विनय गुप्ता
भाजपा एक नहीं बल्कि अनेक मायनों में ‘पार्टी विथ अ डिफरेंस’ है. वह देश की एकमात्र ऐसा बड़ी
राजनैतिक पार्टी है जो भारतीय संविधान में निहित प्रजातंत्र और धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों के बावजूद यह
मानती है कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है. वह एकमात्र ऐसी पार्टी है जो किसी अन्य संगठन (आरएसएस)
की राजनैतिक शाखा है और वह भी एक ऐसे संगठन की, जो हिन्दू राष्ट्रवाद का झंडाबरदार है.
भाजपा, इस मामले में भी अन्य सभी दलों से अलग है कि सांप्रदायिक हिंसा में वृद्धि के समान्तर
उसकी ताकत भी बढ़ती रही है. वह एक ऐसा राजनैतिक दल है जिसकी राजनीति, भावनात्मक और
विघटनकारी मुद्दों पर आधारित है और जिसका राष्ट्रवाद का अपना अलग ब्रांड है. सन 2014 और फिर
2019 के आम चुनावों में पार्टी की शानदार जीत से शायद उसे यह मुगालता हो गया था कि वह अजेय
है. पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह ने तो यहाँ तक घोषणा कर दी थी कि उनकी पार्टी अगले 50 सालों तक
देश पर राज करेगी. महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभा चुनावों (अक्टूबर 2019) के पहले यह दावा
किया जा रहा था कि इन दोनों राज्यों में पार्टी शानदार जीत अर्जित करेगी. व्यावसायिक मीडिया ने भी
अपने तथाकथित सर्वेक्षणों के आधार पर घोषणा कर दी थी कि भाजपा, दोनों राज्यों में अन्य दलों को
मीलों पीछे छोड़ देगी. परन्तु उसे इन दोनों ही राज्यों में मुंह की खानी पड़ी. इस परिप्रेक्ष्य में पार्टी के
चुनावी भविष्य पर चर्चा की जानी चाहिए.
हरियाणा में तो भाजपा सामान्य बहुमत भी हासिल नहीं कर सकी और उसे दुष्यंत चौटाला की जेजेपी के
साथ मिलकर गठबंधन सरकार बनानी पड़ी. महाराष्ट्र में यद्यपि भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी
परन्तु वह स्वयं के बल पर बहुमत से बहुत दूर रही और नतीजे में उसकी गठबंधन साथी शिवसेना उसके
साथ जबरदस्त सौदेबाजी कर रही है. पिछले चुनावों में विजय के बाद पार्टी के नेता जिस तरह से अपनी
पीठ थपथपाते थे, वह इस बार नहीं हो रहा है. कुछ टिप्पणीकारों ने तो इसे पार्टी की नैतिक हार बताया
है. उसका अजेय होने का दावा टूट कर बिखर गया है और विपक्षी पार्टियाँ, जिनका मनोबल काफी गिर
गया था, एक बार फिर आशा से भर गयीं हैं.
भाजपा का गठन, भारतीय जनसंघ के नेताओं ने किया था. सन 1980 के दशक में भाजपा का नारा था
‘गाँधीवादी समाजवाद’. फिर, जल्दी ही उसने अपना राग बदल लिया और वह राममंदिर की बात करने
लगी. राममंदिर आन्दोलन, रथ यात्राओं आदि ने सांप्रदायिक हिंसा भड़काई और समाज को ध्रुवीकृत
किया. इसी ध्रुवीकरण ने भाजपा को ताकत दी और उसका विस्तार होता चला गया. भाजपा ने
अधिकांशतः पहचान से जुड़े मुद्दे उठाये.
सन 1996 में पार्टी को 13 दिन सत्ता का स्वाद चखने को मिला और फिर 13 महीने की. उसने राष्ट्रीय
लोकतान्त्रिक गठबंधन (एनडीए) का गठन किया. सत्ता के भूखे नेता एनडीए की तरफ लपके. कहने को
एनडीए का न्यूनतम साँझा कार्यक्रम था परन्तु वह कागजों तक सीमित था. एनडीए का हिस्सा होने के
बावजूद, भाजपा ने अपने हिंदुत्व एजेंडे को नहीं त्यागा. इस एजेंडे में शामिल थे सामान नागरिक संहिता
लागू, अनुच्छेद 370 और राममंदिर.
अब तक भाजपा की सबसे बड़ी ताकत रही है आरएसएस के स्वयंसेवकों से उसे मिलने वाला ठोस
समर्थन. संघ यह मानता है कि राजनैतिक सत्ता, हिन्दू राष्ट्र के उसके एजेंडे को लागू करने का माध्यम
है. गुजरात कत्लेआम के बाद, भाजपा को कॉर्पोरेट दुनिया से भी समर्थन मिलने लगा. मोदी ने कॉर्पोरेट
कम्पनियों को विकास के नाम पर हर तरह का सुविधाएं दीं. कॉर्पोरेट शहंशाहों ने मीडिया पर लगभग पूरा
नियंत्रण स्थापित कर लिया. एक अन्य मुद्दा जिसके चलते भाजपा का समर्थन बढ़ा वह था लोकपाल
बिल. बड़ी कुटिलता से भाजपा ने अन्ना हजारे को सामने रख, भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ज़बरदस्त अभियान
चलाया और जनता की निगाहों में कांग्रेस की साख गिराने में सफलता पाई. निर्भया मामले का इस्तेमाल
भी पार्टी ने कांग्रेस को बदनाम करने के लिए किया. इस सब से, भाजपा को चुनावों में लाभ मिला.
