अर्पित गुप्ता
वर्तमान में सम्पूर्ण विश्व को चीन ने झकझोर कर रख दिया है। कई जानकारों का मानना है कि कोरोना वायरस
को चीन ने समझ-बूझकर साजिश के तहत अपनी प्रयोगशाला में बनाया है। यदि ऐसा है तो भी यह विचारणीय है
कि है कि चीन जीन को परिवर्तित करने की तकनीक में इतना आगे निकल गया है कि वह इस प्रकार के वायरस
को बनाकर सम्पूर्ण विश्व को हिला सकता है। यह बात जेनेटिक्स ही नहीं, अन्य क्षेत्रों पर भी लागू होती है। दिल्ली
स्थित ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के अनुसार तकनीकी दृष्टि से कई क्षेत्रों में चीन विश्व में अग्रणी है। एक, हाइपर
सोनिक्स यानि ध्वनी की गति से अधिक तेज चलने की तकनीक है। दूसरा, 5-जी इन्टरनेट तकनीक, तीसरा,
आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस विशेषकर कम्प्यूटर के माध्यम से किसी चेहरे को पहचानने की तकनीक। ऑब्जर्वर रिसर्च
फाउंडेशन का मानना है कि आने वाले समय में जो देश तकनीकी दृष्टि से आगे रहेगा, उसी का विश्व पर दबदबा
रहेगा। आने वाले समय के लिए प्रभावी तकनीकों में उन्होंने पहला बताया है 5-जी, जिसमें पहले ही चीन सबसे
आगे है। दूसरा है-आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस जिसके एक हिस्से यानी आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस के माध्यम से चेहर की
पहचान करना में चीन आगे है। आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस के दूसरे क्षेत्रों में अमेरिका अथवा अन्य देश अग्रणी हैं।
तीसरा है-इन्टरनेट ऑफ़ थिंग्स जैसे दरवाजे पर लगे कैमरे से आपकी पहचान करने के बाद दरवाजे का स्वयं खुल
जाना यानी वस्तुओं को इंटरनेट से संचालित करना। चौथा है 3-डी प्रिंटिंग जैसे किसी विशेष आकार का डुप्लीकेट
बना देना; और पांचवां है रोबोट। हमारे सामने प्रश्न है कि भविष्य के लिए इन प्रभावी तकनीकों में क्या चीन उसी
प्रकार अग्रणी बन जायेगा जैसा कि वह जेनेटिक्स और हाइपरसोनिक्स में पहले ही अग्रणी बन चुका है?
तकनीकी आविष्कारों पर पेटेंट लेने के लिए वर्ल्ड इन्टेलेक्टयूअल प्रोपर्टी ऑर्गनाइजेशन (वाईपो) में आविष्कारक
द्वारा पेटेंट हासिल करने की अर्जी दाखिल की जाती है। इस अर्जी को दाखिल करने के बाद पेटेंट धारक के पास
सम्पूर्ण विश्व में उस तकनीक के वाणिज्यिक उपयोग पर एकाधिकार स्थापित हो जाता है। पेटेंट की अर्जियों को
दाखिल करने में अब तक अमेरिका अग्रणी था। लेकिन गत वर्ष 2019 में चीन ने 59000 अर्जियां दाखिल कीं
जबकि अमरीका ने उससे कम 58000 अर्जियां दाखिल की हैं। इस प्रकार चीन विश्व में तकनीकी आविष्कारों में
भी अग्रणी बन गया है। भारत ने लगभग 30000 अर्जियां दाखिल कीं जो कि लगभग चीन की आधी हैं।
यदि हार्वर्ड बिजनेस रिव्यू के 2014 के लेख की मानें तो चीन की तकनीकी महारत के पीछे सरकार द्वारा निवेश
और राजनितिक प्रोत्साहन है। अतः हमें देखना होगा कि नई तकनीकों के अविष्कार में भारत निवेश क्यों नहीं कर
पा रहा है और राजनीतिक प्रोत्साहन क्यों नहीं दे पा रहा है? निवेश की बात करें तो 2 वर्ष पूर्व के आर्थिक सर्वेक्षण
में कहा गया कि पिछले 20 वर्षों से भारत द्वारा रिसर्च में सम्पूर्ण देश की आय यानी ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट
अथवा जीडीपी का केवल 0.7 प्रतिशत हर वर्ष निवेश किया जा रहा है। इसके सामने कोरिया और इजराईल अपनी
जीडीपी का 4.6 प्रतिशत और चीन 2.1 प्रतिशत रिसर्च में निवेश कर रहे हैं। चीन से तुलना करें तो चीन का
जीडीपी भारत की तुलना में लगभग 5 गुणा है। इसलिए यदि भारत का जीडीपी 1000 रुपये है तो उसमें 0.7
प्रतिशत की दर से हम 7 रुपये रिसर्च में निवेश करते हैं। जबकि उसी समय चीन का जीडीपी 5000 रुपये होगा
