शिशिर गुप्ता
बैंक फ्रॉड के मामलों में बीते कुछ समय में जबरदस्त बढ़ोतरी देखने को मिली है। देश के कुछ बैंकों में
बढ़ते फ्रॉड के सामने आने के कारण कुछ लोग महसूस कर रहे हैं कि बैंकों में पैसा रखना खतरे से खाली
नहीं रह गया है। कहीं किसी बैंक की अक्षमता से पैसा खतरे में जा रहा है कहीं, तो ऑनलाइन साइबर
फ्रॉड से खाताधारकों को लूटा जा रहा है। हाल ही में मशहूर वाणिज्यिक एजेंसी मूडीज ने भारतीय बैंकिंग
सिस्टम को सबसे कमजोर करार देते हुए चेतावनी देते हुए कहा है कि भारतीय बैंकिंग सिस्टम दुनिया
की सबसे असुरक्षित व्यवस्थाओं में से एक है। एशिया-पैसिफिक की 13 अर्थव्यवस्थाओं में एजेंसी ने
भारत की बैंकिंग प्रणाली को इंडोनेशिया के साथ-साथ सबसे अधिक असुरक्षित और संवेदनशील बताया है।
वित्त वर्ष 2018-19 में बैंकों में फ्रॉड के मामलों में 15 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। कारोबारी साल 2019
में बैंकों ने धोखाधड़ी के 6, 801 मामले दर्ज किए। इन मामलों में 71, 542.93 करोड़ रुपए का गबन
हुआ। इससे एक साल पहले यानी, 2017-18 में फ्रॉड के 5, 916 मामले दर्ज किए गए थे और इन
मामलों में 41, 167.04 करोड़ रुपए का फ्रॉड हुआ था। आरबीआई ने जिस तरह एकाएक इसके खातों को
फ्रीज कर दिया, उससे जमाधारकों में क्षोभ तथा सदमें की लहर छा गई, इसने अब उन्हें प्रति खाता कुछ
हजार रुपए निकालने की छूट दे दी है, ताकि उनकी जरूरतें पूरी हो सकें। ऐसे मामले भी सामने आए हैं,
जिनमें जमा धारकों ने अपने पूरे जीवन की बचत पीएमसी में जमा कर रखी है और यह स्वाभाविक है
कि उन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा।
ऐसा हो सकता है कि अंततः सभी जमाधारकों को उनकी समस्त जमाराशियां वापस मिल जाएं, पर इसमें
कुछ वक्त लगेगा। इस वर्ष आरबीआई द्वारा ऐसी कार्रवाई का शिकार होने वाला यह कोई पहला
कोऑपरेटिव बैंक नहीं है। पैसे निकालने तथा नए ऋण देने पर रोक की जरूरत आगे अधिक गंभीर संकट
को टालने के लिए पड़ती है। आरबीआई के अनुसार, 1542 नगरीय कोऑपरेटिव बैंकों में 46 का शुद्ध
मूल्य नकारात्मक है। अब हम जरा रुक कर कुछ बुनियादी प्रश्नों पर गौर करें। जब जमाकर्ता अपनी
मेहनत की कमाई बैंकों में डालते हैं, तो क्या वस्तुतः वे एक जोखिम उठाते है? यदि हां तो क्या उनकी
जमा राशियों के लिए बैंक जैसी ही तरलता का कोई जोखिम-मुक्त विकल्प मौजूद है? ऐसा क्यों है कि
कोआपरेटिव बैंकों तथा अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों की धारणात्मक या वास्तविक जोखिमों में एक फर्क
होता है? यहां तक कि क्यों ऐसे अंतर सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बैंकों अथवा भारतीय और विदेशी
बैंकों के बीच भी होते हैं? क्या बुरे ऋणों अथवा उससे भी बदतर, बैंकों के शीर्ष प्रबंधन की धोखाधड़ी का
खामियाजा जमाकर्ताओं को भुगतना चाहिए? यदि कोई धोखाधड़ी लंबे वक्त तक उजागर नहीं हो पाती,
तो जिम्मेदार कौन है? अंकेक्षकों की जिम्मेदारी क्या है, जो बैंकों के संबंध में अपनी रिपोर्टों में जोखिमों
को जानबूझ कर उजागर नहीं करते? निरीक्षकों तथा पर्यवेक्षकों की जिम्मेदारी क्या है?
