गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, ओन्टारियो, कनाडा
भव्यता कितनी भरी भव,
कहाँ मानव देख पाया;
क्षुद्र मन की कंदरा रह,
सूक्ष्म को ना देख पाया!
प्रकृति नित बाँहें बढ़ाए,
गोद में लेना है चाहे;
पर कहाँ शिशु अंक आके,
मात का मन समझ पाये!
दौड़ने की चाह धाये,
पग मनों काँटे लगाये;
लौटता है व्यथित होके,
तब कभी है ज्ञान आए!
प्राकृतिक जगती कृति है,
पुरुष की नज़रों गढ़ी है;
व्यवस्था अद्भुत ढली है,
विवेकों की वह कड़ी है!
जो कोई मालिक से मिलता,
जग प्रबंधन सीख आता;
‘मधु’ हृदय प्रभु प्रेम गंगा,
तैर तर उसमें समाया!