एक ओर 2017 में न्यायालय ने कई ऐतिहासिक फैसले सुनाए वहीं 2018 में भी कई महत्त्वपूर्ण फैसले आने हैं। इन सबके दरम्यान साल-दर-साल लंबित मामलों में बढ़ोतरी भी होती जा रही है। देश में सभी अदालतों में लंबित केस की बात करें तो लगभग 2 करोड़ 60 लाख मामले लंबित हैं और जजों की पद हजारों की संख्या में खाली हैं। आंकड़ों के मुताबिक, जहां ऊपरी अदालतों में लंबित मामलों में कमी आई है वहीं दूसरी ओर निचली अदालतों में मामले बढ़ते ही जा रहे हैं। 27 दिसम्बर 2017 तक के आकड़ों के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट में 55,259 मामले लंबित हैं। मगर बड़ा सवाल यही कि जजों की संख्या अगर इसी तरह घटती रहेंगी तो लंबित मामलों में और ज्यादा इजाफा होगा। मौजूदा समय में जजों के कुल 6379 पद खाली हैं। सर्वोच्च न्यायालय में जहां 6 सीटें खाली हैं वही हाईकोर्ट में 389 और निचली आदालतों में 5984 पद रिक्त हैं। वहीं 9 हाईकोर्ट ऐसे हैं, जहां मुख्य न्यायाधीश का पद खाली पड़ा है और वहां पर कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश के माध्यम से काम हो रहा है। वहीं सुप्रीम कोर्ट में इस साल सात और जज रिटायर हो जाएंगे। आश्र्चयजनक बात यह है कि इन सबके वावजूद सुप्रीम कोर्ट की तरफ से इन पदों को भरने का प्रस्ताव सरकार को नहीं भेजा गया है। सबसे बुरा हाल सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश का है। जहां एक तरफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में सबसे ज्यादा यानी 51 पद खाली हैं, वहीं राज्य में सबसे ज्यादा मामले (60,49,151) लंबित हैं। जजों की नियुक्ति मौजूदा समय में कॉलेजियम सिस्टम के द्वारा की जाती है, जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में सर्वोच्च न्यायालय के पांच वरिष्ठ न्यायाधीश जजों के नाम सुझाते हैं और इन्हीं में से जजों को चुना जाता है। वर्ष 2016 में इस दशक की सबसे ज्यादा नियुक्ति इस सिस्टम के द्वारा की गई है। परंतु इसका असर इन खाली पदों पर न के बराबर पड़ा है। अगर जजों की कमी को पूरा भी कर दिया गया तो मामले जल्दी निपटाने के चक्कर में न्याय अधूरा ही रह सकता है क्योंकि किसी भी केस में निर्णायक वक्त नहीं देने का खमियाजा न्याय की पूरी प्रक्रिया को पटरी से उतार सकता है। और अगर लोगों को न्याय नहीं मिलेगा तो वे फिर से ऊपरी अदालतों का रु ख करेंगे। यानी मामला सुलझाने के बजाय बढ़ता ही जाएगा। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा का कहना है कि अदालत में लंबित मामले से निपटने के लिए बार और बेंच दोनों को साथ मिलकर काम करना होगा। हम लंबित मामले को अपने सामने शेर की तरह गरजने नहीं दे सकते।’ सबसे ज्यादा चिंता इस बात को लेकर है कि मामलों के सुनवाई अदालत में आने से लेकर उसके अंतिम फैसले आने में देरी होती है। चिंता की बात यह भी है कि इस समय देश में हर 10 लाख आबादी पर मात्र 18 जज हैं। 2018 न्यायपालिका के लिहाज से बेहद उल्लेखनीय वर्ष होगा। इस साल कई ऐतिहासिक फैसले लिये जाने हैं, जिनमें से आधार की संवैधानिक वैधता, दिल्ली सरकार और लेफ्टिनेंट गवर्नर के बीच सत्ता का संघर्ष, धारा 377 का वैधीकरण, बाबरी मस्जिद मामला, जम्मू-कश्मीर को मिले विशेष आधिकार का मामला, निर्भया रेप केस, इच्छा मृत्यु आदि हैं। ये आने वाले निर्णय अगले कई सालों तक याद भी रखेंगे जाएंगे साथ ही इसके कई सियासी निहितार्थ भी निकाले जाएंगे। देखने वाली बात यह होगी कि न्यायालय में जजों के खाली पड़े पदों और करोड़ों लंबित मामले का इन ऐतिहासिक फैसलों पर क्या असर पड़ता है।सुरसा के मुंह की तरह बढ़ते लंबित मामलों के संदर्भ में एक सुझाव राष्ट्रीय अपीली अदालत के गठन का है, जिसमें उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम में से प्रत्येक क्षेत्र के लिए 15 जजों की नियुक्ति का प्रावधान होगा जो पांच और तीन जजों की बेंच में काम करेंगे ताकि सुप्रीम कोर्ट को मकान मालिक और किराएदार के बीच विवाद, विवाह संबंधी मामले और जमानत जैसे मुद्दों की सुनवाई से मुक्ति दिलाई जा सके। इससे सुप्रीम कोर्ट के पास सुनवाई के लिए सिर्फ संवैधानिक मामले, कानून की व्याख्या और हाईकोर्ट में असहमति से जुड़े मामले ही रह जाएंगे। देखना है इन सुझावों पर कितना और कितनी जल्दी अमल हो पाता है। स्वस्य लोकतंत्र के लिए मजबूत न्यायपालिका बहुत जरूरी है। लेकिन यह सब तब होगा जब अदालतों की सुविधाओं और ढांचों को बेहतर बनाया जाएगा। जजों की हर स्तर पर कमी से फिलहाल यही कहा जा सकता है कि इंसाफ में देरी नाइंसाफी है।