विनय गुप्ता
विधानसभा उपचुनाव की घोषणा के बाद मध्यप्रदेश की शिवराज सिंह चौहान सरकार के लिए परीक्षा की घड़ी आ
गई है। 3 नवंबर को राज्य की जिन 28 सीटों पर उपचुनाव होना है, उनमें सरकार बचाने के लिए भाजपा को हर
हाल में कम से कम नौ सीटें जीतनी ही होंगी। वहीं 14 मंत्रियों को अपनी कुर्सी बचाने के लिए हर हाल में मैदान
मारना होगा। उपचुनाव राज्य में भाजपा की सरकार के स्थायित्व के साथ-साथ पार्टी की साख का भी सवाल है। नौ
सीटें जीतने पर सरकार तो बच जाएगी, लेकिन पार्टी की साख पर सवाल उठेंगे। दरअसल जिन 28 सीटों पर
उपचुनाव होने हैं, उनमें से 25 सीटें कांग्रेस के बागी विधायकों की हैं। वही बागी जिन्होंने इसी साल मार्च में
इस्तीफा देकर कमलनाथ सरकार की विदाई करवाई थी। बाकी सीटें भाजपा विधायकों के निधन से खाली हुई हैं।
जाहिर तौर पर भाजपा को अपनी साख बचाने के लिए ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतनी होंगी। निगाहें उन 14 मंत्रियों
की सीटों पर भी होंगी, जिन्हें कांग्रेस से बगावत के इनाम के रूप में मंत्री पद मिले हैं। इन नौ कैबिनेट और 5
राज्य मंत्रियों को अपनी कुर्सी बचाने के लिए चुनावी जंग जीतनी होगी। उपचुनाव के लिए भाजपा इसी हफ्ते
उम्मीदवार घोषित करेगी। इसमें कांग्रेस के सभी 25 बागी विधायकों को टिकट मिलेगा। पार्टी की योजना बिहार के
पहले दो चरण के साथ इन सीटों पर एक साथ उम्मीदवार घोषित करने की है। कांग्रेस ने अब तक 24 तो बसपा
ने 8 उम्मीदवारों की घोषणा की है। उपचुनाव के नतीजे आने के बाद राज्य विधानसभा में 230 सदस्य हो जाएंगे।
ऐसे में बहुमत के लिए 116 सीटों की जरूरत पड़ेगी। भाजपा के पास इस समय 107, कांग्रेस के पास 88,
बसपा के पास दो, सपा के पास एक और निर्दलीय 4 विधायक हैं। मध्यप्रदेश में 28 विधानसभा क्षेत्रों में होने वाले
उपचुनाव सत्ता-सियासत के नजरिए से तो निर्णायक साबित होंगे ही, देशभर के लिए ऐतिहासिक और यादगार भी
रहेंगे। ये चुनाव सीधे प्रदेश की सत्ता का फैसला करने के साथ-साथ दिग्गजों का कद और सियासत की नई दिशा
भी तय करेंगे। सबसे ज्यादा 16 सीटें उस ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में हैं, जो राज्यसभा सदस्य ज्योतिरादित्य सिंधिया
का गढ़ रहा है। चूंकि अब सिंधिया खुद भाजपा में हैं, ऐसे में उन्हें भी अपनी ताकत दिखानी है। ये वे सीटें हैं, जहां
2018 में कांग्रेस ने बड़े अंतर से जीत दर्ज की थी। अब इन्हें अपने खाते में लाना भाजपा के लिए चुनौती है। वहीं,
यहां पहली बार कांग्रेस बिना सिंधिया के चुनाव मैदान में होगी, तो उसे भी साबित करना है कि बिना महाराज के
भी वह यहां मजबूत है। भाजपा को सत्ता बचाए रखने के लिए नौ सीटों की जरूरत है, जबकि कांग्रेस को वापसी के
लिए सभी सीटें जीतनी होंगी। उपचुनाव में सत्तापक्ष का पलड़ा हमेशा भारी होता है, तो कांग्रेस के लिए राह आसान
नहीं लगती, लेकिन इससे भाजपा की मुश्किलें भी कम नहीं होतीं। यदि परिणाम आने के बाद कांग्रेस 100 का
आंकड़ा पार करती है, तो बतौर मजबूत विपक्ष वह अगले तीन साल तक सरकार को चैन से बैठने नहीं देगी।
उपचुनावों की अग्निपरीक्षा दिग्गजों के लिए भी कसौटी बन रही है। उपचुनाव के केंद्र में सिंधिया हैं, जो केंद्र से
लेकर मप्र तक बढ़ा कद रखते हैं। भाजपा ने उन्हें राज्यसभा सदस्य भी बना दिया है, लेकिन अब चुनाव परिणाम
ही उनकी आगे की सियासी यात्रा और ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में उनके प्रभाव को तय करेंगे। कांग्रेस उपचुनाव में
साबित करना चाहेगी कि सिंधिया का प्रभाव पार्टी की देन थी। सिंधिया के सामने इस दावे को पलट देने की बड़ी
चुनौती है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमल नाथ और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह इस उपचुनाव को प्रतिष्ठा का प्रश्न
बना चुके हैं। कांग्रेस का कमजोर प्रदर्शन उनके कद को प्रभावित करेगा, वहीं सिंधिया के पाला बदलने पर सवाल
उठाना भी मुश्किल होगा। नाथ और दिग्विजय के सांगठनिक कौशल की ये परीक्षा मानी जा रही है। इधर,
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की साख और लोकप्रियता भी दांव पर है। उपचुनाव में जीत के माहिर चौहान नहीं
चाहेंगे कि मौजूदा उपचुनाव उनके कुर्सी से उतरने की वजह बने। इसी के चलते केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और
प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा लगातार कार्यकर्ताओं की जमावट में लगे हुए हैं। भाजपा और कांग्रेस की टक्कर में बसपा
भी फायदे में आ सकती है। 2018 के चुनाव में बसपा कई सीटों पर दूसरे व तीसरे स्थान पर रही थी। अब जब
भाजपा और कांग्रेस के बीच सारे समीकरण बदल चुके हैं, तो बसपा इसका लाभ लेने के लिए भरोसे का मुद्दा आगे
रखकर चल रही है, वहीं उसकी नजर सोशल इंजीनियरिंग पर भी है।