भाजपा ने अपने पार्टी संगठन को भी मज़बूत बनाया और अब तो उसका दावा है कि वह दुनिया की
सबसे बड़ी पार्टी है.
मोदी ने हर नागरिक के बैंक खाते में 15 लाख रुपये जमा करवाने, रोज़गार के करोड़ों अवसर निर्मित
करने और कीमतें घटने के वादे कर, 2014 चुनाव में 31 प्रतिशत मत हासिल कर लिए और सत्ता में आ
गए. कांग्रेस के विरुद्ध जनभावना, उस पर भ्रष्टाचार के आरोपों, आरएसएस के समर्थन और कॉर्पोरेट
फंडिंग ने भी भाजपा की मदद की. अगले पांच सालों में भाजपा ने इनमें से एक भी वायदे को पूरा नहीं
किया. उसने गाय और गौमांस के मुद्दे को लेकर समाज को ध्रुवीकृत करने की भरसक कोशिश ज़रूर
की. इसके अलावा, लव जिहाद और घरवापसी ने भी भाजपा को मजबूती दी. भाजपा, हिन्दुओं के मन में
यह भावना घर करवाने में सफल रही कि धार्मिक अल्पसंख्यक, हिन्दुओं के लिए खतरा हैं. उसने
राष्ट्रवाद के अपने ब्रांड को भी खूब उछाला. इस राष्ट्रवाद का प्रमुख हिस्सा था पाकिस्तान के खिलाफ
जुनून भड़काना. उसके इस राष्ट्रवाद ने समाज के कुछ हिस्सों को प्रभावित किया. सन 2019 के चुनाव
में इन सभी कारकों ने भूमिका अदा की. पुलवामा-बालाकोट और ईवीएम ने भी भाजपा की मदद की और
देश की बिगड़ती हुई आर्थिक स्थिति के बावजूद वह चुनाव में विजय हासिल करने में सफल रही. इससे
ऐसा लगने लगा कि भावनात्मक मुद्दे उछालने और राष्ट्रवाद को भावनात्मक मुद्दा बनाने में भाजपा
इतनी प्रवीण हो गयी है कि उसे चुनाव में हराने असंभव हो गया है.
परन्तु मोदी-शाह महाराष्ट्र और हरियाणा में कोई कमाल नहीं दिखला सके. क्यों? सवाल यह है कि क्या
भावनात्मक मुद्दे और राष्ट्रवाद, लोगों को जिंदा रख सकते हैं? अब रोटी-रोज़ी से जुड़े प्रश्न उठाये जा रहे
हैं और जनता राष्ट्रवाद और साम्प्रदायिकता के जुनून में उन्हें भुलाने के लिए तैयार नहीं है. यह साफ़ है
कि किसी पार्टी की चुनाव मशीनरी कितनी ही शक्तिशाली क्यों न हो, वह जनता से जुड़े मूलभूत मुद्दों
को दरकिनार नहीं कर सकती. अनुच्छेद 370 के हटने, तीन तलाक को अपराध घोषित करने या
पाकिस्तान का डर दिखने से लोगों का पेट नहीं भरता.
संघ ने हमारे जीवन के सभी क्षेत्रों में घुसपैठ कर ली है-फिर चाहे वह शिक्षा हो, मीडिया हो या सामाजिक
कार्य. परन्तु यह भी साफ़ है कि भाजपा-संघ के एजेंडे से रोटी-रोज़ी की समस्याएं हल नहीं होंगीं. इससे
किसानों की आत्महत्याएं नहीं बंद होंगीं. दोनों राज्यों में चुनावों के नतीजों से निश्चित तौर पर
धर्मनिरपेक्ष ताकतों को बल मिलेगा और भोजन, रोज़गार, स्वास्थ्य और आजीविका के अधिकार जैसे
मुद्दे देश में चर्चा का विषय बनेंगे. क्या आम लोगों से जुड़े मुद्दों को उठाने के प्रति प्रतिबद्ध दल, इस
चुनौती को स्वीकार करेंगे और एकताबद्ध हो राष्ट्रीय एजेंडा को हमारे संविधान के अनुरूप बनाने का
प्रयास करेंगें? क्या सामाजिक आन्दोलन, लोगों से जुड़े मुद्दों को ज़ोरदार ढंग से सामने रखेंगें?
सांप्रदायिक और छद्म राष्ट्रवाद के एजेंडे की सीमाएं सबके सामने हैं. अब गेंद उन शक्तियों के पाले में है
जो बहुवाद, विविधता और मानवतावाद में आस्था रखते हैं. उन्हें आगे बढ़ कर, देश के वातावरण को उस
नफरत और हिंसा से मुक्त करना होगा, जो उसका हिस्सा बन गईं हैं.