हाल ही में नेपाल के नवनिर्वाचित संसदों ने अपनी मातृभाषा में शपथ ली। नेपाल की 107 सदस्यीय संसद में 47 सदस्यों ने मैथिली, 25 ने भोजपुरी और 11 ने हिन्दी में शपथ ली जबकि नेपाली में शपथ लेने वाले 24 सदस्य ही थे। भारत में 16वीं लोक सभा के नवनिर्वाचित सदस्यों में जब भोजपुरी भाषी सांसद मनोज तिवारी ने भोजपुरी में शपथ लेना चाहा तो इजाजत नहीं मिली। इसी तरह राज्य सभा में राजीव प्रताप रूढ़ी ने भोजपुरी में पद और गोपनीयता की शपथ लेने की कोशिश की तो उन्हें भी निराशा हाथ लगी। दोनों स्थितियां भोजपुरी के प्रति दो देशों की भावनाओं को प्रतिबिंबित कर रही हैं। भोजपुरी में वर्तमान में दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ने वाली भाषा है। बावजूद इसके अपने मूल परिवेश में ही सरकारी उपेक्षा की शिकार है। ऐसा नहीं है तो फिर गत वर्ष बिहार सरकार द्वारा भोजपुरी को संवैधानिक हक देने के लिए भेजे गए प्रस्ताव पर केंद्र सरकार द्वारा किसी भी तरह की पहल करने की कोई सूचना नहीं है। गौरतलब है कि 2 मार्च, 2017 को बिहार सरकार ने भोजपुरी को द्वितीय भाषा का दरजा दिया। वहीं झारखंड सरकार ने भी इसे द्वितीय भाषा का दरजा देने का संकल्प जाहिर किया है। वहीं, दूसरी ओर मॉरीशस सरकार ने 2011 में भोजपुरी को संवैधानिक मान्यता दी और वहां सभी 250 सरकारी हाई स्कूलों में भोजपुरी के पठन-पाठन की व्यवस्था की है। कहना न होगा कि मॉरीशस सरकार की पहल पर ही भोजपुरी ‘‘गीत-गवनई’ को विश्व सांस्कृतिक विरासत का दरजा यूनेस्को द्वारा दिया गया है। दूसरी ओर भारत सरकार भोजपुरी को संवैधानिक मान्यता तो नहीं दे रही है, लेकिन भोजपुरी कलाकारों/साहित्यकारों को पद्म पुरस्कारों से सम्मानित कर भोजपुरी के प्रति अपनी सद्-इच्छाओं को जरूर जाहिर कर रही है। बीते साल केंद्र सरकार की ही पहल पर दिल्ली में भोजपुरी फिल्म समारोह का आयोजन संस्कृति मंत्रालय द्वारा किया गया। इससे जाहिर होता है कि ‘‘सबका साथ-सबका विकास’ के मूल मंत्र के साथ काम कर रही सरकार भोजपुरी कला का सम्मान तो कर रही है, लेकिन भोजपुरी भाषा को लेकर उसने अभी कोई ठोस पहल नहीं की है। सरकारी मान्यता नहीं होने से भोजपुरी भाषी करोड़ों बच्चे अपनी मातृभाषा में ‘‘भारत वाणी पोर्टल और एप्प‘‘ जैसे नवाचारों का लाभ उठाने से वंचित हैं। गौरतलब है कि भारतवाणी पोर्टल और एप्प के माध्यम से संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल 22 भाषाओं में शिक्षण सामग्री एवं ऑडियो-विजुअल पाठय़ उपलब्ध कराया जा रहा है। अप्रैल, 2017 में किए गए एक अध्ययन में यह सामने आया कि 2021 तक देश में 75 प्रतिशत लोग अपनी मातृ-भाषाओं में इंटरनेट प्रयोग कर रहे होंगे और अगले 5 वर्षो में इंटरनेट पर आने वाले 10 में से 9 लोग भारतीय भाषा में इंटरनेट प्रयोग करना चाहेंगे। यह सर्वविदित है कि मातृभाषा में प्राप्त ज्ञान सुगम्य होता है। इसकी स्मृतियां लंबे समय तक हमारे मन-मस्तिष्क में मौजूद रहती हैं। यूनेस्को ने इस संबंध में एक रिपोर्ट प्रकाशित की है। इसमें उल्लेखित है, ‘‘मातृभाषा के माध्यम से प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करना प्रत्येक बच्चे का मूलभूत अधिकार है।’ बावजूद इसके हिन्दी के बाद देश-विदेश में सबसे अधिक बोली जाने वाली भोजपुरी को इस ‘‘भारतवाणी’ कार्यक्रम में शामिल नहीं किया गया है। नतीजतन, करीब 20 करोड़ भोजपुरी भाषी लोगों के लिए उनकी मातृभाषा में कोई पाठय़ सामग्री मौजूद नहीं है। ऐसा कर हमारी सरकार यूएन चार्टर के दिशा-निर्देशों का पालन नहीं कर रही है। अभी हाल ही में उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने कहा, ‘‘चूंकि देश की अधिकांश आबादी हिन्दीभाषी है, इसलिए हिन्दी सीखना जरूरी है, लेकिन उससे पहले हमें अपनी मातृभाषा सीखने की जरूरत है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हर कोई अंग्रेजी सीखने की तरफ रुख कर रहा है क्योंकि यह रोजगार की गारंटी देती है। इसलिए मैं देश को अपनी मातृभाषा को सीखने और बढ़ावा देने की बात कहना चाहता हूं’। ऐसे में सवाल यह कि भोजपुरी भाषियों के साथ ऐसी हकमारी क्यों की जा रही है? वह भी एक ऐसे दौर में जब केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा हमेशा से भारतीय भाषाओं की पैरोकार रही है। कहना न होगा कि पूर्व में मैथिली, संथाली, बोडो और कोंकणी को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के ही कार्यकाल में आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया था। आज संसद के भीतर भोजपुरी की ताकत दिखती है, भोजपुरी के प्रति सम्मान दिखता है, भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने की मांग उन क्षेत्रों से आए प्रतिनिधियों के अंदर हिलोरें मारती प्रतीत होती है। इसे नजरअंदाज करना मुश्किल है। भोजपुरी एक विशाल भूखंड की भाषा है। लिहाजा, उसकी महत्ता और विस्तार के कारण ही इसे संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर संवैधानिक भाषा का दरजा देने की मांग उठती रही है। 1969 से ही अलग-अलग समय पर सत्ता में आई सरकारों ने भोजपुरी भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल करने का आश्वासन दिया था। लेकिन दशकों गुजर जाने के बाद भी 1000 साल पुरानी, 16 देशों में फैली, देश-विदेश में 20 करोड़ से भी ज्यादा लोगों द्वारा बोली जाने वाली और भारत में हिन्दी के बाद दूसरी सबसे बड़ी भाषा भोजपुरी आज भी संवैधानिक मान्यता से वंचित है। अगर भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाता है, तो नि:संदेह उसके सुखद परिणाम होंगे। एक तो भोजपुरी को संवैधानिक दरजा हासिल हो जाएगा। दूसरे, इससे एक क्षेत्रीय भाषा का विकास होगा। साथ ही कला, साहित्य और विज्ञान को समझने-संवारने में मदद मिलेगी। यह सर्वविदित है कि बोलियां भाषा शास्त्र की दृष्टि से भाषाएं ही हैं पर राजनीतिक नजरिए से बोलियां साबित की जाती हैं। भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग न तो किसी भाषा विशेष का विरोध है, और न उसे कमजोर करने की कोशिश या फिर उसे बांटने की राह है। यह मांग तो सिर्फ भोजपुरी के लिए उसकी अस्मिता, पहचान और सुविधाओं की मांग है। उम्मीद है कि ‘‘सबका साथ, सबका विकास’ के ध्येय वाक्य से प्रेरित केंद्र सरकार भोजपुरी की सुध लेगी।