बंगाल में लोकतंत्र या लहू तंत्र

asiakhabar.com | October 12, 2019 | 4:06 pm IST
View Details

शिशिर गुप्ता

पश्चिम बंगाल में एक बार फिर इनसान की हत्या की गई है। कारण कुछ भी हो। पहचान कुछ भी हो।
वैचारिक संबद्धता कुछ भी हो, लेकिन लोकतंत्र में इंसान की हत्या की गई है। इससे जघन्य और बर्बर
क्या हो सकता है? एक प्राथमिक स्कूल का शिक्षक, उसकी आठ माह की गर्भवती पत्नी और आठ साल
के मासूम बेटे की निर्मम हत्या की गई है। यह मानवीय समाज है या राक्षसों का कोई इलाका…! संयोग
से मृतक व्यक्ति बंधु गोपाल पाल का जुड़ाव आरएसएस से था। वह संघ की शाखाओं में जाते थे। क्या
उनका यही गुनाह था? लोकतंत्र में कानून-व्यवस्था की जगह होती है अथवा ‘जंगलराज’ की सरकार भी
शासन करती है? हम लोकतंत्र में जी रहे हैं या लहू तंत्र का विस्तार होता जा रहा है? बंगाल देश का
हिस्सा है। केरल, त्रिपुरा, झारखंड और उत्तर प्रदेश भी देश की परिधि में हैं। ऐसा खून-खराबा कहीं भी हो,

बेहद निंदनीय ही नहीं, बल्कि वहां के जिलाधीश और पुलिस अधीक्षक की जिम्मेदारी तय की जानी
चाहिए। इन जघन्य हरकतों पर अलग-अलग दृष्टि और सोच से देखा नहीं जाना चाहिए। अफसोस हो रहा
है कि एक भी कथित बुद्धिजीवी की आत्मा इस बर्बर हत्या पर नहीं चीखी, असंतुष्ट सन्नाटे में चुपचाप
बैठे हैं और प्रधानमंत्री को ज्ञापन लिखने की एक भी पहल नहीं की गई! आखिर क्यों….क्या इसे लिंचिंग
न माना जाए? क्या मृतक संघी था और आप बुद्धिजीवी संघ से नफरत करते हैं! लिंचिंग तो संघ वाले
ही करते हैं, ऐसी आपकी धारणा है। सर संघ चालक मोहन भागवत को भी लिंचिंग के मायने पता चल
गए होंगे कि यह हरकत ‘भारतीय’ ही है। संघ वाला भी इंसान था, कीमत इनसानी जिंदगी की है, वह भी
इसी देश का नागरिक था, ऐसा क्या कर दिया उसने कि उसे सपरिवार ही मार दिया गया? यहां तक कि
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का भी आलेख के लिखने तक कोई बयान नहीं आया, जबकि बुनियादी और
पहली जिम्मेदारी सरकार की है कि वह इनसानी जिंदगी की हिफाजत करे। जनादेश का एक अर्थ यह भी
है। सिर्फ सत्ता कब्जाना ही जनादेश के मायने नहीं हैं। बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ ने ऐसे
पाशविक हत्याकांड पर दुख और हैरानी प्रकट की है। वह निजी तौर पर स्तब्ध हैं। उन्होंने हत्याकांड से
जुड़ी रपट भी तलब की है। यह टिप्पणी भी की है कि इस हत्याकांड से हालात का अंदाजा लगाया जा
सकता है। हम राज्यपाल की इतनी प्रतिक्रिया को ही पर्याप्त नहीं मानते। बंगाल का रक्त-चरित्र ही बदल
गया है। इसी साल 2019 में 834 हिंसक घटनाएं हो चुकी हैं और राजनीतिक हत्याओं का आंकड़ा भी 26
हो चुका है। इनसान की पहचान संघ-भाजपा की हो या तृणमूल, कांग्रेस, वामदलों की हो, हत्याओं के बूते
सियासत करना देश के लिए ‘शर्मनाक कलंक’ है। इनका कोई तार्किक स्पष्टीकरण नहीं दिया जा सकता।
यदि आरएसएस बंगाल में आदिवासी, ग्रामीण इलाकों पर फोकस कर रहा है और गली-गली जाकर
जनसंपर्क में जुटा है, तो यह ऐसा काम नहीं है कि उसके कार्यकर्ताओं की ही हत्या की जाने लगे।
लोकतंत्र में सभी पक्षों को अपनी बात कहने, प्रचार करने और विस्तार करने का संवैधानिक अधिकार है।
तृणमूल और वामदल भी घर-घर लाबिंग करते होंगे। बेशक हत्याएं उनके कार्यकर्ताओं की भी की जा रही
हैं। क्या इसी को ‘लोकतंत्र’ कहते हैं? बंगाल में हत्याओं को ही राजनीति का हथियार बना लिया गया है।
क्या ये सामान्य हालात हैं? याद करें बंगाल की सांस्कृतिक विरासत को। यह जमीं रामकृष्ण परमहंस,
विवेकानंद, रवींद्रनाथ टैगोर, बंकिम चंद्र और विद्यासागर सरीखे कालजयी समाज सुधारकों और चिंतकों
की है। क्या छोटी-छोटी बात पर यहां हत्याएं की जाती रहेंगी? बंगाल में विधानसभा चुनाव बहुत दूर नहीं
हैं। लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 40 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल कर और 18 सांसद जीत कर ममता
को बेहद गंभीर चुनौती दी है। वैसी ही चुनौती ममता ने वाम मोर्चे को दी होगी, नतीजतन 34 साल
पुराना दुर्ग ढहा कर अपनी सत्ता कायम की थी। राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के मायने ये नहीं हैं कि
कार्यकर्ताओं की हत्याएं की जाएं। बंगाल लगातार लाल होता जा रहा है। अब वक्त आ गया है कि वहां
राष्ट्रपति शासन चस्पां किया जाए। राज्यपाल का बयान ही इसका बुनियादी आधार हो सकता है।


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *