-तनवीर जाफ़री-
संयुक्त राष्ट्र द्वारा हाल ही में जारी किये गये आंकड़ों के मुताबिक़ भारत इसी वर्ष अर्थात 2023 के मध्य तक चीन की जनसंख्या को पछाड़ता हुआ दुनिया का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बन जायेगा। हालांकि भारत में अंतिम बार जनगणना 2011 में हुई थी उस के बाद से अब तक जनगणना ही नहीं हुई है इसलिए मौजूदा वर्ष 2023 में भारत की वास्तविक जनसंख्या क्या है। लिहाज़ा किस आधार पर संयुक्त राष्ट्र द्वारा भारत के चीनी जनसंख्या को पीछे छोड़ने का दावा किया गया है? स्वयं संयुक्त राष्ट्र के कुछ विशेषज्ञ यह स्वीकार करते हैं कि भारत सरकार ने 2019 के बाद “सैंपल सर्वे के आंकड़े भी जारी नहीं किए हैं। अभी तक 2020, 2021 और 2022 के असली आधिकारिक आंकड़े ही बाहर नहीं आए हैं। लिहाज़ा जो भी अनुमान लगाए गये हैं वह पिछले आंकड़ों और 2019 तक की विभिन्न स्रोतों से मिली जानकारियों पर ही आधारित है। जनसंख्या वृद्धि के आंकड़े बताते हैं कि भारत की आबादी 1950 से लेकर 1980 के बीच तेज़ी से बढ़ी है। 1951 में भारत की जनसंख्या 36.1 करोड़ थी जो 1981 में बढ़ कर 68.3 करोड़ हो गई थी। अर्थात इस दौरान भारत की आबादी में 32.2 करोड़ की वृद्धि हुई थी। संयुक्त राष्ट्र के अनुमानानुसार, विगत 70 वर्षों में भारत की जनसंख्या में एक अरब की रिकार्ड वृद्धि हुई है। इन्हीं अनुमानों व आंकड़ों के अनुसार भारत की जनसंख्या 1.428 अरब हो जाएगी जो कि यूरोप की 74.4 करोड़ या अमेरिकी महाद्वीप की 1.04 अरब की जनसंख्या से भी अधिक है।
परन्तु आंकड़े यह भी बता रहे हैं कि बीते तीन दशक के दौरान जनसंख्या वृद्धि की रफ़्तार धीमी होनी शुरू हुई है। भारतीय जनसंख्या हालांकि अभी भी बढ़ तो रही है परन्तु जनसंख्या वृद्धि दर 40 वर्ष पूर्व जैसी नहीं है। जनसंख्या नियंत्रण हेतु भारत में सरकारी स्तर पर किये गये तरह तरह के प्रयास व जागरूकता मिशन का भी जनसंख्या नियंत्रण में अहम योगदान रहा है। दशकों पूर्व सरकार द्वारा ‘हम दो हमारे दो ‘ के नारे का राष्ट्रीय स्तर पर प्रचार किया गया था। नसबंदी व जनसंख्या नियंत्रण के दूसरे कई लोकलुभावन उपायों का भी सरकारी स्तर पर ज़ोरदार प्रचार किया गया। यहां तक कि आपातकाल के दौरान नसबंदी के नाम पर ज़बरदस्ती किये जाने के आरोप का भी सामना उस समय की कांग्रेस सरकार को करना पड़ा। इन सबसे अलग देश का प्रबुद्ध वर्ग जहां भारत में बेतहाशा बढ़ती आबादी का कारण ग़रीबी,अशिक्षा अज्ञानता तथा दूरदृष्टि की कमी बताता रहा है वहीं साम्प्रदायिकतावादियों का एक वर्ग ऐसा भी है जो बढ़ती जनसंख्या के लिये भारतीय मुसलमानों को ज़िम्मेदार ठहरता रहा है। और इसे राजनीति के मुख्य शस्त्र के तौर पर इस्तेमाल करता आया है।
एक ओर तो देश की सरकार दशकों से अरबों रूपये ख़र्च कर तरह तरह की योजनायें बनाकर देश में जनसंख्या नियंत्रण की कोशिशों में लगी हुई है वहीँ दूसरी ओर मुसलामानों की जनसंख्या वृद्धि का हौव्वा खड़ा कर देश की बहुसंख्य आबादी में भय पैदा करने की कोशिश की जाती रही है। और अपनी इन्हीं कोशिशों के तहत तरह तरह की मिथ्या बातें भी बड़े बड़े धार्मिक मंचों यहाँ तक कि ‘धर्म संसद ‘ कहे जाने वाले मंच से भी की जाती रही हैं। कई स्वयंभू धर्मगुरु बार बार अपने समर्थकों के बीच हिन्दू समुदाय के लोगों से तीन से चार बच्चे तक पैदा करने का आह्वान कर चुके हैं। स्वयं को शंकराचार्य बताने वाले एक संत फ़रमा चुके हैं कि ‘मोदी को फिर से पी एम बनाने के लिये हिन्दू दस बच्चे पैदा करें’। कोई संत कहता है कि यदि हिन्दू महिलाओं ने चार से अधिक बच्चे पैदा नहीं किये तो पछताना पड़ेगा। एक साध्वी फ़रमाती हैं कि हिन्दू चार बच्चे पैदा करें उनमें से दो बच्चे आर एस एस को दें और दो विश्व हिंदू परिषद के सुपुर्द करें। तो एक और साध्वी अपना ज्ञान बांटते हुये कहती हैं कि हिन्दू तीन बच्चे पैदा करें इनमें से एक देश के नाम करें दूसरा घर चलने के लिये अपने पास रखें और तीसरे को सेना में भेजें। यही साध्वी अपने नफ़रती बोल में यह भी कहती हैं कि ‘मुसलमानों के लिये बीस बच्चे अल्लाह की देन हैं जिन्हें वे पैदा कर सड़कों पर छोड़ देते हैं। यदि अल्लाह उनपर मेहरबान हो सकता है तो भगवान भी हिन्दुओं पर दयालु क्यों नहीं हो सकता’। इस तरह न केवल हज़ारों धर्मगुरु देश के बहुसंख्य समाज में अल्पसंख्यक वर्ग का भय पैदा कर समुदाय विशेष के लोगों से जनसंख्या वृद्धि करने का आह्वान करते रहे हैं बल्कि इसी सोच के दक्षिणपंथी नेता भी 5 -25 जैसी बातें सार्वजनिक तौर से करते रहे हैं।
नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे के आंकड़ों के अनुसार तो भारत के सभी धार्मिक समूहों में प्रजनन दर कम हो रही है। हिंदू भारत की जनसंख्या का लगभग 80 फीसदी हैं और इस धार्मिक समूह में प्रजनन दर प्रति महिला 1.9 जन्म है। जबकि 1992 में हिन्दू प्रजनन दर प्रति महिला 3.3 थी। इसी प्रकार मुसलमानों में भी 1992 के बाद प्रजनन दर में तेज़ी से गिरावट दर्ज की गई। यहां तक कि जैन, बौद्ध, सिख, ईसाई, मुस्लिम और हिंदू समूहों में भी प्रति व्यक्ति प्रजनन दर पहले से कम हुई है। महिला जन्म दर की गिरावट मुसलमानों में हिंदुओं के मुक़ाबले अधिक है। ये 1992 में 4.4 जन्म थी जो 2019 में गिरकर 2.4 हो गई। निश्चित रूप से यह देश के शिक्षित व जागरूक होने व जनसंख्या नियंत्रण सम्बन्धी सरकारी योजनाओं के क्रियान्वन का ही परिणाम है। जन्म दर में गिरावट शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य सेवाओं तक आम लोगों की बेहतर पहुंच के कारण ही संभव हो सकी है। परन्तु सवाल यह है कि जब देश की सरकार जनसंख्या नियंत्रण पर हज़ारों करोड़ रूपये ख़र्च कर चुकी हो और अब भी इस योजना को प्रोत्साहित करती हो ऐसे में जनसंख्या नियंत्रण की सरकारी नीति के विरुद्ध जनसंख्या वृद्धि के लिये देश की बड़ी आबादी को धर्मगुरुओं व राजनेताओं द्वारा वरग़लाना भी भारत में जनसंख्या विस्फ़ोट का कारक है? जो धर्म गुरु अपना प्रवचन सुनाने के लिये हज़ारों लाखों लोगों को इकठ्ठा करने का सामर्थ्य रखते हों क्या उनके भक्तगण उनकी बातें मानकर जनसंख्या वृद्धि की दिशा में आगे नहीं बढ़ेंगे? मज़े की बात तो यह है कि बच्चे अधिक पैदा करने का ज्ञान तो धर्मगुरु व नेता सारे ही देते हैं परन्तु उनका पालन पोषण, उनकी शिक्षा व रोज़गार की बात कोई नहीं करता? दरअसल भारत में जनसंख्या विस्फ़ोट की हक़ीक़त कुछ और है और फ़साना कुछ और ही गढ़ा जा रहा है।