भारी, मूसलाधार बारिश और बाढ़ के हालात सिर्फ आसमानी कहर नहीं हैं, बल्कि ये व्यापक भ्रष्टाचार के नतीजे हैं। इमें हड़प्पा, मोहनजोदड़ो सभ्यता के बारे में पढ़ाया जाता रहा है। सभ्यता के उस दौर में भी डे्रनेज सिस्टम बेहतर था। आज हम आधुनिकता, तकनीकी विकास और वैज्ञानिक प्रयोगों के दौर में जी रहे हैं, लेकिन मानसून की बारिश के सामने अक्षम, लाचार, बेबस हैं। आखिर इसका बुनियादी कारण क्या है? राजधानी दिल्ली का ही उदाहरण लें, तो बीती 28 जून तक सभी नालों की सफाई का लक्ष्य हासिल कर लेना चाहिए था, लेकिन 30 जून तक करीब 68 फीसदी काम ही हो पाया था। जब तेज बारिश हुई, तो कलई खुल गई, क्योंकि अधिकतर नाले ब्लॉक पड़े थे। नतीजतन दिल्ली की जो दुर्दशा हुई, उसकी एक बानगी हम कल के संपादकीय में पेश कर चुके हैं। अब इसका भ्रष्ट आयाम भी देखिए। दरअसल दिल्ली में हर साल 1500 करोड़ रुपए बारिश की तैयारियों, डे्रनेज, सीवर, नालों की सफाई आदि पर खर्च किए जाते हैं। पानी की सहज निकासी के लिए हजारों पंप खरीदे जाते हैं। यदि यह बजट ईमानदारी से खर्च किया जाता है, तो फिर राजधानी दिल्ली जैसा महानगर पानी में डूबने क्यों लगता है? सब कुछ ठहर-सा क्यों जाता है? इसी तरह गुरुग्राम सरीखे साइबर और आधुनिक शहर में, बारिश की तैयारी के मद्देनजर, करीब 150 करोड़ रुपए का प्रावधान है, लेकिन बरसात में इस शहर की दुर्दशा और गंदे दरिया वाली स्थिति क्यों बन जाती है? गुरुग्राम मलबे का तालाब बन जाता है, जिसमें से वाहनों की आवाजाही ऐसी होती है मानो किसी ‘चक्रव्यूह’ से निकल रहे हों! वाकई शोचनीय और अपमानजनक है।
वह पैसा भी कहां जाता है? अजीब विरोधाभास है कि गुरुग्राम में संभ्रान्त सोसायटी के फ्लैट 5-8-10 करोड़ रुपए में बिकते हैं। दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियों के दफ्तर यहां हैं, लेकिन मुख्य सडक़ों पर पानी और मलबा ही दिखाई देते हैं। यह नालायकी और कोताही क्यों है? आखिर कौन, किसकी जिम्मेदारी तय करेगा? विश्व स्तर पर यह निंदनीय और शर्मनाक स्थिति हो सकती है। दरअसल राजधानी दिल्ली और उसके आसपास के शहरों में अंग्रेजों के जमाने के सिस्टम मौजूद हैं, लिहाजा वे कारगर नहीं हैं और जर्जर हो चुके हैं। दिल्ली में 1976 का ही मॉडल लागू है, जब उसकी आबादी करीब 60 लाख होती थी। वह आज 2.5 करोड़ से अधिक है। फिर दिल्ली ‘दरिया’ क्यों नहीं बनेगी? समस्या अवैध और अनियमित कॉलोनियों की भी है। इन आवासीय कॉलोनियों में सडक़, नाली, सीवर आदि की पर्याप्त व्यवस्था नहीं होती, नतीजतन बारिश के मौसम में वहां पानी ठहरता रहता है। इससे शहर के अन्य इलाके भी प्रभावित होते हैं। एक और बुनियादी स्थिति यह है कि शहरी नियोजन में प्राकृतिक जल-निकासी की लगातार अनदेखी की जाती रही है। इसके अलावा, सीवर ओवरफ्लो भी गंभीर समस्या है। कई जगह सीवर और सीवेज निस्तारण वाले स्थान में असमानता होती है। राजधानी दिल्ली में आईटीओ चौक के करीब सीवर का गंदा पानी और बारिश का पानी मिल कर पुलिस मुख्यालय से लेकर रिंग रोड तक को जलमग्न कर देता है। यह हाल तो देश की राजधानी का है। एक बेहद गंभीर समस्या मकानों के निर्माण-कार्य, मरम्मत, तोड़-फोड़ आदि से निकलने वाले कूड़ा-कर्कट और मलबे की है। ये लगातार पानी के प्रवाह को अवरुद्ध करते हैं और बारिश के दिनों में यही मलबा सडक़ों पर फैल जाता है। इन तमाम स्थितियों के गर्भ में भ्रष्टाचार है। पहाड़ों को छोड़ भी दें, तो दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, उप्र का एक हिस्सा और बिहार आदि राज्य अब भी ‘अलर्ट’ पर रखे गए हैं। बारिश और बाढ़ से अभी तक करीब 100 मौतें हो चुकी हैं। यह कोई सामान्य आंकड़ा नहीं है। आखिर देश का नागरिक मर रहा है। ऐसी स्थिति क्यों आई है? दो माह बाद दिल्ली में जी-20 देशों का शिखर सम्मेलन है। उसमें दुनिया के 20 बड़े देशों के राष्ट्राध्यक्षों को दिल्ली में आना है। कुछ अनहोनी घट गई, तो भारत क्या कहेगा?