किसी भी देश का मेरुदंड होता है। इसकी आधारशिला पर ही देश की भावी पीढ़ी की उन्नति या अवनति तय होती है। शिक्षा का हमारा अतीत बेहद गौरवशाली रहा है। लेकिन अंग्रेजों के शासनकाल में शिक्षा का स्तर महज नौकरी पाने और ज्ञान की क्षमता को कुंद कर दिया गया। 1986 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति लाई गई और 1992 में इसमें संशोधन किया गया। अब 25 साल बाद फिर से देश में शैक्षणिक वातावरण में बदलाव को लेकर कवायद जोरों पर है। मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर की मानें तो छात्रों के सर्वागीण विकास के लिए कक्षा 1 से 12वीं तक के पाठय़क्रमों में सुधार के लिए सुझाव मांगे गए हैं। पाठय़क्रम में सुधार वक्त की जरूरत है। लेकिन इसे तर्कसंगत, युक्तिसंगत और गुणवत्तापूर्ण बनाने के लिए कई स्तरों पर काम करने की आवश्यकता है। हालांकि वर्तमान सरकार इस दिशा में फिक्रमंद है और इसके अच्छे और सुखद परिणाम की उम्मीद हर किसी को है। हाल के दिनों में मंत्रालय की शिक्षा व्यवस्था में तब्दीली को लेकर बेचैनी साफ झलकती है। पिछले महीने ही जावड़ेकर ने एनसीईआरटी के पाठय़क्रम में बदलाव का ऐलान किया था और एनसीईआरटी को संशोधित पाठय़क्रम पर काम करने के भी दिशा-निर्देश दिए गए थे। पाठय़क्रम को बाजार की मांग और कौशल के अनुरूप करने की महती आवश्यकता है। ज्ञानार्जन के साथ-साथ रोजगार के अवसर भी मिल सके, ऐसे कोर्स और पढ़ाई से ही भविष्य को साधा और सुधारा जा सकता है। करीब 10 साल पहले एनसीईआरटी के पाठय़क्रम में बदलाव हुआ था। सिर्फ किताबी ज्ञान बढ़ाने से राष्ट्र के विकास को मजबूती और तेजी नहीं मिल सकती है। इसके अलावा जीवन कौशल, प्रायोगिक शिक्षा, शारीरिक शिक्षा और रचनात्मक कौशल की भी आवश्यकता होती है। नि:संदेह शिक्षा के क्षेत्र में आमूलचूल बदलाव को लेकर मोदी सरकार की ईमानदार सोच सराहनीय है। लेकिन सिर्फ शिक्षा से जुड़े पाठय़क्रम में बदलाव से चीजें नहीं बदलने वाली। इसके लिए शिक्षकों के आचार-विचार को भी संजीदगी से समझने और उसके अनुरूप समाधान तलाशने होंगे। इसके अलावा स्कूल प्रबंधन, शिक्षाविदों, विशेषज्ञों और स्वयंसेवी संस्थाओं की सलाह भी मायने रखेगी। देखना है केंद्र सरकार का शिक्षा क्षेत्र में बदलाव कितना रचनात्मक और सकारात्मक होगा।