भारत और ईरान केवल 21वीं सदी के दो आधुनिक देश ही नहीं, बल्कि दो प्राचीन सभ्यताएं भी हैं, जिनके बीच सदियों से दोस्ताना संबंध रहे हैं। दोनों देशों के लोगों और उनके प्रतिनिधियों ने सांस्कृतिक-आर्थिक-राजनीतिक संबंधों के मार्ग में आने वाली चुनौतियों का सामना करते समय अक्सर एक दूसरे की परिस्थितियों और निर्णयों को संपूर्णता में देखा और अपने दूरगामी हितों पर तात्कालिक फायदे को कभी वरीयता नहीं दी। बदलती हुई भू-राजनीतिक और भू-रणनीतिक परिस्थितियों में ईरानी राष्ट्रपति हसन रौहानी का हालिया भारत दौरा इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है। इस दौरान भारत और ईरान ने कुल नौ समझौतों पर हस्ताक्षर किए जिनमें सबसे प्रमुख चाबहार स्थित शाहिद बेहेश्ती बंदरगाह के फेज-1 का पट्टा एक भारतीय कंपनी को दिया जाना है। लगभग 85 मिलियन अमेरिकी डॉलर की लागत से बनकर तैयार होने वाला यह बंदरगाह पाकिस्तान के ब्लूचिस्तान प्रांत में स्थित और चीन के सहयोग से बने ग्वादर बंदरगाह से मात्र 90 किलोमीटर की दूरी पर है। गौरतलब है कि चीन के ‘‘एक बेल्ट-एक सड़क’ और चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे, जो पाकिस्तान द्वारा अनाधिकृत रूप से कब्जा किए गए जम्मू-कश्मीर क्षेत्र से होकर गुजरता है, की घोषणा के समय से ही इस बात के कयास लगाए जा रहे थे कि हो न हो भारत अब चीन के साथ होने वाले आर्थिक और रणनीतिक प्रतिस्पर्धा में पिछड़ता चला जाएगा। बहुत से विश्लेषकों ने तो यहां तक चेताया कि आर्थिक प्रतीत हो रहीं ये परियोजनाएं वास्तव में चीन की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा हैं, जो उसे आर्थिक लाभ के साथ-साथ हिन्द महासागर में अपनी स्थिति मजबूत करने का मौका भी उपलब्ध कराती हैं। कुछ विश्लेषकों का यह भी मानना है कि चीन इन परियोजनाओं के तहत भविष्य में सैन्य ठिकाने बनाकर हिन्द महासागर में भारत के एकाधिकार को चुनौती देने की तैयारी कर रहा है। जहां तक चीन की आधिकारिक नीतियों और घोषणाओं का प्रश्न है, वह हमेशा इसे आर्थिक नजरिये से देखने की बात करता है। उसका दावा है कि वह वास्तव में पुराने रेशम मार्ग को फिर से बनाने के लिए प्रयास कर रहा है। यहां यह बात भी महत्वपूर्ण है कि पुराना रेशम मार्ग, जिसे चीन फिर से पुनर्जीवित करने की बात कर रहा है, बिना भारत को शामिल किए पूरा ही नहीं हो सकता है क्योंकि चीन के साथ-साथ भारत भी पुराने रेशम मार्ग का अविभाज्य हिस्सा या अटूट कड़ी था। वर्तमान समय में बदली हुई परिस्थिति और पाकिस्तान द्वारा अनाधिकृत रूप से कब्जा की गई भूमि, जिससे होकर चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा जा रहा है, पर संप्रभुता के प्रश्न पर भारत ने इससे अलग रहने का निर्णय लिया है। इस परियोजना पर लगातार अपनी आपत्ति भी दर्ज कराई है। जहां तक भारत का प्रश्न है, नियंतण्र और एशियाई परिदृश्य में अपने बढ़ते हुए कद तथा आर्थिक हितों को ध्यान में रखते हुए उसे ऐसा रास्ता तलाश करना था, जिससे उसके तात्कालिक और दूरगामी राष्ट्रीय हितों की पूर्ति के मार्ग में आने वाली बाधाओं