भारतीयता की प्रतिमूर्ति : मदन मोहन मालवीय

asiakhabar.com | November 11, 2020 | 4:05 pm IST

संयोग गुप्ता

बीसवीं सदी के षंकर! हिंदू संस्कृति एवं सभ्यता के पुजारी, उनके हृदय में दया, मानवता के प्रति करुणा,
सहिश्णुता और क्षमा, चरित्र, दिव्य वाणी और ज्ञान एवं पांडित्य का वैभव उन्हें जन्म से प्राप्त था। तपस की दीर्घ
साधना अभिप्राय की उच्चता और पांडित्य की विविधता ने आपको मानवता के स्तर से कहीं ऊचा उठाकर देवत्व के
आसन पर बैठा दिया था। आपकी महानता निर्विवाद, व्यक्तित्व वंदनीय, जीवन अनुकरणीय और चरित्र निश्कलंक
था।
मालवीय जी का जन्म 25 दिसम्बर 1861 को इलाहाबाद में हुआ था। उनके पिता ब्रजनाथ जी ने संस्कृत में कई
ग्रंथों की रचना की थी। मालवीय जी ने एम.ए. की पढ़ाई आरंभ करके छोड़ दी और गवर्मेन्ट स्कूल में 50 रुपये
मासिक नौकरी कर ली। आरंभ से ही आप में स्वदेष एवं समाज की सेवा का भाव विद्यमान था। कॉलेज जीवन में
ही कुछ मित्रों के सहयोग से इलाहाबाद में ”साहित्यिक सभा“ और ”हिंदू समाज“ की स्थापना की थी। 1886 में

कांग्रेस का दूसरा अधिवेषन दादाभाई नौराजी के सभापतित्व में कलकत्ते में हुआ। आप अपने गुरु जी आदित्यराम
भट्टाचार्य के साथ उसमें सम्मिलित हुए। वहां पर आपकी योग्यता एवं सत्यप्रियता पर मुग्ध होकर कालाकॉकर के
राजा रामपाल सिंह ने अपने समाचार-पत्र ”हिंदुस्तान“ का संपादक बना दिया। संपादकीय करते हुए मालवीय जी ने
1891 में वकालत पास करके 1893 में वकालत षुरू कर दी। 1907 में सूरत में गरम और नरम दल के झगड़े
में आप नरम दल के साथ रहे। 1909 में कांग्रेस नरम दल वालों का जो सम्मेलन हुआ उसमें आपने मिंटो-मार्ले
सुधारों का आंदोलन करते हुए सतत तीन घंटे तक भाशण दिया। इस तरह से आपके ओजस्वी भाशण कांग्रेस
अधिवेषनों की जान थे। 1918 में दिल्ली में लोक हृदय सम्राट लोकमान्य की अनुपस्थिति में मालवीय जी को ही
सभापति बनाया गया। 1932 तथा 1933 में दिल्ली तथा कलकत्ता में सरकार द्वारा निशिद्ध अधिवेषनों का
सभापतित्व करने के लिए वह सब जोखिम उठाकर गए और जेल तक जाना स्वीकार किया। मालवीय जी बहुत
दिनों तक इलाहाबाद नगर बोर्ड के वाइस चेयरमैन भी रहे। इन्हीं दिनों जब इलाहाबाद में पहली बार प्लेग फैला,
तब उन्होंने जनता की जो सेवा की वह देखने योग्य थी। 1902 में मालवीय जी प्रांतीय व्यवस्थापिका सभा के
सदस्य चुने गये और 1910 में आप इम्पीरियल काउन्सिल के सदस्य चुने गए। इन जगहों पर भी वह सरकार की
आलोचना एवं विरोध करने में कोई कोताही नहीं करते थे। 1922 की रौलेट-एक्ट के विरोध में अन्य सदस्यों के
साथ आपने भी इम्पीरियल काउन्सिल से इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद फौजी षासन की मार से घायल पंजाब
की भी आपने बड़ी सेवा की थी।
1920 में मालवीय जी का कांग्रेस के साथ घोर मतभेद हो गया। कांग्रेस द्वारा माण्टफोर्ड सुधारों के अनुसार बनी
हुई काउन्सिल का बहिश्कार किए जाने पर भी मालवीय जी उसमें गए और 1921 से 1930 तक सतत बने रहे।
फिर भी इसमें संदेह नहीं की मालवीय जी ने सदैव निर्भीक, साहसी और राश्ट्रीय वृत्ति का परिचय दिया। 1928 में
साइमन कमीषन के विरोध में आप सबसे आगे रहे। 1922 में चौरी चौरा कांड के पष्चात देष में साम्प्रदायिकता
का वातावरण चारों तरफ बढ़ने लगा। जहां-तहां हिंदू-मुस्लिम दंगे होने लगे। ऐसी स्थिति में 1922 में मालवीय जी
पूरी तरह हिंदू महासभा के साथ तन्मय हो गए और कई वर्शों तक उसके सर्वेसर्वा रहे। 1925 में मालवीय जी और
लाला लाजपतराय ने नेषनलिस्ट पार्टी बनाकर चुनाव लड़ा पर इसमें भी साधन हिंदू महासभा को बनाया गया।
1934 में मालवीय जी हिंदू महासभा के पूना अधिवेषन के सभापति बने।
मालवीय जी की देष को सबसे बड़ी देन काषी हिंदू विष्वविद्यालय है। उसके लिए एक योजना बनाकर गले में भिक्षा
की झोली डाल वह घर से निकल पड़े। साधारण लोग से लेकर बड़े-बड़े राजाओं-महाराजाओं का सहयोग उन्हें मिला
और पॉच वर्शो में उन्होंने एक करोड़ रुपये जमा कर लिया। 04 फरवरी 1918 को षास्त्रोक्त नीति से हिंदू
विष्वविद्यालय की स्थापना हुई। हिंदू विष्वविद्यालय आपकी सुदूर आषावादिता एवं अथक परिश्रम का कीर्ति-स्तंभ
है।
हिंदी भाशा की भी उल्लेखनीय सेवा उनके द्वारा की गई। 1902 में अभ्युदय और 1910 में उन्होंने मर्यादा
मासिक पत्रिका निकालनी षुरू कर दी। अदालतों में इन दिनों सब काम उर्दू में होता था। 1900 से उन्होंने
अदालतों में उर्दू के साथ हिंदी को भी स्थान दिलाया। हिंदी साहित्य सम्मेलन के भी वह जन्मदाताओं में एक थे
और उसके दो बार सभापति भी बने। पंडित अयोध्यानाथ जी द्वारा संचालित ”इंडियन यूनियन“ पत्र के वह कई
वर्शों तक संपादक रहे। इलाहाबाद के सुप्रसिद्ध पत्र लीडर के संस्थापक होने का भी गौरव उन्हें प्राप्त है।

