस्त होते गए। सरकारी
स्कूलों में भी बच्चों तक पहुंचने के कई जतन शुरू हुए जिनमें मोहल्ला कक्षाएं और दूरदर्शन-मोबाइल के माध्यम से
पढ़ाना आदि शामिल था। पर यह प्रयोग उस हद तक सफल नहीं हुए जैसा अपेक्षित थे। उसके पीछे कई वाजिब
कारण भी थे, घरों में एक मोबाइल होना और वह भी किसी वयस्क के पास होना, एनड्रायड मोबाइल का न होना
तथा परिवार जनों और स्वयं इन बच्चों की भी शिक्षा के प्रति उदासीनता आदि।
इस तरह की स्थितियों के चलते बच्चों की शिक्षा से दूरी बढ़ती गई। कोरोना तालाबंदी ने इस तरह के परिवारों के
समक्ष भुखमरी के हालात भी पैदा किए और इससे उपजे आर्थिक दवाब से ‘फकीरी’ समुदाय के इन 40 बच्चों में से
अभी 30 बच्चे पन्नी बीनने का अपना पुराना काम करने लगे। कोरोना की दूसरी लहर की तालाबंदी में भी लाखों
लोग बेरोजगार हुए हैं जिससे महिलाओं और बच्चों पर दवाब बढ़ रहा है। बेरोजगार होने का तत्काल नुकसान यह है
कि परिवारों के सामने भोजन, पानी, चिकित्सा सहित अन्य मूल आवश्यकताओं को पूरा करने का यक्ष प्रश्न खड़ा
होता है। हम यह भी जानते हैं कि जब भी परिवार की आय प्रभावित होती है तो बच्चों का बचपन दांव पर लगने
लगता है। ऐसे में बच्चे अधिक मेहनत तथा शोषण वाले काम करने को मजबूर हो रहे हैं। इससे लैंगिक असमानता
और विकट होने लगती है तथा घरेलू काम और कृषि में लड़कियों का शोषण और बढ़ने की आशंका होने लगती है।
स्कूलों के अस्थायी तौर पर बंद होने से न केवल भारत, बल्कि 130 से अधिक देशों में एक अरब से अधिक बच्चे
प्रभावित हो रहे हैं। अब जबकि स्कूल खुलेंगे तो भी शायद कुछ पालक, उनकी शिक्षा का खर्चा उठाने में सक्षम नहीं
होने के कारण बच्चों को स्कूल नहीं भेज पाएंगे। जाहिर है, जब बच्चे स्कूल नहीं जाएंगे तो उनके बाल मजदूरी में
धकेले जाने की आशंका बढ़ जाएगी।
इसी बात की तस्दीक करती एक रिपोर्ट अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) और यूनिसेफ ने विगत वर्ष (2020)
जारी की थी जिसका शीर्षक था ‘कोविड-19 तथा बाल श्रम संकट का समय, काम करने का वक्त।’ इस रिपोर्ट
में आशंका व्यक्त की गई थी कि कोविड-19 संकट के कारण लाखों बच्चों को बाल श्रम में धकेले जाने की आशंका
है। जो बच्चे पहले से बाल श्रमिक हैं, उन्हें और लंबे वक्त तक या और अधिक खराब परिस्थतियों में काम करना
पड़ सकता है। आज इस रिपोर्ट की अधिकांश आशंकाएं सच साबित होने लगी हैं। अभी भोपाल के शहरी क्षेत्रों में
किशोरी लड़कियों का अपनी मां के साथ घरेलू काम-काज में जाना बढ़ने लगा है। लड़के सब्जी-फल बेचने में अपने
पिता-भाई के साथ सड़कों पर आसानी से दिखने लगे हैं। वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि से जुड़े कामों में तथा बंधुआ की
तरह काम करने का चलन बढ़ा है। एक तरफ तो बच्चे काम करने को मजबूर हो रहे हैं, दूसरी तरफ कानूनी
विसंगतियां भी इन हालात को बदतर बनाती हैं। भारत के मौजूदा बाल श्रम कानून के अनुसार 14 वर्ष से नीचे का
बच्चा यदि अपने परिवार को छोड़ अन्य कहीं पर काम करता है तो उसे मजदूर की श्रेणी में माना जाएगा, लेकिन