का समुचित निराकरण किया जा सके। इस क्रम में भारत को मई, 2016 में उस समय अभूतपूर्व सफलता मिली जब उसने ईरान के चाबहार में स्थित बंदरगाह को विकसित करने के लिए एक समझौता किया। साथ ही साथ भारत, ईरान और अफगानिस्तान में एक परिवहन एवं व्यापारिक गलियारे के निर्माण के लिए भी सहमति बनी जिसके माध्यम से भविष्य में अफगानिस्तान होते हुए मध्य एशिया और यूरोप के देशों से व्यापारिक गतिविधियां बढ़ाई जा सकें। जल्द ही भारत के इस कदम को चीन की एक बेल्ट-एक सड़क और चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे की परियोजना के जवाब के तौर पर देखा जाने लगा। वैसे तो चाबहार में बंदरगाह बनाने और उसके माध्यम से दूसरे देशों तक पहुंचने का रोडमैप काफी पहले से र्चचा में था, लेकिन हाल के समय में भारत के लिए उसे मूर्त रूप प्रदान करना अत्यंत जरूरी था क्योंकि पाकिस्तान किसी भी हालत में उसे अपने जमीन से होकर अन्य देशों में जाने की इजाजत न देने पर अड़ा हुआ था, और भविष्य में भी ऐसी कोई संभावना नहीं दिख रही थी। भारत द्वारा इसका एक विकल्प तैयार करने के लिए लगातार की जा रही कोशिशें शीघ्र ही रंग लाने लगीं और अक्टूबर, 2016 में भारत के कांदला बंदरगाह, जिसे अब दीनदयाल बंदरगाह कहा जाता है, से पहली बार बड़ी मात्रा में अफगानिस्तान को गेहूं भेजा गया। इस प्रयोग की सफलता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि भारत और अफगानिस्तान, दोनों के विदेश मंत्रियों ने वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से इसकी निगरानी की थी। चाबहार स्थित इस बंदरगाह की रणनीतिक अवस्थिति भारत के लिए कई कारणों से महत्त्वपूर्ण है। सर्वप्रथम यह उसे स्थलरुद्ध (लैंडलॉक्ड) अफगानिस्तान और मध्य एशिया के देशों तक पहुंचने का सीधा, सुरक्षित, आसान व आर्थिक रूप से किफायती रास्ता उपलब्ध कराता है। इस बंदरगाह के माध्यम से भारत, ईरान सहित मध्य एशियाई देशों के प्राकृतिक गैस के भंडारों का आपसी सहमति और समझौते के अनुरूप उपयोग करते हुए घरेलू ऊर्जा आपूत्तर्ि को सुनिश्चित कर सकता है। तीसरे, भारत अब पाकिस्तान को बाईपास करते हुए एशिया और यूरोप के बड़े बाजारों तक पहुंच बना सकता है, और सामानों के लाने-ले जाने में आने वाली लागत को काफी कम कर सकता है। इस क्षेत्र में हुए अध्ययन इस बात की ओर इशारा करते हैं कि चाबहार के माध्यम से सामानों की आवाजाही पर लगने वाले समय और खर्च में कम-से-कम तीन गुना कटौती होगी। चौथे, पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकवाद के विरुद्ध अन्य देशों के साथ प्रभावी सहयोग का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है, तथा क्षेत्र में उपस्थित और सक्रिय नियंतण्र आतंकवादी गुटों के खिलाफ जरूरी कार्रवाई की जा सकती है। पांचवीं, चीन द्वारा हिन्द महासागर में उसकी स्थिति मजबूत करने के सपने को तगड़ा झटका दिया जा सकता है। इस विश्लेषण के आलोक में कहा जा सकता है कि भारत ने अपने राष्ट्रीय हितों की पूर्ति के संदर्भ में जो रास्ता चुना है, वह यकीनन अब तक अपेक्षा के अनुरूप परिणाम दे रहा है।