अछूतोद्वार की दिषा में भी मालवीय जी का योगदान कम मायने नहीं रखता। उनको मंत्र-दीक्षा देने, मंदिरों में प्रवेष
का अवसर देने और स्कूलों, कुओं, तालाबों, उत्सवों, सभाओं आदि में छुआछूत न मानने के लिए मालवीय जी ने
घोर आंदोलन किया था। 1929 में जमनालाल बजाज के उद्यम से इस कार्य के लिए जो कमेटी बनाई थी, उसके
मालवीय जी अध्यक्ष थे। 1932 में यरवदा जेल में हिंदू एकता की खातिर गांधी जी के द्वारा आमरण अनषन किए
जाने पर मालवीय जी के सभापतित्व में मुम्बई में हिंदुओं की एक विराट सभा हुई थी। जिसमें अस्पृष्यता को
मिटाने और अछूतों के साथ बिना किसी भेदभाव के समानता का व्यवहार करने की प्रतिज्ञा सोर हिंदू समाज की
ओर से की गई थी। स्त्रियों की स्थित सुधारने के भी मालवीय जी पक्षधर थे। विधवा विवाह से उन्हें कोई आपत्ति
नहीं थी। गौ-रक्षा और गौ-सेवा आंदोलन के तो आप प्राण थे।
मालवीय जी ने 1930-32 के आंदोलन के मध्य पूरा भाग लिया। आंदोलनों का कई बार स्वत: संचालन किया
और जेल गए। 1931 में गोलमेज सम्मेलन में गांधी जी के साथ मालवीय जी भी सम्मिलित हुए। नवम्बर 1933
में मालवीय जी ने हिंदू-मुस्लिम समझौते के लिए प्रयत्न किया। पंजाब की जटिल समस्या सुलझा दी गई थी और
सिंध का प्रष्न भी हल हो जाता, किन्तु अंग्रेजों की कूटनीति से मालवीय जी का प्रयत्न व्यर्थ हो गया।
सन्् 1942 में बंगाल में महा भयानक दुर्भिक्ष पड़ा। लाखों, करोड़ों व्यक्ति पिषाचिनी भूख की ज्वाला में भस्मीभूत
हो गए। छोटे-छोटे कोमल बच्चे भूख से तड़प कर मर गए। उनकी सहायता के लिए मालवीय जी ने मार्मिक अपीलें
निकली। 1946 में बंगाल में भीशण नर-संहार हुआ। कलकत्ता में जो हत्याकांड हुआ, ओआखली में जो हृदय
विदारक हत्याकांड हुआ, हजारों निरीह एवं निर्दोश हिंदुओं को देखते-ही-देखते मौत के घाट उतार दिया गया। माँ-
बहिनों का सतित्व लूटा गया, बलात्कार की अमानुशिक घटनाऍ हुईं। उससे रोग-षय्या पर पड़े उन्हें भीशण आघात
लगा। इस अवसर पर उन्होंने कहा कई वर्शों तक हिंदू-मुस्लिम संगठन के लिए हिंदुओं ने काफी सहिश्णुता का
परिचय दिया है, किन्तु इस सहनषीलता को कमजोरी समझा जा रहा है। जब तक हिंदू एक जाति के रूप में अपने
अस्तित्व का परिचय नहीं देंगे, तब तक हिंदू-मुस्लिम एकता समस्या पूरे खतरे के साथ बनी रहेगी। हिंदू नेताओं
का मतृभूमि के अतिरिक्त अपने धर्म, संस्कृति और अपने हिंदू भाईयों के प्रति भी कर्तव्य है। यह अत्यंत आवष्यक
है कि हिंदू संगठित हों, एक साथ काम करें, नि:स्वार्थी देषभक्त कार्यकर्ता उत्पन्न करें। विभिन्न जातियों तथा वर्गों
के तमाम भेदभाव भुला दें तथा हिंदू आदर्षों, संस्कृति तथा हिंदुओं की एकता के लिए अधिकतम प्रयास करें।
मालवीय जी का यह संदेष आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उस वक्त था। इस प्रकार अपना अंतिम संदेष
देकर 12 नवम्बर 1946 के दिन 4 बजे यह आत्मा महाप्रयाण कर गई।


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