सुरेंदर कुमार चोपड़ा
सुखद है कि बिहार में बेरोजगारी एक बड़ा चुनावी मुद्दा है। अलबत्ता नौकरी, रोजगार, दिहाड़ी और गरीबी-भुखमरी
आदि पर चुनाव नहीं लड़े जाते, क्योंकि इन मुद्दों पर न तो ज्यादा वोट हासिल होते हैं और न ही मीडिया में बड़ी
खबर बनती है। 1971 का परिदृश्य ‘गरीब भारत’ का ही था, लिहाजा ‘गरीबी हटाओ’ के चुनावी आह्वान पर इंदिरा
गांधी चुनाव जीत गई थीं और प्रधानमंत्री की कुर्सी सलामत रही थी, लेकिन तब भी भारत-पाक युद्ध के जरिए
‘राष्ट्रवाद’ बहुत बड़ा सरोकार था। गरीबी आज भी है, जबकि भारत विश्व की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला
देश है।
बहरहाल आज भी भारत में 26 करोड़ से ज्यादा और बिहार में करीब 6 करोड़ नागरिक गरीबी-रेखा के नीचे जीने
को विवश हैं। बिहार में औसतन हर 7 में से 6 किसान कर्जदार हैं। दरअसल यह वैश्विक महामारी कोरोना वायरस
का दौर है, जिसमें करीब 12 करोड़ भारतीयों की नौकरियां गईं, ठेके के काम बंद हुए और दिहाडि़यां खत्म हो गईं।
लिहाजा बेरोजगारी और नौकरी या रोजगार देने का आश्वासन इस दौर का सबसे संवेदनशील मुद्दा है। बिहार में
राजद नेता एवं विपक्षी गठबंधन के मुख्यमंत्री उम्मीदवार तेजस्वी यादव ने वादा किया है कि यदि उनकी सरकार
बनी, तो कैबिनेट की पहली ही बैठक में, पहली ही कलम से, बिहार में 10 लाख सरकारी नौकरियां देने का फैसला
लिखा जाएगा। तेजस्वी विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता रहे हैं और खुद 28 साल के युवा हैं। चूंकि लॉकडाउन के
दौरान बिहार के ही हजारों प्रवासी मजदूरों को तकलीफें झेलनी पड़ीं, काम-धंधा चला गया, गरम-तपती सड़कों पर
पैदल चलते हजारों किलोमीटर का रास्ता तय करते हुए गांव पहुंचना पड़ा, कइयों को मौत सरीखी त्रासदियां भी
देखनी-भोगनी पड़ीं, लिहाजा उस तबके और युवा वर्ग में एक उम्मीद जगी है कि बिहार में नौकरी या रोजगार संभव
होगा! ये तबके बेहद गुस्से और आक्रोश में हैं। नीतीश सरकार का विरोध भी स्पष्ट और स्वाभाविक है।
बिहार में बेरोजगारी की औसत दर 9-10 फीसदी रही है, लेकिन कोरोना-काल में यह बढ़कर 40-45 फीसदी तक
पहुंच गई है। बेहद भयावह परिस्थिति है यह! राजद की प्रतिक्रिया में भाजपा ने अपने संकल्प-पत्र में 19 लाख
रोजगार के अवसर पैदा करने का वादा किया है। इनमें 10 लाख कृषि, 5 लाख आईटी, 3 लाख शिक्षक और एक
लाख स्वास्थ्यकर्मियों को रोजगार या नौकरी देने का आश्वासन दिया गया है। चुनावी जनसभाओं को संबोधित करते
हुए प्रधानमंत्री मोदी ने भी कहा है कि रोजगार देने के प्रयास किए जा रहे हैं। दोनों पक्षों की भाषा में बुनियादी
अंतर है, लेकिन यह होड़ ही बिहार चुनाव का सबसे अहं मुद्दा बनकर उभरा है। अनुभव के आधार पर हमारा दावा
है कि चुनाव के बाद और नई सरकार बनने के बावजूद ये वादे अधूरे ही रहेंगे, क्योंकि बजटीय और वित्तीय
संसाधनों की अपनी मजबूरी होती है। अलबत्ता कुछ ‘बिहारियों’ के हाथ भरे जा सकते हैं। दरअसल बिहार में सरकारी
नौकरियों और रोजगार के अवसर बेहद सीमित हैं। पटना, आरा, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, भागलपुर आदि क्षेत्रों में
औद्योगीकरण स्पष्ट दिखाई देता था। सिंचाई की परियोजनाएं 1970 के दशक से ही बनाई जा रही थीं। चूंकि
लालू यादव साम्राज्य के दौरान अपहरण, डकैती और फिरौती के नए ‘उद्योग’ स्थापित हो गए थे, लिहाजा
औद्योगीकरण का व्यापक स्तर पर विनाश हुआ। आज संभावनाएं बेहद सीमित हैं।
सिंचाई योजनाओं की व्यवस्था भी इसी तरह उजड़ी, क्योंकि अपराध के आतंक से ज्यादातर ‘सवर्ण’ ठेकेदार और
इंजीनियर काम अधूरे छोड़ कर बिहार से भाग गए। सड़कों और राजमार्गों की क्या दुर्दशा थी, यह यथार्थ तो पूरा
देश जानता है। तो सवाल है कि नौकरियां अथवा रोजगार किन क्षेत्रों में मिलेंगे? सरकार में स्वीकृत, सूचीबद्ध
1.73 लाख से कुछ ज्यादा ही पद खाली हैं। उन पर भर्ती की कोशिश नीतीश सरकार कर रही थी कि चुनाव की
आचार संहिता लागू हो गई। अब 10 लाख नौकरियां अथवा 19 लाख रोजगार मुहैया करना कैसे संभव होगा?
नौकरी और रोजगार में बहुत फर्क है। यदि बिहार सरकार प्रस्तावित पदों पर ही भर्तियां कर दे, तो युवा बेचैनी और
आक्रोश कुछ कम हो सकता है। राष्ट्रीय स्तर पर फिलहाल कई औद्योगिक क्षेत्रों में संकट की स्थिति है। देश की
आर्थिक विकास दर भी -10.3 फीसदी है। ऐसे हालात में बिहार में तुरंत चुनाव के बाद नौकरियां देना या रोजगार
मुहैया कराना भी सवालिया है।