जैसे ही वह बच्चा अपने पारिवारिक (विस्तारित) प्रतिष्ठान-व्यवसाय में हाथ बंटाता है तो उसे बाल मजदूर नहीं
माना जाएगा। इसी प्रकार 14 वर्ष से ऊपर, किंतु 18 वर्ष से कम उम्र का किशोर यदि किसी खतरनाक उद्योग में
काम करता है तो ही उसे बाल मजदूर की श्रेणी में रखा जा सकता है।
कानून के इस प्रावधान के विपरीत बाल श्रम विरोधी अभियान (सीएसीएल) का एक अलग ही दृष्टिकोण है।
सीएसीएल के मध्यप्रदेश राज्य संयोजक राजीव भार्गव कहते हैं कि अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के अनुरूप हमारा
मानना है कि 18 वर्ष से नीचे किसी भी बच्चे से काम नहीं कराया जाना चाहिए। सामान्य तौर पर परिस्थितियां
ऐसी बनाई जाएं कि उन्हें काम ही न करना पड़े। भार्गव कहते हैं कि कोरोना महामारी के चलते बच्चों के काम में
जाने की दर पिछली साल भी बढ़ी थी और इस साल ऐसी आशंका है कि यह बहुत तेजी से बढ़ेगी। वे बताते हैं कि
सीएसीएल के 23 जिलों (मध्यप्रदेश-21 जिले, छत्तीसगढ़-2 जिले) में किए गए अध्ययन के नतीजों के मुताबिक 86
प्रतिशत बच्चे किसी न किसी तरह की आर्थिक गतिविधि में संलग्न रहे हैं। सीएसीएल की हाल ही में हुई प्रदेश
स्तरीय संगोष्ठी में बच्चों ने काम करने की स्थितियों पर चिंता जताते हुए बहुत ही स्पष्ट रूप से कहा कि 18
साल से कम उम्र के बच्चों का किसी भी रूप में काम करना ठीक नहीं है। यह बच्चों को उसके अधिकारों और
तमाम तरह के अवसरों से वंचित रखता है और उन्हें असमय बड़ा बनाता है। बच्चों का काम स्कूल जाना है, न कि
मजदूरी करना। बाल मजदूरी बच्चों से स्कूल जाने का अधिकार छीन लेती है और वे पीढ़ी दर पीढ़ी गरीबी के
चक्रव्यूह से बाहर नहीं निकल पाते हैं। बाल मजदूरी शिक्षा में बहुत बड़ी रुकावट है, जिससे बच्चों के स्कूल जाने में
उनकी उपस्थिति और प्रदर्शन पर खराब प्रभाव पड़ता है।
बच्चों ने इस संगोष्ठी में यह सवाल भी पूछा कि बच्चों के काम करने को कोई भी कैसे न्यायसंगत बता सकता
है! उपरोक्त स्थितियों के मद्देनज़र वर्ष 2025 तक बाल श्रम पर रोक लगाने का लक्ष्य वैश्विक वास्तविकताओं से
परे नजर आता है। संकट के समय सामाजिक सुरक्षा महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इससे सबसे अधिक कमजोर लोगों को
मदद मिलती है। ऐसी नीतियां बनाई जानी चाहिए जो काम करने वाले बच्चों और उनके परिवारों को विभिन्न
अनुभवों और इससे निपटने में मदद कर सकें। सरकारों ने कुछ पहल तो शुरू की है, लेकिन यह समय है जबकि
केंद्रित पहल शुरू की जानी चाहिए। समेकित बाल संरक्षण योजना (आईसीपीएस) के माध्यम से संभावित परिवारों
का चयन कर उन्हें आर्थिक मदद उपलब्ध कराई जाए ताकि बच्चों को बाल मजदूरी में जाने से बचाया जा सके।
इस पूरी प्रक्रिया में शिक्षक भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। वे बच्चों को उदार रवैया अपना कर फिर से
शिक्षा की तरफ मोड़ सकते हैं। शनिवार को अंतरराष्ट्रीय बाल श्रम निषेध दिवस पर पूरी दुनिया से एक आह्वान
होना ही चाहिए कि हमें बच्चों को मजदूरी से बाहर निकालना है।