अशोक कुमार यादव मुंगेली
भ्रष्टाचार के बाजार से, कोई खरीद लिया है ईमान?
सत्य रो रहा कोने में, असत्य घूम रहा बना महान।।
लोभ, पाप और दुराचार, आतंक का है बोलबाला।
मर चुकी है आत्मा, गरीब का छीन लिए निवाला।।
लोहा को हीरा बना रहा, धूल और राख को सोना।
मंत्र जान रहे झाड़-फूँक का, कर रहे जादू-टोना।।
राक्षस रूपी दुराचारी ने, शीलवान कर्म को हराया।
खुशी से उड़ाया रंग-गुलाल, घर में बाजा बजवाया।।
झूठ का जश्न मना रहे मानव, कपटी गधा बैठा घोड़ी।
बेजुबान मुर्गी की पार्टी, शराब पी रहे हो थोड़ी-थोड़ी।।
तू आनंद में झूम, नाच, गा, एक दिन फिर पछताएगा।
नेतृत्व क्षमता को खोकर, ज्ञान प्रतिभा कहाँ से लाएगा?
जनसेवा तेरा मकसद नहीं, माल खसोटना तेरा काम।
खाली जेब को गरम करता है, तेरी औकात का दाम।।
चवन्नी और अठन्नी के लिए, बदला तूने सरल स्वभाव।
बेच दिया मान-सम्मान को, अपनों पर न रहा लगाव।।
सिर पटक कर, पछाड़ खाकर, मृत हो भू पर गिरेगा।
यदि चाहता है अपना भला, तो भगवान से कब डरेगा?
सुधर जा,अभी भी समय है, कुछ नहीं बिगड़ा है अभी।
परोपकार का रास्ता अपना, तुझे मुक्ति मिलेगी तभी।।