यदि कारोबार में मंदी अथवा धोखाधड़ी अथवा दोनों के चलते कोई बैंक विफल हो, तो क्या जमा बीमा
सभी जमाकर्ताओं को सुरक्षा दे सकता है? क्या वित्तीय समाधान एवं जमा बीमा ‘एफआरडीआई’ विधेयक,
जिसे संसद से अस्थायी रूप से वापस ले लिया गया है, इन सारी समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करता
है? जब बैंक निदेशकों के निकटस्थों को बड़े ऋण मुहैया किए जाते हैं, तो यह संकट किस सीमा तक
गवर्नेंस की चूकों का नतीजा होता है? तथ्य यह है कि भारतीय बैंकिंग का दो-तिहाई सार्वजनिक क्षेत्र में
और बहुत हद तक सरकारी स्वामित्व के अंतर्गत है। इससे यह छवि बनती है कि जमा राशियां हमेशा
सुरक्षित रहेंगी, चाहे जमा बीमा के नियम जो भी हों। वर्ष 2017 के एफआरडीआई विधेयक को उसके
सिर्फ एक प्रावधान पर मचे सार्वजनिक कोहराम की वजह से वापस लेना पड़ा था। आज राष्ट्रीयकरण को
लेकर चाहे जो भी कहा जाए, यह एक तथ्य है कि उससे बैंक शाखाओं का व्यापक विस्तार तथा जमा
राशियों के रूप में राष्ट्रीय बचत का बड़े पैमाने पर बैंकों में आगमन संभव हो सका था। बावजूद इसके
कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण एक सियासी फैसला था, मगर आज तक भी उनके निजीकरण अथवा
निःराष्ट्रीयकरण को सियासी पार्टियों का समर्थन नहीं मिल पाता। यहां तक कि जन-धन योजना के
अंतर्गत बैंक खातों में रिकार्ड बढ़ोतरी तथा शून्य बैलेंस खाता जैसी चीजें भी मुख्यतः सार्वजनिक क्षेत्र के
बैंकों की वजह से ही संभव हो सकी हैं।
पिछले चार वर्षों के अंदर सरकार द्वारा बैंकों में लगभग तीन लाख करोड़ रुपए की इक्विटी पूंजी डाली
गई है, पर उनका सम्मिलित बाजार मूल्य सिर्फ पांच लाख करोड़ रुपए ही है। ऐसा लगता है कि स्टाक
बाजार के निवेशक इन बैंकों से न तो प्रभावित और न ही उन्हें लेकर आशान्वित हैं। सरकार भी उनकी
संख्या में कमी लाने, उनकी समरूपता का लाभ उठाने और उनका प्रदर्शन बेहतर करने को उनके विलय
और सुदृढ़ीकरण का सहारा ले रही है, बैंकिंग क्षेत्र में सुधार एक जरूरी कदम है। अर्थव्यवस्था को इसकी
दरकार है कि वित्तीय क्षेत्र को काफी गहरा तथा अधिक औपचारिक बनाया जाए। बचतकर्ताओं को इस
तथ्य के प्रति अवश्य जागरूक किया जाना चाहिए कि अपने पैसे को निजी या सार्वजनिक बैंकों में रखना
जोखिम भरा है या नहीं ऐसा माना जा सकता है कि जमा बीमा सुरक्षा के बावजूद बैंक विफल हो सकते
हैं और होंगे। उनका निजी या सार्वजनिक स्वामित्व अधिक मतलब नहीं रखता, मगर प्रबंधकीय स्वायत्तता
तथा गवर्नेंस के मानक बैंकिंग में अहम हैं। उसी तरह अंकेक्षकों यानी कि आडिटर तथा रेटिंग एजेंसियों
की निष्ठा महत्त्वपूर्ण है। विनियामक की भी बड़ी जिम्मेदारी है। भारतीय बैंकों के स्वस्थ विकास के लिए
पूंजी आधार का सर्वांगीण सुदृढ़ीकरण, एफआरडीआई जैसे सुधार, मजबूत गवर्नेंस एवं स्वायत्तता तथा
अधिक सजग एवं सक्रिय निगरानीकर्ताओं की सामयिक जरूरत है।