कथित कथावाचक धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री सनातनी श्रोताओं का आह्वान कर रहे थे-‘हिंदुओ! एक हो जाओ। हाथों में
हथियार थाम लो। कोई तुम्हारे घर पर पत्थर मारे, तो तुम बुलडोजर चलवा दो। जेसीबी का बंदोबस्त करो और उन
पर जेसीबी भी चलवा दो। हिंदुओं पर हमला करने वालों को मिट्टी में मिला दो।’ उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि
वह धर्मगुरू बाबा नहीं, ढाबा हैं, बुलडोजर हैं। लोग कह रहे हैं कि बाबा को गिरफ्तार करो। हां, मुझे पकड़ कर जेल
में डाल कर दिखाओ।’ कथित कथावाचक एक भारी भीड़ का उद्बोधन कर रहे थे। सनातनी हिंदुओं को जागृत नहीं,
उकसा-सुलगा रहे थे। यह भी अपराध है। मप्र सरकार के पांच कैबिनेट मंत्री उनके पांवों में बैठे कथावाचन सुन रहे
थे और राजनीतिक तौर पर उपकृत हो रहे थे, क्योंकि वोट बैंक पुख्ता होता लग रहा था। कथित बाबा अपनी बात
कहते, फिर ताली बजाते, हुलहुला कर खुद की ही पीठ ठोंकने लगते। हमें कथावाचक के स्थान पर बाबा ‘विदूषक’
प्रतीत हो रहे थे।
बहरहाल यह उनकी अपनी शैली हो सकती थी। वह आत्ममुग्ध होकर ही हिंदुओं में कोई विचार बांटना चाहते थे!
इसी तरह यति नरसिंहानंद, अन्नपूर्णा सरीखे कुछ धर्मगुरुओं ने भविष्यवाणी की है कि 2029 में देश का प्रधानमंत्री
मुसलमान होगा। हिंदू अल्पमत में आ रहे होंगे। तब बचे-खुचे हिंदुओं को एहसास होगा कि मुसलमान की हुकूमत
कैसी होती है? लिहाजा अभी से हर हिंदू को कमोबेश चार बच्चे पैदा करने चाहिए। दो घर-परिवार के लिए और दो
राष्ट्र-सेवा के लिए। साध्वी ऋतंभरा ने भी कई बार ऐसे ही आह्वान किए हैं। सांसद साक्षी महाराज भी अधिक बच्चे
पैदा करने की बात लगातार कहते रहे हैं। आरएसएस प्रचारक भी ऐसा ही प्रचार करते रहे हैं।
देश में जनसंख्या-विस्फोट और संतुलन तथा राष्ट्रीय संसाधनों की चिंता किसी को भी नहीं है। बहरहाल ऐसे
भगवाधारी चेहरों की लंबी फेहरिस्त है। उन्हें जेल में भी डाला गया है, लेकिन कानूनी धाराएं इतनी कमज़ोर होती हैं
कि वे जमानत पर रिहा हो जाते हैं। जिन बुलडोजरी बाबाओं की शरण में मंत्री, पुलिस अफसर और उद्योगपति
नतमस्तक हों, उन भगवाधारियों को गिरफ्तार कौन कर सकता है? मौजूदा नफरती हिंसा और सांप्रदायिक विभाजन
के दौर में भी हमारा कानून और संविधान अनुमति देते हैं कि कोई कुछ भी बोले? हिंदुओं को भड़काए और
उकसाए? बुलडोजर के अवतारी बन जाएं? क्या ऐसे कथावाचक और कथित संतों को, हिंदू धर्म की परिभाषा में,
‘धर्मगुरू’ माना जा सकता है? कमोबेश हम तो ऐसे अराजक तत्त्वों को ‘धर्मगुरू’ का ओहदा देकर अपने धर्म और
सनातनी संस्कृति को कलंकित करने को बिल्कुल भी तैयार नहीं हैं। राजधानी दिल्ली के जहांगीरपुरी दंगों के संदर्भ
में पांच गंभीर आरोपितों पर ‘रासुका’ थोपा गया है। यूएपीए की धाराएं भी चस्पा की जा सकती हैं। क्या उन्हें
आतंकवादी करार दिया जा सकता है? अंतिम फैसला तो अदालत ही करेगी, लेकिन हिंदुओं के ऐसे स्वयंभू सरेआम
ज़हर उगल रहे हैं। जाहिर है कि हिंदू और मुसलमान के बीच नफरत, हिंसा, हथियारबाजी, साजि़शों के हालात पुख्ता
होंगे और शांति, समन्वय, सौहार्द्र, भाईचारा, सद्भाव आदि के संस्कार लुप्त होते जाएंगे। शातिर और क़ा़िफर वही
नहीं हैं, जिनके हाथों में पत्थर, लाठी, डंडा, तमंचा, कट्टा, बंदूक आदि हथियार मिले हैं। प्रथमद्रष्ट्या ही सत्य नहीं
माना जा सकता।
ऐसे कथित संत और कथावाचक भी बराबर के जिम्मेदार हैं। कानून उस पक्ष को भी देखे। बुनियादी सवाल यह होना
चाहिए कि दंगे क्यों भड़क उठते हैं? दो पुराने पड़ोसियों के दरमियान, हिंदू-मुस्लिम हो अथवा किसी अन्य समुदाय
का, अचानक तलवारें क्यों तन जाती हैं? एक-दूसरे के खून के प्यासे क्यों हो जाते हैं? इन मनःस्थितियों पर
अध्ययन किए जाते रहे हैं। उनके निष्कर्ष इंसानियत और अमन-चैन के पक्ष में रहे हैं। करीब 75-80 फीसदी
आबादी को नफरती हिंसा से कोई सरोकार नहीं रहा है। दोनों पक्षों की ओर एक मुट्ठी भर जमात रही है, जो
भड़काती, उकसाती, सुलगाती और मार-काट को तैयार करती है। यह भारत सरकार और उसकी एजेंसियों की
प्राथमिक जिम्मेदारी है कि अपराधी को यथाशीघ्र उचित दंड दिया जाए। चूंकि सवाल वोट बैंक की राजनीति का है,
लिहाजा आधी-अधूरी कार्रवाई की जाती है। सांप्रदायिक विभाजन की दरारें कुछ वक़्त के लिए भरी जाती हैं। फिर
मौका मिलते ही ‘राक्षस’ प्रकट हो जाता है। हम भारत सरकार के सूत्रधारों को उनका दायित्व याद दिला सकते हैं,
लेकिन निर्णय उनकी मानसिकता को लेने हैं। सोचने वाली बात यह है कि आखिर हिंदुओं और मुसलमानों, जो अब
तक साथ-साथ रहे हैं, में तलवारें क्यों तन रही हैं। इस मसले को शांत किया जाना चाहिए।