और 2.1 प्रतिशत की दर से वह देश 105 रुपये रिसर्च में निवेश कर रहा होगा। इस प्रकार भारत द्वारा रिसर्च में
निवेश चीन की तुलना में केवल 7 प्रतिशत बैठता है। यह भारत के वैज्ञानिकों की कुशलता है कि इतनी कम रकम
के बावजूद उन्होंने वाईपो में 30000 पेटेंट की अर्जियां दाखिल की हैं। लेकिन इससे बात नहीं बन रही है। चीन
हमसे बहुत आगे निकल चुका है। हमें और आगे जाने की जरूरत है।
अब प्रश्न यह है कि बीस वर्षों से ही हमारा निवेश इस न्यून स्तर पर क्यों अटका हुआ है? मेरा मानना है कि
लगभग 20 वर्ष पूर्व 1998 में पांचवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू हुईं थीं और सरकारी कर्मियों के वेतन और
पेंशन में भारी वृद्धि की गयी थी। आज भारत द्वारा सरकारी कर्मियों को देश की औसत आय का 4.6 गुणा वेतन
दिया जा रहा है; जबकि चीन द्वारा अपने देश की औसत आय का केवल 1.5 गुणा वेतन अपने सरकारी कर्मियों
को दिया जा रहा है। भारत द्वारा अपनी आय की तुलना में सरकारी कर्मियों को भारी वेतन दिए जाने के कारण
भारत सरकार का पिछले 20 वर्षों से रिसर्च में निवेश करने की शक्ति समाप्त हो गयी है। अतः हमें विचार करना
होगा कि देश की संप्रभुता की रक्षा के लिए अथवा चीन का सामना करने के लिए सरकारी कर्मियों को बढ़े हुए वेतन
देना ज्यादा आवश्यक है अथवा रिसर्च करना। मैं इस विषय पर नहीं हूं कि सरकारी कर्मियों का उचित वेतन क्या
है। वर्तमान में प्रश्न उचित और अनुचित का नहीं है। वर्तमान में प्रश्न है कि देश की संप्रभुता के लिए क्या हम
सरकारी कर्मियों के वेतन में कटौती करके रिसर्च पर निवेश बढ़ा सकते हैं। मेरा मानना है कि ऐसा करना होगा और
सरकार को तत्काल सरकारी कर्मियों के वेतन में 50 प्रतिशत की कमी करके रिसर्च में 100 गुणा वृद्धि करनी
चाहिए। चीन से ज्यादा निवेश करना होगा। तब हम चीन की तकनीकी महारत का सामना कर सकेंगे।
भारत द्वारा तकनीक में निवेश करने का दूसरा पक्ष राजनीतिक दखल का है। जैसा हार्वर्ड यूनिवर्सिटी ने बताया है
कि चीन में तकनीकी अविष्कार के पीछे राजनीतिक दखल है। लेकिन वही राजनीतिक दखल अपने देश में उलटी
तरफ चल रही है। कुछ समय पहले किसी विश्वविद्यालय में भौतिकशास्त्र के सेवानिवृत्त प्रोफेसर से बात हुयी। उनसे
मैंने पूछा कि सेवानिवृत्ति के बाद आपका मन कैसे लगता है? जवाब मिला कि “मुझे 40 वर्षों से कार्य न करने का
अभ्यास हो गया है, इसलिए बिना काम किये समय यूं ही कट जाता है।” यह है हमारे अधिकतर सरकारी
विश्वविद्यालयों और संभवतः रिसर्च संस्थानों की सच्ची स्थिति। हमारे विश्वविद्यालय रिसर्च करने के स्थान पर
सर्टिफिकेट बांटते हैं जिससे कि उनके छात्र भी काम न करने वालों की लाइन में उन्हीं की तरह लग जाएं। मेरी
समझ से चीन विश्व से अलग-थलग पड़ने वाला नहीं है। तुलसीदासजी ने कहा कि “समरथ को नहिं दोष गोसाईं”।
आज अमेरिका चीन पर ऋण के लिए निर्भर है। तकनीकों में चीन विश्व में अग्रणी होता जा रहा है। ऐसी स्थिति में
चीन अलग-थलग पड़ने वाला नहीं है। हमें चीन के कम्युनिस्ट पार्टी के तानाशाही और चीन द्वारा कोरोना वायरस
बनाये जाने इत्यादि पर हाहाकार मचाने से कुछ हासिल नहीं होगा। हमें अपने ही घर को सुधारना होगा और चीन
के समकक्ष तकनीकी योग्यता हासिल करनी होगी जिसके लिए जरूरी है कि रिसर्च में निवेश बढ़ाया जाये। इसके
लिए आवश्यकतानुसार कर्मियों के वेतन कम किये जाएं। सरकारी विश्वविद्यालयों के सम्पूर्ण बजट को समाप्त
करके उन्हें सेल्फ फाइनेंसिंग कोर्सों से अपने वेतन जुटाने को प्रेरित किया जाये और उन्हें रिसर्च के लिए प्रोजेक्ट
दिए जाएं जिससे कि उनकी पक्की जवाबदेही निशचित हो सके। तब हम चीन का सामना कर सकेंगे।